बौधगया, बिहार का वह पवित्र स्थल है, जहां भगवान बुद्ध को बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। यहीं से शांति का संदेश पूरी दुनिया में फैला। लेकिन शांति की इस भूमि को अशांत करने का प्रयास किया जा रहा है। इसके पीछे जो तत्व पकड़े जा रहे हैं, वे किसी गहरे षड्यंत्र की ओर संकेत करते हैं। कुछ लोग इस विवाद को तूल देने के लिए एक पक्ष के समर्थन में लेख तक लिख रहे हैं।
पिछले दिनों कुछ नव-बौद्धों ने बोधगया और गया में जमकर उत्पात मचाया। गया के डुंगेश्वरी मंदिर परिसर में लगे ध्वज को तोड़ दिया और एक फूल बेचने वाले बुजुर्ग के साथ मारपीट की। हिंसा के आरोप में पुलिस ने भंते विनय आचार्य को हिरासत में लिया। इसके कुछ दिन बाद बोधगया में एक युवक को ‘जय श्रीराम’ बोलने से रोका गया। युवक ने इसका विरोध किया तो उसे एससी-एसटी एक्ट में फंसाने की धमकी दी गई। फिर ‘स्लीपिंग बुद्धा टेंपल’ के प्रभारी आर्यपाल ने 14 मई को स्थानीय दुकानदार अनुज कुमार गुप्ता पर जानलेवा हमला किया। उसी दिन महाबोधि मंदिर के पास कुछ लोगों के साथ मारपीट और गाली-गलौज भी की। यही नहीं, वह बराबर हिंदू धर्म के बारे में अपशब्दों का प्रयोग करता है।
पुलिस के अनुसार, आर्यपाल पर पहले से ही कई मामले दर्ज हैं। इस विवाद में एक और आयाम तब जुड़ा, जब 16 मई, 2025 को ‘स्लीपिंग बुद्धा टेंपल’ से एक बांग्लादेशी नागरिक को गिरफ्तार किया गया। वह 15 दिन से बौद्ध भिक्षु के बाने में रह रहा था। उसने अरुणाचल प्रदेश के एक पते पर फर्जी आधार कार्ड बनवा रखा था। पुलिस जांच में पता चला कि वह बिना वीजा और पासपोर्ट के भारत में अवैध रूप से आया था। उसकी मंशा संदिग्ध थी। कुछ लोगों का कहना है कि यह हिंदू-बौद्ध तनाव को और भड़काने की कोशिश थी। दूसरी ओर, कुछ लोगों का मानना है कि बाहरी ताकतें, जैसे कि गैर-राज्य तत्व या राजनीतिक समूह इस विवाद को हवा देकर सामाजिक और धार्मिक तनाव को बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं। बांग्लादेशी नागरिक की गिरफ्तारी इस सिद्धांत को बल देती है। इसके अलावा, सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो और भड़काऊ बयान भी आग में पेट्रोल डालने का काम करते रहे।
नव-बौद्ध यानी…
दुनिया को बखूबी पता है कि डॉ. भीमराव आंबेडकर ने बौद्ध मत को अपनाया था। वे आडंबरों के विरोधी थे, लेकिन दुर्भाग्य से 6 दिसंबर, 1956 को उनकी मृत्यु हो गई। ईसाई मिशनरियों ने इसका लाभ उठाया। 1977 के बाद नक्सलियों और मिशनरियों ने मिलकर इस स्थान पर कब्जे का प्रयास प्रारंभ किया।
1977 के बाद गया में बाहर से आकर बसने वालों की बाढ़ आ गई। यहां कई विदेशी महिलाओं ने स्थानीय युवकों से शादी कर उन्हें व्यवसाय करने के लिए धन भी दिया। डॉ. आंबेडकर को सामने रखकर बौद्ध मतावलंबियों में एक नया संप्रदाय प्रारंभ हुआ। इसे ही नव-बौद्ध कहा जाता है। स्थानीय ‘गाइड’ रमेश मिश्र बताते हैं कि इन नव-बौद्धों की रुचि धार्मिक कार्यों में कम और हिंदू धर्म को गाली देने में ज्यादा रहती है। इन लोगों का नेतृत्व सुरई सिसई, विनय आचार्य, आकाश लामा, प्रज्ञाशील जैसे लोग करते रहे हैं।
वास्तव में लगभग तीन दशक से बोधगया में हिंदू और बौद्धों के बीच विवाद पैदा करने के कुत्सित प्रयास किए जा रहे हैं। बहाने हर बार अलग-अलग होते हैं। इन घटनाओं को गहराई से देखने पर समझ में आता है कि उनका उद्देश्य एक ही होता है कि किसी भी तरह वहां विवाद बढ़े। दरअसल, नव बौद्ध समुदाय और कुछ बौद्ध भिक्षु बोधगया मंदिर अधिनियम, 1949 (बीटी एक्ट) को निरस्त करने की मांग कर रहे हैं। इस अधिनियम के तहत, महाबोधि मंदिर का प्रबंधन बोधगया टेंपल मैनेजमेंट कमेटी (बीटीएमसी) द्वारा किया जाता है, जिसमें चार बौद्ध और चार हिंदू सदस्य होते हैं, जबकि अध्यक्ष गया का जिला मजिस्ट्रेट होता है। ‘बोधगया मठ’ के महंत को इस समिति का स्थायी सदस्य बनाया गया है।
इस एक्ट के कुछ प्रावधानों पर ‘बोधगया मठ’ के तत्कालीन महंत को कुछ आपत्ति थी, तो वे न्यायालय चले गए और जिस पर न्यायालय ने रोक लगा दी। फिर 1952 में ‘बोधगया मठ’ और बिहार सरकार के बीच एक समझौता हुआ। इसके बाद 12 मई, 1953 को महाबोधि मंदिर का प्रबंधन बीटीएमसी को दे दिया गया। इसके अनुसार, महाबोधि मंदिर परिसर के कुछ स्थान हिंदुओं के नियंत्रण में रहेंगे। इसमें ‘बोधगया मठ’ के दो महंतों की समाधि, पंच पांडव मंदिर, भगवान शिव मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर और एक अन्य मंदिर शामिल है।
गर्भगृह में भगवान बुद्ध के साथ भगवान विष्णु, भगवान शिव तथा गणेश की प्रतिमा भी है। नीचे शिवलिंग है। मंदिर के पीछे भगवान विष्णु के दो चरण हैं। दो देवी प्रतिमाएं हैं-एक 8×8 की और दूसरी 16×8 की। समझौते के अनुसार इन सभी स्थानों का प्रबंधन बीटीएमसी के पास रहेगा। ‘बोधगया मठ’ के महंत स्वामी विवेकानंद गिरि कहते हैं, “सदियों से महाबोधि मंदिर का प्रबंधन हिंदुओं के पास है, इसलिए उस पर उसका ही अधिकार है।”
वहीं, बौद्ध भिक्षुओं का कहना है कि यह व्यवस्था उनके पवित्र स्थल पर हिंदू प्रभाव को बढ़ावा देती है, इसलिए वे मंदिर का पूर्ण नियंत्रण मांग रहे हैं। बौद्ध भिक्षुओं व नव बौद्ध संगठनों, जैसे अखिल भारतीय बौद्ध मंच ने मंदिर में हिंदू अनुष्ठानों व वहां मौजूद कुछ प्रतिमाओं को हटाने की मांग की है। उनका कहना है कि महाबोधि मंदिर एक बौद्ध धरोहर है, इसलिए इसमें हिंदू रीति-रिवाजों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
महाबोधि मंदिर का निर्माण ईसा से लगभग 300 वर्ष पूर्व सम्राट अशोक ने करवाया था। सम्राट अशोक ने हजारों मंदिर बनवाए थे, उनमें से पहला बोधगया मंदिर है। इसका वर्तमान स्वरूप छठी शताब्दी में बनकर तैयार हुआ। बाद के राजाओं ने इसे और विकसित किया। पाल वंश और अन्य राजाओं के समय इसकी देखरेख और मरम्मत होती रही। 12वीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी ने यहां आक्रमण किया। इससे महाबोधि मंदिर का काफी अंश क्षतिग्रस्त हो गया।
सभी भंते और भिक्षु यहां से पलायन कर गए। इसके बाद 12वीं शताब्दी से लेकर आज तक मंदिर का प्रबंधन स्थानीय समाज और ‘बोधगया मठ’ करता रहा है। अंग्रेजों के रिकॉर्ड के अनुसार भी 1590 से ‘बोधगया मठ’ महाबोधि मंदिर का प्रबंधन करता आ रहा है। 1726 में शाह आलम द्वितीय ने जो राजस्व रिकॉर्ड तैयार करवाया था, उसमें भी इस जगह का प्रबंधन ‘बोधगया मठ’ के पास था। बंगाल के संन्यासी आंदोलन के समय यह एक प्रमुख केंद्र था। 1811 में बुकानन हैमिल्टन ने एक सर्वे करवाया था। उसमें भी मंदिर को ‘बोधगया मठ’ के अधीन बताया गया था। यहां कभी कोई विवाद नहीं रहा।
1875 में बर्मा के राजा के साथ ‘बोधगया मठ’ का एक समझौता हुआ। इसके अनुसार उन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। वर्तमान स्वरूप उसी समझौते की देन है। उस समय मंदिर के गर्भगृह में गाैतम बुद्ध की कोई मूर्ति नहीं थी। वर्तमान मूर्ति ‘बोधगया मठ’ की है। मठ के परिसर में ही इस मूर्ति की पूजा-उपासना होती थी। अंग्रेज अधिकारी कनिंघम के सुझाव के बाद कि महाबोधि मंदिर में कोई प्राचीन मूर्ति होनी चाहिए, मठ से उस मूर्ति को महाबोधि मंदिर लाया गया और हिंदू रीति से उसकी प्राण-प्रतिष्ठा कराई गई।
इतिहास
- तीसरी शताब्दी ई.पूर्व में सम्राट अशोक द्वारा बोधगया में महाबोधि मंदिर का निर्माण।
- दूसरी शताब्दी में मंदिर का विस्तार।
- छठी सदी में बोधगया मंदिर का वर्तमान स्वरूप बना।
- तेरहवीं शताब्दी में कुतुबुद्धीन ऐबक और बख्तियार खिलजी द्वारा मंदिर को क्षति पहुंचाई गई।
- तेरहवीं शताब्दी से 1953 तक बोधगया मठ द्वारा मंदिर का प्रबंधन।
- 1953 में बी. टी. एक्ट, 1949 में संशोधन के बाद मंदिर प्रबंधन का दायित्व बी. टी. एम. सी. को दिया गया।
- 1851 में मिशनरियों ने श्रीलंका के ईसाई डॉन डेविड को बौद्ध बनाकर बोधगया मंदिर में भेजा।
दरअसल, 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों को लगने लगा था कि लोगों में बिना फूट डाले भारत पर राज नहीं किया जा सकता। लिहाजा कई विवाद खड़े किए गए। उनमें से एक महाबोधि मंदिर का विवाद भी है। एक भंते अनागारिक धर्मपाल थे। धर्मपाल का मूल नाम डॉन डेविड था। वे जन्म से ईसाई थे, उन्होंने बाद में बौद्ध मत अपनाया। श्रीलंका के रहने वाले धर्मपाल 1891 में अपने जापानी मित्र भिक्खु कोजुन के साथ बोधगया आए। वे महाबोधि मंदिर में बुद्ध की एक मूर्ति स्थापित करना चाहते थे, लेकिन ‘बोधगया मठ’ के तत्कालीन महंत ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया।
उनका मानना था कि मंदिर में कोई भी पूजा-पाठ कर सकता है, लेकिन किसी को मूर्ति स्थापित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। इसे लेकर एक आपराधिक मामला भी दर्ज हुआ। तब कोलकाता उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने निर्णय दिया था कि महंत जी की अनुमति के बिना मंदिर परिसर में कोई भी मूर्ति स्थापित नहीं की जा सकती। कुछ वर्ष तक यह मामला ऐसे ही चलता रहा।
1922 में महात्मा गांधी ने गया में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन बुलाया। इस अधिवेशन का एक विषय महाबोधि मंदिर भी था। इसे लेकर कांग्रेस में एक समिति बनी, जिसके अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे। समिति के सदस्यों में राहुल सांकृत्यायन भी थे। समिति ने 50-60 पन्नों की एक रपट तैयार की। इसमें सुझाव दिया गया कि यह साझी विरासत है, इसलिए हिंदुओं और बौद्धों को मिलकर इसका प्रबंधन करना चाहिए। पर महंत ने सुझाव मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने उस समय एक पुस्तक लिखी- ‘बुद्ध मीमांसा’, जिसमें भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार माना गया है।
अत: बोधगया में चल रहा विवाद केवल धार्मिक प्रबंधन का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत से जुड़ा एक संवेदनशील विषय है। इसलिए सरकार और दोनों समुदायों के प्रतिनिधियों को आपस में मिलजुल कर यह सुनिश्चित करना होगा कि बोधगया, जो शांति और अहिंसा का प्रतीक है, किसी भी षड्यंत्र का शिकार न बने।
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