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आपातकाल: लोकतंत्र की हत्या और कांग्रेस की तानाशाही

1975 के आपातकाल ने भारतीय लोकतंत्र को तानाशाही की आग में झोंक दिया। इंदिरा गांधी की सत्ता की भूख ने संविधान, प्रेस, और नागरिक अधिकारों को कुचल दिया। जानें कैसे कांग्रेस की नीतियों ने भारत को जेल में तब्दील किया।

by प्रमोद कौशल
Jun 27, 2025, 10:49 am IST
in विश्लेषण
Emergency Indira Gandhi Democracy

प्रतीकात्मक तस्वीर (PTC न्यूज)

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“धर्मेण हीना: पशुभिः समानः।”
(जो धर्म और नीति से रहित है, वह पशु के समान है।)

संविधान हाथों में लेकर अपनी बिखरी हुई सियासी विरासत को सहेजने की कोशिशों में लगे हुए कांग्रेस के “राजकुमार” राहुल गांधी को इस बात का जवाब देना चाहिए कि संविधान की हत्या में शामिल उनकी दादी की तानाशाही (आपातकाल) पर उनकी पार्टी ताउम्र की चुप्पी कब तोड़ेगी ?

25 जून 1975 की रात भारतीय लोकतंत्र के माथे पर कलंक बनकर आई। यह वह दिन था जब एक महिला के निजी स्वार्थ ने पूरे देश की आज़ादी, स्वतंत्रता और संविधान की मर्यादा को रौंद दिया। उस महिला का नाम था इंदिरा गांधी, और उस दिन भारतीय गणराज्य ने कांग्रेस की तानाशाही का स्वाद चखा।

तानाशाही की रात: लोकतंत्र पर धावा

आपातकाल की घोषणा कोई राष्ट्रीय आपदा या युद्ध के कारण नहीं हुई थी। यह घोषित हुई थी एक न्यायिक फैसले के बाद, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनावी भ्रष्टाचार के दोष में अयोग्य ठहराया था। सत्ता की भूखी इंदिरा ने न अदालत को माना, न संविधान को। उन्होंने न केवल स्वयं की कुर्सी बचाई, बल्कि पूरे देश को एक खुली जेल में तब्दील कर दिया।

“नायकेन विना राष्ट्रं, नश्यति शीघ्रमेव हि।”
(अधर्मी नेतृत्व वाला राष्ट्र शीघ्र नष्ट होता है।)

प्रेस की आजादी का गला घोटा

“इंदिरा इज़ इंडिया और इंडिया इज़ इंदिरा” — कांग्रेस के चमचों ने ऐसा प्रचार किया मानो लोकतंत्र नहीं, इंदिरा ही देश हैं। प्रेस को बंधक बनाया गया, अख़बारों के पन्ने सेंसर किए गए, पत्रकारों को जेल में डाला गया। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ जेल की कालकोठरी में धकेल दिया गया।

“सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।”
(कहने का साहस हो सत्य का, किंतु प्रिय ढंग से – पर जब सत्ता ही असत्य हो, तब यह भी असंभव।)

विपक्ष को कुचल दिया गया

जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई जैसे जननायकों को रातों-रात गिरफ़्तार कर लिया गया। संसद को कठपुतली बना दिया गया। एक तरफ कांग्रेस का सत्ता का नशा था, दूसरी तरफ देश की आत्मा कराह रही थी।

“अन्यायेन जितो लोको न सुखं समुपैति हि।”
(अन्याय से जीता गया समाज कभी सुख नहीं पाता।)

नागरिक अधिकारों का हरण

धारा 21 — जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार — को निलंबित कर दिया गया। कोई नागरिक अदालत नहीं जा सकता था। कांग्रेस ने नागरिकों को क़ानूनी कीड़ों में तब्दील कर दिया था। हज़ारों लोग बिना मुक़दमे के जेलों में ठूंसे गए। यह भारत का गेस्टापो युग था, जहाँ इंदिरा की मर्ज़ी ही कानून थी।

जबरन नसबंदी: जनसंहार जैसा कृत्य

संजय गांधी के “पांच सूत्रीय कार्यक्रम” के नाम पर लाखों गरीबों की जबरन नसबंदी की गई। मुसलमान, दलित, पिछड़े – जिनकी कोई नहीं सुनता था, उन्हें मानवाधिकारों से वंचित कर दिया गया। यह कांग्रेस का वह काला अध्याय है, जिसे आज भी पीड़ितों की पीढ़ियाँ कड़वाहट के साथ याद करती हैं।

“परपीड़नं पापम्।”
(दूसरों को कष्ट देना सबसे बड़ा पाप है।)

कांग्रेस का असली चेहरा

आपातकाल ने यह साबित कर दिया कि कांग्रेस कभी भी लोकतंत्र की सच्ची अनुयायी नहीं रही। वह हमेशा से एक वंशवादी, सत्ता-लोलुप और अवसरवादी दल रही है। इंदिरा गांधी ने नेहरू की विरासत को तानाशाही की विरासत में बदल दिया।

“न स्वधर्मेण नीतं राष्ट्रं, चिरस्थायि न दृश्यते।”
(जो राष्ट्र नीति, धर्म और संविधान से नहीं चलता, वह स्थायी नहीं रह सकता।)

मीडिया और कांग्रेस: रिश्वत का रिश्ता

आपातकाल में कांग्रेस ने बड़े मीडिया घरानों को विज्ञापन और धन देकर खरीदा। वही घराने आज भी कांग्रेस के काले पन्नों को चमका कर प्रस्तुत करते हैं। कांग्रेस ने लोकतंत्र की आत्मा को धन से खरीदा — यह राजनैतिक वेश्यावृत्ति थी।

वोट के बदले चुप्पी

कई बुद्धिजीवी, कलाकार, लेखक चुप रहे या इंदिरा का समर्थन करते रहे — सिर्फ इसलिए कि उन्हें कांग्रेस की दया पर जीवित रहना था। वहीं दूसरी ओर, अज्ञात ग्रामीणों और छात्रों ने चुपचाप प्रतिरोध किया। वे आज असली नायक हैं।

“शत्रुं निन्दतु वा स्तौतु, लभते यश एव सः।”
(चाहे विरोध हो या प्रशंसा – जो सत्य के लिए खड़ा होता है, वही यशस्वी होता है।)

1977: जनता की जीत, कांग्रेस की हार

आपातकाल ने भारत को झकझोर दिया, पर उसे तोड़ नहीं सका। 1977 के चुनाव में जनता ने कांग्रेस को धूल चटा दी। इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों ही चुनाव हारे। यह भारतीय जनता का न्याय था।

“सत्यमेव जयते, नानृतं।”
(सत्य की ही सदा विजय होती है, असत्य की नहीं।)

कांग्रेस का दोहरापन

आज वही कांग्रेस, जो आपातकाल की शर्मनाक विरासत की कोई माफ़ी नहीं माँगती, “लोकतंत्र के रक्षक” बनने का ढोंग करती है। राहुल गांधी “संविधान बचाओ” का नारा लगाते हैं, जबकि उनकी दादी ने संविधान को जेल में बंद किया था।

“मूर्खस्य लक्षणं यत् – कृतघ्नता।”
(मूर्ख की निशानी है – किए गए पापों को न मानना।)

आज की युवा पीढ़ी को जानना चाहिए

आपातकाल सिर्फ एक इतिहास नहीं, एक चेतावनी है। यह याद दिलाता है कि अगर सत्ता का गलत उपयोग किया जाए, तो लोकतंत्र तानाशाही में बदल सकता है। कांग्रेस और उनके जैसे दलों को सत्ता से दूर रखना जनता का नैतिक कर्तव्य है।

कांग्रेस को हराने का समय अब भी है

आज भी कांग्रेस अपनी वंशवादी राजनीति, मुस्लिम तुष्टिकरण, वोट बैंक की गंदी राजनीति और राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ाने में लिप्त है। भारत को फिर कभी कांग्रेस जैसे दलों से आपातकाल जैसी रात का सामना न करना पड़े, इसके लिए संगठित प्रतिरोध आवश्यक है।

“उत्तिष्ठ भारत! धर्मं पालय! सत्यं वद!”
(उठो भारत! धर्म की रक्षा करो! सत्य बोलो!)

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