भारत 1947-48 में कश्मीर में पहले युद्ध के समय से ही पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का शिकार रहा है। पाकिस्तान ने कबायली हमलावरों की आड़ में इस युद्ध को प्रायोजित किया और बाद में इसमें पूरी तरह से हिस्सा लिया। जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की प्रवृत्ति 1990 के दशक के प्रारंभ से ही उनकी राष्ट्रीय नीति का एक साधन बन गई थी, जो पिछले 35 वर्षों से निरंतर जारी है। पहलगाम अटैक इसकी पुष्टि करता है।
भारत ने झेला सबसे ज्यादा आतंकवाद
भारत के पूर्वोत्तर राज्यों ने 1960 के दशक से ही उग्रवाद, अलगाववाद और आतंकवाद के रूप में ग्रे जोन युद्ध के विभिन्न रूपों को देखा है। पंजाब राज्य भी 1980 के दशक के मध्य से 1990 के दशक के मध्य तक खालिस्तानी उग्रवाद से पीड़ित रहा। अपने चरम पर, देश के लगभग 250 जिले वामपंथी उग्रवाद (एलडब्ल्यूई) से पीड़ित थे, जिसे नक्सली उग्रवाद के रूप में जाना जाता है। इसलिए, समसामयिक इतिहास में कोई भी राष्ट्र विभिन्न प्रकार के आतंकवाद का भारत से बड़ा शिकार नहीं रहा है। ऐसे देश भी हैं जो आतंकवाद से पीड़ित हैं, लेकिन भारत के पैमाने और परिमाण पर नहीं।
पहलगाम अटैक अमेरिका के 9/11 हमले जैसा
पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित पहलगाम हमला अमेरिका में हुए 9/11 हमले जैसा है। हालांकि भारत को एक दशक बाद मुंबई (26/11 हमला) में एक और पाक प्रायोजित बड़ा आतंकी हमला झेलना पड़ा, लेकिन देश उस वक्त आतंक के खिलाफ कोई निर्णायक कार्रवाई नहीं कर सका। भारत 2014 में पीएम मोदी सरकार के तहत ‘आतंकवाद के खिलाफ शून्य सहिष्णुता (Zero Tolerance for Terrorism)’ की नीति के साथ आया था। मोदी सरकार के तहत, भारत ने आतंकवाद से निपटने के लिए अधिक निर्णायक कदम उठाए। लेकिन पिछले दशक में, आतंकवाद ने कई रंग अपना लिए हैं और मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा बना हुआ है।
आतंक के खिलाफ अमेरिकी रणनीति
यह ध्यान रखना जरूरी है कि अमेरिका ने 9/11 के आतंकवादी हमलों का जवाब कैसे दिया। इसने वर्ष 2001 से ‘आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध’ शुरू किया। उसने पूरी दुनिया में सभी आतंकी समूहों, संदिग्ध आतंकवादियों और आतंकवाद के समर्थकों के खिलाफ भारी बल का प्रयोग किया। अमेरिका ने अक्टूबर 2001 में अल-कायदा और तालिबान को निशाना बनाने के लिए नाटो बलों के साथ अफगानिस्तान में ‘ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम’ शुरू किया। अगस्त 2022 में डी-इंडक्शन तक दो दशक लंबे इस ऑपरेशन के दौरान, हर मानवाधिकार का उल्लंघन किया गया और अफगानिस्तान के लाखों निर्दोष नागरिकों ने अपनी जान गंवाई। अब इसकी तुलना 7-10 मई के दौरान ऑपरेशन सिंदूर में भारत द्वारा सोची समझी और नपी-तुली प्रतिक्रिया से करें, जहां भारत ने केवल आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया और नागरिक ठिकानों से सख्ती से परहेज किया।
भारत की रणनीति यह रही
भारत शुरू से ही आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में एक आदर्श रहा है। भारत ने आतंकवादियों के खिलाफ न्यूनतम बल के सिद्धांत का इस्तेमाल किया। सशस्त्र हेलीकॉप्टरों जैसे हवाई प्लेटफार्मों सहित बड़े हथियारों का उपयोग शायद ही कभी भारत द्वारा आतंकवादियों के खिलाफ किया गया है। भारत ने जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों की खोज में कभी भी एलओसी पार नहीं की। भारत ने कभी बांग्लादेश और म्यांमार में अंतरराष्ट्रीय सीमा पार नहीं की, हालांकि इन दोनों देशों के भीतर कई आतंकी ठिकाने थे। एक बार जब आतंकवादियों ने मणिपुर में सेना के काफिले को निशाना बनाया था, तो पीएम मोदी ने जून 2015 में म्यांमार में छिपे आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई के आदेश दिए थे। यह सीमा पार आतंकवादियों को बेअसर करने के लिए भारत की आक्रामक नीति में एक बड़ा बदलाव था। ऑपरेशन सिंदूर के बाद, अब भारत ने किसी भी आतंकी हमले और उसको प्रायोजित करने वाले देश को सही जवाब देने का अधिकार सुरक्षित रखा है।
भारत ने शांति मिशनों में 3 लाख सैनिक तैनात किए
भारत को संयुक्त राष्ट्र शांति सेना के लिए सबसे बड़े योगदानकर्ताओं में से एक होने का लाभ है, जिसने 1950 के दशक से 50 से अधिक मिशनों में लगभग 3 लाख सैनिकों को तैनात किया है। अभी भी कांगो, सूडान, लेबनान आदि जैसे नौ सक्रिय मिशनों में भारत के 5000 से अधिक शांति सैनिक तैनात हैं। भारत ने बड़ी संख्या में देशों और आसियान जैसे क्षेत्रीय समूहों को प्रशिक्षित और क्षमता निर्माण भी किया है। शांति स्थापना भारत की कूटनीति के मूल में रही है जिसने शांति को बढ़ावा देने में वैश्विक सहयोग को बढ़ावा दिया है। अब भारत की कूटनीति को आतंकवाद के खिलाफ पूरी दुनिया में एक नई मुहिम चलाने की आवश्यकता है।
दंतहीन संगठन बना संयुक्त राष्ट्र
आदर्श रूप से, संयुक्त राष्ट्र को बिना किसी पूर्वाग्रह के दुनिया भर में आतंकवाद का मुकाबला करने में सबसे आगे होना चाहिए था। संयुक्त राष्ट्र को अब तक आतंकवाद की स्वीकार्य परिभाषा के साथ सामने आ जाना चाहिए था। दुर्भाग्य से, संयुक्त राष्ट्र एक दंतहीन संगठन बन गया है और संयुक्त राष्ट्र के मंच तेजी से आतंकवाद को प्रायोजित करने वाले देशों की आवाज उठाने के लिए उपयोग किए जाते हैं। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि 2025 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की तालिबान प्रतिबंध समिति की अध्यक्षता के लिए पाकिस्तान का चयन किया गया है। पाकिस्तान को अक्सर ‘आतंकवाद के वैश्विक निर्यातक’ के रूप में जाना जाता है और हाल तक यह राष्ट्रीय नीति के रूप में आतंकवाद का समर्थन करने के लिए वित्तीय कार्रवाई कार्य बल (एफएटीएफ) की ग्रे सूची में था।
नेतृत्व करने की स्थिति में है भारत
आतंकवादी एक खंडित दुनिया का फायदा उठा रहे हैं, जहां प्रमुख शक्तियां अलग-थलग काम कर रही हैं। अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन आदि की अपनी मजबूरियां हैं। अमेरिका विशेष रूप से अब वैश्विक पुलिसिंग में सक्षम नहीं है। इसलिए, एक अस्थिर दुनिया को आतंकवाद के खिलाफ समान विचारधारा वाले राष्ट्रों के वैश्विक सहयोग की आवश्यकता है। एकमात्र भारत ही अपने कद, अर्थव्यवस्था, सैन्य शक्ति और औचित्य की भावना के साथ आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक गठबंधन का नेतृत्व करने की स्थिति में है। आपसी समझ, खुफिया जानकारी साझा करना, समान प्रोटोकॉल और प्रत्यर्पण संधियां इस तरह की साझेदारी के लिए एक शुरुआत हो सकती हैं। अगर शुरुआत में 20 के करीब देश भी इस गठबंधन का हिस्सा बन जाते हैं तो यह आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त लड़ाई के लिए शुभ संकेत होगा।
क्या होना चाहिए अगला कदम
पीएम मोदी ने सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों से मुलाकात की है, जिन्होंने आतंकवाद पर भारत के रुख के लिए समर्थन देने के लिए दुनिया का दौरा किया था। सभी प्रतिनिधिमंडलों ने अपना लक्ष्य सफलतापूर्वक प्राप्त कर लिया है। अगला कदम अब समान विचारधारा वाले देशों, विशेष रूप से ग्लोबल साउथ में आतंकवाद के विरुद्ध गठबंधन बनाना होना चाहिए। इस तरह का गठबंधन न केवल पाकिस्तान को बेनकाब करता है, बल्कि उसे चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत से अलग-थलग करता है। पीएम मोदी G-7 की मीटिंग अटेन्ड करने कनाडा जा रहे हैं जहां वह आतंकवाद पर भारत का दृष्टिकोण रख सकते हैं। पीएम मोदी के गतिशील नेतृत्व में, भारत के पास आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक गठबंधन का नेतृत्व करने का नैतिक अधिकार और आवश्यक अनुभव है।
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