वीर सावरकर का नाम ध्यान आते ही एक प्रखर हिंदुत्वनिष्ठ की छवि सामने आती है। हिंदुत्वनिष्ठा यानी गो-पूजा, गो-रक्षा, वेदों की महत्ता व ‘वेदों में ही सब कुछ समाहित है’ की धारणा, चातुर्वर्ण्य का पुरस्कार, तिलक तथा भस्म लगाना, मनुस्मृति का जयगान करना आदि बातें सामने आती हैं। क्या सावरकर इसी प्रकार के कट्टर हिंदुत्वनिष्ठ थे? क्या सावरकर हिंदू धर्म के अभिमानी थे? इस प्रश्न के उत्तर को खोजने निकलें तो ध्यान में आता है कि इनमें से कोई भी बात सावरकर से मेल नहीं खाती। अपितु इसकी विरोधी बहुत सी बातों से उनका जीवन भरा-पूरा रहा है। सावरकर जी के इसी अलक्षित तथ्य को प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं तो कई बिन्दु उभरते हैं।

(लेखक व्यवसाय से मनोचिकित्सक, महाराष्ट्र सरकार से ‘दशग्रंथी सावरकर’ डाॅक्टरेट समतुल्य उपाधि प्राप्त एवं विवेक व्यासपीठ के ‘सावरकर वीरता’ पुरस्कार से सम्मानित हैं)
कई बार हम कहते हैं, ‘दिल से नहीं, दिमाग से सोचो’। क्या दिल और दिमाग अलग-अलग होते हैं? हां, सामान्यतया लोग दिल का स्थान हृदय व दिमाग का स्थान मस्तिष्क को मानते हैं। लेकिन आधुनिक मनोविज्ञान का मानना है कि मन नाम की कोई चीज ही नहीं है, बल्कि मानव का आचरण ही सब कुछ है। मनोविज्ञान इस आचरण में भावनाओं का स्थान महत्वपूर्ण मानता है। इन्हीं भावनाओं को हम मन का प्रतिनिधि मान सकते हैं। भावनाओं का स्थान दिल में नहीं, दिमाग में होता है और वह भी कुछ रसायनों के रूप में। इन्हीं भावनाओं से उत्पन्न अनेक समस्याओं का समाधान करने हेतु मनोवैज्ञानिक बुद्धि का प्रयोग करने की सलाह देते हैं।
कमोबेश हर पंथ में समाज की लगभग सभी परंपराएं और मान्यताएं भावनाओं पर आधारित होती हैं। उनमें तर्क, विवेक का ज्यादा महत्व नहीं होता। जिस प्रकार मानव के व्यक्तिगत जीवन में निर्मित भावनात्मक समस्याओं का समाधान बौद्धिक पद्धतियों द्वारा करने का प्रयास मनोचिकित्सक करते हैं, उसी प्रकार रूढ़ी, परंपराओं आदि से समस्याग्रस्त समाज का सुधार समय-समय पर अनेक महापुरुष सामाजिक प्रबोधन द्वारा करते आए हैं। लेकिन सावरकर, आंबेडकर जैसे बुद्धिनिष्ठ चिंतक और सुधारक मात्र सुधार ही नहीं करते, बल्कि उसकी नींव को ही जड़ से बदलने की कोशिश करते हैं। वे विज्ञान, तर्क, विवेक, मानवता को पंथ की जगह स्थापित कर देते हैं। यहां यह प्रश्न पूछना अनुचित नहीं होगा कि क्या हर बुद्धिमान व्यक्ति बुद्धिनिष्ठ भी होता है?
नहीं, यह आवश्यक नहीं कि हर बुद्धिमान व्यक्ति बुद्धिनिष्ठ भी हो। बहुत से वैज्ञानिक भी अंधविश्वास से भरे मिलते हैं। अनेक बार लोगों का आचरण भावनाओं के प्रभाव पर निर्भर करता है। भावनाओं में अज्ञात का डर और अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति का अस्तित्व होता है।
सावरकर सर्वदृष्टि से सर्वथा वीर थे। ज्ञात-अज्ञात का तर्कहीन डर उन के विचारों में खोजे नहीं मिलता और अतृप्त कामनाएं तो बिल्कुल ही नहीं। देशहित, जनहित, मनुष्यजाति हित के अलावा दूसरा कोई स्वार्थ उनमें नहीं था। इसलिए वे वैज्ञानिक मानस को अपना सके। वैज्ञानिक मानस का अर्थ होता है, जीवन की अधिकतर चीजों में बुद्धि एवं विवेक का प्रयोग करना। सावरकर साहित्य का हम अवगाहन करें तो उसी बुद्धिनिष्ठा का प्रयोग सावरकर बार-बार करते नजर आयेंगे।
सावरकर चिंतन-काल

सावरकर जी की बुद्धिनिष्ठा उनके जीवन के सभी कालखंडों में झलकती है। लेकिन 1924 से 1937 अर्थात् 13 साल के स्थानावास के दौरान वह विशेष रूप से उभरती है। इस छोटी सी अवधि में सावरकर जी ने रत्नागिरी जैसे रूढ़िवादी नगर से अस्पृश्यता, जातिभेद का पूर्ण रूप से निर्मूलन कर दिखाया था। लगभग सौ साल पहले गो-पूजा, यज्ञ, सनातन धर्म आदि की समीक्षा करने वाले उनके बुद्धिवादी, विज्ञाननिष्ठ विचारों से समूचा महाराष्ट्र धधक उठा था। महाराष्ट्र में अंधश्रद्धा निर्मूलन का जो विशाल कार्य खड़ा हुआ उसके पीछे सावरकर जी का भी बीजभूत योगदान था। सावरकर जी के इन विचारों से भाई परमानंद भी प्रभावित थे।
बुद्धिनिष्ठ सावरकर
वीर सावरकर प्रखर बुद्धिनिष्ठ थे। यह तथ्य स्वीकार कर पाना उनके विरोधियों एवं उनके कुछ प्रशंसकों को भी बहुत कठिन लगता है। कोई सोच भी नहीं सकता कि हिंदुत्व का पुरोधा, प्रखर हिंदुत्वनिष्ठ, हिंदू हृदय सम्राट के उपनाम से पुकारा जाने वाला वह महापुरुष उच्च कोटि का बुद्धिनिष्ठ भी है। ‘बुद्धिनिष्ठ’ शब्द का प्रयोग करने के पीछे कई वजह हैं। बुद्धिजीवी, बुद्धिवादी व बुद्धिनिष्ठ…इन तीन शब्दों को देखें। बुद्धिजीवी उसे कहते हैं जो पेट भरने हेतु बुद्धि का प्रयोग करता है, लेकिन व्यक्तिगत जीवन में वह बुद्धि से दूर रूढ़ियों, परंपराओं व अंधविश्वासों से भरा रहता है।
प्राध्यापक, अध्यापक, डाॅक्टर, विधिज्ञ आदि का अंतर्भाव इस वर्ग में कर सकते हैं। बुद्धिवादी वे होते हैं जो केवल चर्चा, विमर्श या वाद में बुद्धि का प्रयोग करते हैं, लेकिन व्यक्तिगत जीवन में धर्म, परंपरा पर चलते हैं। प्रगतिशील कहलाने वाले लोग, पत्रकार, समाजसेवी इसी वर्ग में आते हैं। बुद्धिनिष्ठ वे होते हैं, जिनकी कथनी व करनी से बुद्धिनिष्ठा यथातथ्य देखने को मिलती है। सावरकर जी इस तीसरे वर्ग में आते हैं।
बुध्दिनिष्ठा का उदय
19वीं सदी के अंत में 1883 में महाराष्ट्र के नासिक जिले के छोटे से कस्बे भगूर में चितपावन ब्राह्मण परिवार में जन्मे विनायक का धार्मिक स्वभाव का होना बहुत स्वाभाविक था। बचपन में वह मां जगदंबा का परमभक्त थे। घंटों तक मां की पूजा-अर्चना करते थे, ध्यान लगाते थे। उन्हें मां के दर्शन होते थे, मां की आवाज भी सुनाई देती थी। उन्हें लगा भी था, जैसे कई अवसरों पर मां उनकी सहायता को आई थीं। (सावरकर कृत ‘माझ्या आठवणी, पूर्वपीठिका’)
सावरकर जितने संवेदनशील, भावना प्रधान थे, उतने ही बुद्धिनिष्ठ और तर्कनिष्ठ थे। किसी भी तर्कनिष्ठ व्यक्ति का जीवनभर देव भक्त बने रहना संभव नहीं होता। सावरकर जी के जीवन में वह समय जल्दी ही आया, जब उनके पिता को कोई कर्ज चुकाना था, जिस वजह से वे बहुत परेशान थे। बालक विनायक से पिता की यह परेशानी देखी नहीं गई। उन्होंने जगदंबा से गुहार लगाई। घंटों मां के सामने प्रार्थना करने लगे। मां से विनती करने लगे। उन्हें पूरा विश्वास था कि मां उनके पिता की तकलीफ दूर करेंगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
इससे उनका देवी भक्ति का अध्याय थम-सा गया तथा बुद्धि व तर्क की ओर दृष्टि गई। पूजा की पोथी अब वह तर्क सहित पढ़ने लगे। पोथी में वर्णित विसंगतियां उन्हें दिखने लगीं। भगवान हर बार भक्त की सहायता करें, ऐसा न होकर कई बार उसे नुकसान भी पहुंचाते हैं, यह बात उनके सामने उजागर होने लगी। पिता की परेशानी से जन्मी विनायक की तर्कपरता धीरे-धीरे भक्ति से तत्वचिंतन और बुद्धिनिष्ठा की ओर बढ़ती गई, और अंततः उन्हें उच्च कोटि के बुद्धिनिष्ठों में स्थापित करती गई।
बुद्धिनिष्ठा का विस्तार
सावरकर जी में बुद्धिनिष्ठा इतनी उच्चतम स्तर की थी कि मात्र बुद्धिवादी साहित्य में ही नहीं, अपितु अन्य साहित्य में भी उसकी परछाई स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उदाहरणस्वरूप, उनकी आत्मकथा ‘मेरी स्मृतियां’ पढ़िए। इसके आरंभ में ही वे लिखते हैं- ‘सबसे पहले यह बताना जरूरी है कि ‘मेरी स्मृतियां’ लिखते समय मुझे अपने जन्म को लेकर बिल्कुल याद नहीं।’ (माझ्या आठवणी, भगूर, पृ. 12) इसी कड़ी में वे लिखते हैं, ‘यह कहा जाता है कि मेरा जन्म 28 मई, 1886 में सोमवार को नासिक तहसील के भगूर ग्राम में हुआ था।’
वास्तव में अपने जन्म के संदर्भ में यह बात सभी पर लागू होती है, लेकिन इस पर कोई सोचता या इसका उल्लेख नहीं करता। लेकिन यह उल्लेख कर सावरकर अपनी बुद्धि का परिचय कराते हैं। साथ ही, बुद्धिनिष्ठा की सीमा कभी-कभी कैसे अपने आप बनती है, यह स्पष्ट करने के लिए लिखते हैं-‘जब प्रत्यक्ष प्रमाण मिलना लगभग असंभव हो और आप्तवाक्य कभी-कभी प्रत्यक्ष प्रमाण से भी बलवान अथवा प्रत्यक्ष प्रमाण जैसे ही बलवान हों, तब वह इस प्रकार स्वीकार करना पड़ता है। अपना जन्म कब हुआ, इस आप्तवाक्य के अलावा अन्य कौन सा प्रमाण है? वही अवस्था मां-पिता के संदर्भ में है। यह मेरी माता हैं, यह मेरे पिता हैं, इस भावना का आधार आप्तवाक्य ही होता है।’ मर्यादा का यह स्वीकार भी सावरकर की बुद्धिनिष्ठा का ही परिचायक है।
अक्सर देखा जाता है कि धर्म को नकारने वाले बुद्धिवादी सत्य, न्याय, नीति, तितिक्षा, मानवता आदि तत्वों के प्रति भावनाशील रहते हैं। उनकी रक्षा हेतु शस्त्र अवश्यंभावी है, यह स्वीकार करने में वे हिचकिचाते हैं। लेकिन सावरकर जी मानवीय तत्व सत्य, अहिंसा, तितिक्षा आदि की मर्यादा पहचानते हैं। इस संदर्भ में वे लिखते हैं, ‘न्याय कितना भी सत्य क्यों न हो, लेकिन वह ताकतवर नहीं होगा तो ताकतवर अन्याय उसे पराजित कर देगा। दुर्बल पुण्य भी लंगड़ा होता है, यह हमें भूलना नहीं चाहिए’। (विज्ञाननिष्ठ निबंध, पृ. 16) उनकी मानें तो सत्य, न्याय, नीति, तितिक्षा, धर्म आदि के पीछे तलवार की ताकत नहीं होगी तो वे कितने भी सच्चे क्यों न हों, वे मिट्टी में मिल जाएंगे। याद रहे, सावरकर इन महान तत्वों को नकारते नहीं हैं, बल्कि उनकी मर्यादा सही ढंग से नापते हैं। यह उनकी बुद्धिनिष्ठा का केवल विस्तार ही नहीं, उसकी ऊंचाई भी दर्शाता है।
समाज निर्माण का आधार विज्ञान
बुद्धिनिष्ठ सावरकर समाज का निर्माण विज्ञान के आधार पर करना चाहते थे। उनका मानना था, ‘हम किसी भी ग्रंथ को अपरिवर्तनीय और त्रिकाल बाधित नहीं मानते। श्रृति-स्मृति, पुराण आदि पुरातन ग्रंथों को हम अत्यंत कृतज्ञतायुक्त आदर और आत्मीयता से सम्मान देते हैं, किन्तु ऐतिहासिक ग्रंथों के रूप में, अनुल्लंघनीय ग्रंथों के रूप में नहीं।’ (सा.वि.द. पृ़ 93)
विश्व के सभी पांथिक ग्रंथ जब रचे गए होंगे तो वे उस समय योग्य होंगे। आज मनुष्यमात्र का जो विकास हुआ है, उसमें उनका योगदान रहा है, ऐसा सावरकर जी का मानना था। बहुत से बुद्धिवादी यह सत्य स्वीकारना नहीं चाहते, यह उनमें बुद्धिवाद की कमी दिखलाता है। वास्तविकता का स्वीकार ही उच्चकोटि की बुद्धिनिष्ठा है। पांथिक ग्रंथों के प्रति कृतज्ञतायुक्त आदर दिखाना और उसके बाद उन्हें उचित स्थान पर रख देना, उच्चतम बुद्धिनिष्ठा का ही प्रतीक है। इस संदर्भ में सावरकर जी का सूत्र था-‘वंदनीय, लेकिन आचरणीय नहीं।’
एक जगह वह कहते हैं कि किसी भी धर्मग्रंथ को पढ़ने की वास्तविक पद्धति ‘अथश्री’ से नहीं, बल्कि ‘इतिश्री’ से होती है, अर्थात् आरंभ से नही अंत से होती है। उनकी इसी धारणा के कारण बाइबिल को त्यागकर विज्ञान को आधार बनाने वाला यूरोप उन्हें मोह लेता है। तत्कालीन भारत के संबंध में व्यथित होकर वह लिखते हैं, ‘वे (यूरोपीय) आज के पूजक हैं, हम कल के, भूतकाल के। वे नवीनता के, हम पुरातनता के। वे ताजी चीजों के, हम बासी चीजों के। इस प्रकार उनकी संस्कृति अद्यतन है, हमारी पुरानी है।’ (सा.वि.द. पृ़ 84)
वेदस्मृति सम महान ग्रंथों के संदर्भ में वह लिखते हैं, ‘हम जिन्हें अपौरुषेय और त्रिकालबाधित मानते आए हैं, वे धर्मग्रंथ आज उपलब्ध धर्मग्रंथों में सबसे पुराने, लगभग पांच हजार वर्ष से भी पूर्व के हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि हम पांच हजार वर्ष पीछे हैं और शेष संसार पांच हजार वर्ष आगे निकल गया है।’ (सा.वि.द. पृ़ 87)
उनकी इस बात की तुलना वेदों को सर्वोच्च मानने वाले, वेदों में विज्ञान देखने वाले 21वीं सदी के हिंदू धर्मनिष्ठों से करें तो सावरकर जी की महत्ता स्पष्ट रूप से ध्यान में आती है। सावरकर जी समाज को विज्ञान के आधार पर खड़ा करना चाहते हैं। वह विज्ञान जो परिवर्तनशील हो।
ईश्वरवाद नहीं, विज्ञानवाद
सावरकर जी का मानना है, ‘हिंदू समाज को अगर आगे बढ़ना है तो ईश्वरवाद त्यागकर विज्ञानवाद को स्वीकारना होगा।’ ईश्वरवाद की परिभाषा करते हुए सावरकर जी लिखते हैं, ‘ईश्वरवादिता का अर्थ है, हर घटना का कारण ईश्वर की इच्छा, क्रोध, कृपा में है और उस संकट को टालने का एकमात्र उपाय उस ईश्वर को प्रसन्न करना है। प्रसन्न करना अर्थात् उसकी प्रार्थना, पूजा, जप, तप, झाड़-फूंक आदि करना।’ (सा.वि.द. पृ़ 96)
ईश्वरवादिता का खोखलापन कई कथाओं, लेखों व निबंधों में बार-बार दर्शाया गया है। वह बुद्धि को झकझोर देने वाला प्रश्न पूछते हैं, ‘एक बकरे की बलि न चढ़ाए जाने पर सैकड़ों-हजारों बच्चों, स्त्री-पुरुषों को महामारी की चपेट में लेकर मारने वाला भगवान क्या भयंकर क्रूर या भयंकर रिश्वतखोर है? पूजा का प्रसाद ग्रहण न करने पर क्रोधित होने वाला ईश्वर क्या वास्तव में ईश्वर हो सकता है?’ केवल इतना ही नहीं, आगे वह पूछते हैं, ‘भगवान हमें आपत्ति से बचाता है, ऐसा मानकर अगर आप उसकी पूजा करते हैं तो उसी ने उस आपत्ति में हमें धकेला है, यह भी स्वीकारना होगा।
उसने संकट या आपत्ति से हमें बचा दिया, यह मानकर हम जैसे उसकी पूजा करते हैं, प्रसाद चढ़ाते हैं, उसी प्रकार उसे संकट में डालने वाला मानकर कोसना, दुत्कारना चाहिए। लेकिन ये दोनों ही बातें बेकार की हैं। मनुष्य को केंद्र में रखकर इस विश्व का निर्माण ईश्वर ने किया, इस भोलेपन से उपजी यह भावना पूर्णतः तथ्यहीन है।’ इसीलिए गांधी जी का यह वक्तव्य कि ‘अस्पृश्यता का पालन करने के कारण बिहार में भूकंप आया’ व शंकराचार्य जी का यह वक्तव्य कि ‘अस्पृश्यता पालन न करने के कारण क्वेटा में भूकंप आया,’ दोनों उन्हें ईश्वरवाद रूपी सिक्के के दो पहलू लगते हैं। वे दोनों वक्तव्यों की कड़ी निंदा करते हैं।
भारत की तत्कालीन परतंत्रता का कारण ईश्वरवाद या पिछड़ापन ही था तो यूरोप के विकास का कारण उसका विज्ञानवाद है, ऐसी उनकी स्पष्ट धारणा थी। उनका मानना था कि ईश्वरवाद बुद्धि के सही प्रयोग में बाधा बनता है। ईश्वर अगर सर्वशक्तिमान है तो ज्ञानेश्वर, जनाबाई, तुकाराम आदि संतों के घर बार-बार आने वाला, उनके छोटे से छोटे काम करने वाला, उनके कीर्तन में नाचने वाला भगवान म्लेच्छों का नाश क्यों नही कर सका? म्लेच्छों ने जब उसके भक्तों को पीड़ा दी, तब वह क्या कर रहा था? उनका यह प्रश्न बुद्धि को झकझोरने वाला है। उसी के चलते वे यूरोपीय देशों की ही नहीं, अपितु धर्म न मानने वाले रूस की खुली प्रशंसा करते हैं। उनको लगता है कि विज्ञानवाद के प्रचार हेतु ईश्वरवाद पर प्रहार करना अवश्यंभावी है। लेकिन यूरोप, रूस में कोई अगर उन्हें ईश्वरवादिता दिखाता तो इस पर वे बिना हिचकिचाए व्यंग्य करते हैं कि ‘यूरोप, अमेरिका में भी पागलखाने होते हैं।’
ईश्वरवाद पर प्रहार
विज्ञानवाद का प्रचार-प्रसार करने से पूर्व ईश्वरवाद को जड़ से उखाड़ना होता है, यह अच्छी तरह से जानने वाले सावरकर ने बुद्धि को झकझोरने वाले विज्ञाननिष्ठ निबंध, ईश्वरवाद पर प्रहार करने वाले प्रकाशपुंज सरीखे लेख व भावनाओं को आंदोलित करने वाली अंधविश्वास निर्मूलक कथाओं का प्रयोग किया। हिंदुओं की आस्था के विषय यथा यज्ञ, गाय, अंत्येष्टि आदि को केंद्र में रखकर तार्किक प्रहार किए। उनके इन विचारों से पूरा महाराष्ट्र आंदोलित हो उठा था।
‘यज्ञ ही धर्म है’, ऐसी धारणा वैदिक ग्रंथों में बार-बार देखने को मिलती है। इसलिए वे सबसे पहले यज्ञ पर प्रश्न उठाते हैं। ‘यज्ञात् भवति पर्जन्यः’ का प्रतिवाद करते हुए सावरकर जी पूछते हैं कि अगर ‘यज्ञ से बारिश होती है तो सालों तक इतने यज्ञ करने के पश्चात् भी भारत में ही बार-बार भयंकर अकाल क्यों आते हैं? एक बार भी यज्ञ न करने वाले, मरुत देवता को न पूजने वाले रूस व यूरोप में इतनी बारिश क्यों होती है? ये किस बात के संकेत हैं?’
सावरकर जी ने ईश्वरवाद पर प्रहार करने हेतु दूसरा प्रतीक चुना गाय को। उनको लगता है कि गो-पूजा का प्रश्न मात्र एक छोटी सी धार्मिक मान्यता का नहीं है, अपितु इस प्रकार की सैकड़ों मान्यताएं लोगों की बुद्धि की हत्या कर रही हैं। उन सभी को ध्यान में रखकर वे गाय को उदाहरण के लिए चुनते हैं। उस समय गो के विषय पर समूचे महाराष्ट्र में विमर्श चला था। आधुनिक भारत में कुछ लोग हिंदू की परिभाषा करते हैं –‘गाय को माता मानने वाला’। यह लगभग सभी संतों-महंतों को मान्य भी है।
अधिकतर हिंदू इसी पक्ष में हैं। गो-रक्षण, गो-पूजन, गो-हत्या जैसे विषयों पर आज भी हिंदू मानस आंदोलित हो उठता है। इस गोमाता पर हिंदुत्व के पुरोधा सावरकर जी ने लगभग सौ साल पहले जो कहा या लिखा, उसे सुनकर आज 21वीं सदी का हिंदू भी आश्चर्यचकित रह जाएगा। वे पूछते हैं-‘गाय किसकी माता है? बैल की, मानवमात्र की नहीं। गाय किसकी पूज्य है? शायद गधे की, मानव की नहीं। मानव अपने आप में अनूठा है, उसे किसी भी प्राणी को अपना गौरव चिह्न बनाने की आवश्यकता नहीं।’ लगभग सौ साल पहले, गोमांस भक्षण पर वे कहते हैं, ‘जिसे वह अच्छा व हितकर लगता है, वह गोमांस खा सकता है।’ उनके यह सब लिखने का उद्देश्य गो-हत्या, गो-मांस भक्षण को बढ़ावा देना नहीं था। हिंदुओं को चिढ़ाना नहीं था, बल्कि गो माता है, उसमें देवों का निवास है आदि हिंदुओं में गहरी समाई ऐसी ईश्वरवादी भावना को जड़ से निकालना मात्र था।
यहां पर यह स्पष्ट करना अनुचित नहीं होगा कि मध्ययुग में हिंदुओं पर आक्रमण करने वाले लोग गाय को सामने रखकर आक्रमण करते थे और अपने हाथ से गो हत्या का पाप न हो, इस डर से पराक्रमी हिंदू सेना बिना प्रतिकार के पीछे हट जाती थी। सावरकर जी कहते हैं, ‘गोहत्या को हटाने के क्रम में हमने देश गो हत्यारों को सौंप दिया।’ सावरकर जी के गाय के बारे में विचार पढ़ते हुए उनकी यह पीड़ा भी हमें ध्यान रहनी चाहिए।
एक लेख में वे लिखते हैं, ‘छठी देवी को पूजने वाले भारत में बाल मृत्यु का अनुपात छठी माता को भीख न देने वाले यूरोप, रूस, अमेरिका से कई गुना ज्यादा है। यह क्या दिखाता है? यही कि ये सब तथ्यहीन व झूठी बातें हैं। ये तत्काल त्यागने जैसी हैं।’ याद रहे, सावरकर जी के ये विचार हिंदुओं को विचारवान बनाने हेतु ही थे।
विज्ञानवाद का प्रतीक यंत्र
विज्ञान से निर्मित यंत्र उन्हें मोहित करता है। उसका बखान करते हुए वह लिखते हैं, ‘वेद-पुराणों के ऋ षि भी मनुष्य को जो न दे सके, ऐसे वरदान विज्ञान की आराधना करने वाले को मिले हैं। साक्षात गरुड़ के पिता को भी नसीब नहीं, ऐसे प्रचंड शक्तिशाली पंख मनुष्य के निकले हैं। उसे विमान कहते हैं।’ वे गौरवपूर्ण वर्णन करते हैं, ‘दूर-दर्शन, दूर-श्रवण, दूर-भाष, ध्वनि-लेखन आदि चीजें पुरातन काल में सिद्धि मानी जाती थीं और किसी किसी को ही बड़ी लंबी साधना से शायद मिलती थीं, आज विज्ञान के कारण वे बाजार में टके सेर के भाव मिल रही हैं।’ (विज्ञाननिष्ठ निबंध) उनका कहना है, ‘इस यंत्र की पूजा करने की आवश्यकता नहीं, प्रसाद चढ़ाने की आवश्यकता नहीं । बिजली का बटन पैर से भी दबाएं तो भी दीप जलेगा। यह सब ईश्वरवाद या धर्म के नहीं बल्कि केवल विज्ञान के कारण संभव हो रहा है।’
लेकिन इस मनुष्यनिर्मित यंत्र को ईश्वर समझकर पूजने वाला ईश्वरवाद भी उन्हें दिखाई देता है। राज मिस्त्री करणी की, सैनिक शस्त्र की, डाक्टर स्टेथोस्कोप की, गृहिणी उखली-मूसली की पूजा करती है, इन सबको वे ईश्वरवाद का ही प्रतीक मानते हैं। उन्हें लगता है, यह पूजा हमें फिर से नये ईश्वरवाद की तरफ ले जाएगी। इसलिए ‘जितने यंत्र उतने देवता’, इस शब्दसमूह से वह समाज को सचेत करते हैं।
मुस्लिम समाज का प्रबोधन
अधिकतर बुद्धिवादी हिंदुओं की प्रथा-परंपराओं की कड़ी आलोचना करते हैं, लेकिन मुस्लिम, ईसाई आदि के अंधविश्वासों, प्रथा-परंपराओं पर मौन रहते हैं। हमीद दलवाई का भी यही आरोप है। सावरकर इस तथ्य के संदर्भ में अपवाद माने जाते हैं। सावरकर जी ने हिंदुओं के साथ-साथ मुस्लिमों का भी प्रबोधन किया था कि ‘मुस्लिम अगर कुरान से बंधे रहेंगे तो पंद्रह सौ साल पिछड़े रहेंगे। विज्ञान के युग में कायम रह पाना उनके लिए मुश्किल होगा।’
उनका मानना है कि कोई भी महामारी गांव के किसी भी कोने में दिखे तो वह पूरे गांव में अपने आप फैल जाती है। उसी प्रकार अंधविश्वास अगर साथ में रहने वाले समाज में होगा तो उसका फैलाव अन्य समाजों तक भी होगा। इसलिए हिंदुओं के साथ मुसलमानों को भी विज्ञाननिष्ठ बनाना जरूरी है। उनके विज्ञाननिष्ठ बनने से हिंदुओं का फायदा तो है ही, मुसलमानों का उससे कहीं अधिक फायदा है।
यहां दो-तीन बातें याद रखनी आवश्यक हैं-
1. सावरकर जी अंधविश्वास को महामारी कहते हैं।
2. हिंदुत्व की राजनीति करते समय भी मुस्लिमों में सुधार का प्रयास करना अपना कर्तव्य मानते हैं। यह उनके मन में समाई मानवता का ही प्रतीक है।
3. मुस्लिमों में पनप रहा अंधविश्वास मात्र अंधविश्वास न रहकर मजहबी पागलपन या उन्माद की अवस्था तक फैल चुका है। यह सत्य भी सावरकर जी भूलते नहीं हैं।
आश्चर्य की बात यह है कि सावरकर जी के इन विचारों की तरफ किसी भी विद्वान का ध्यान नहीं गया! इतना ही नहीं, रत्नागिरी जिले में जन्मे उदारवादी मुस्लिम हमीद दलवाई भी सावरकर जी के इन विचारों से अनभिज्ञ रहे। इस सबका कारण रहा सावरकर जी की हिंदुत्व संकल्पना को लेकर व्याप्त अज्ञान।
वैज्ञानिक मानस की उपज है हिन्दुत्व
सावरकर जी ने अपनी बुद्धिनिष्ठा को उपयुक्ततावाद की मर्यादा दे रखी थी। उसी से उपजा था उनका हिंदुत्व। सावरकर निर्मित हिंदुत्व को गौर से देखें तो वैज्ञानिक मानस पर आधारित है। वैज्ञानिक मानस का काम होता है, ग्रंथों के प्रमाण से, अंधविश्वास से व्यक्ति को प्रत्यक्ष प्रमाण, विज्ञाननिष्ठा की ओर ले जाना। प्रत्यक्ष प्रमाण को अपनाने वाले सावरकर देख रहे थे कि इस्लामी मजहबी उन्माद की चपेट में पूरा हिंदुस्थान घिरा हुआ है।
आज नहीं तो कल इस्लाम की छल, बल, प्रलोभन से भरी सुनियोजित हिन्दू विरोधी नीति हिंदुस्थान के लोगों को अपने चंगुल में फंसा लेगी, जो समूचे राष्ट्र को मध्ययुग की तरफ ले जायेगी। उसका प्रत्यक्ष दर्शन उनकी राजनीति में हो रहा था। मुस्लिम नेता 23 प्रतिशत मुसलमानों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण मांग रहे थे। इसका अर्थ था कि 1 मुस्लिम व्यक्ति को 2 वोट और 3 गैर मुस्लिमों को 1 वोट का अधिकार देना। तत्कालीन राजनेता भी मुस्लिमों की इस अलोकतांत्रिक मांग को डर अथवा अज्ञान के चलते मान रहे थे। यह अलोकतांत्रिक, अतार्किक बात बुद्धिनिष्ठ सावरकर जी से हजम नहीं हुई।
उन्होंने मजहबी उन्माद से आहत इन्हीं 77 प्रतिशत लोगों को एकजुट करने का प्रयास किया। उसी हेतु से उन्होंने हिंदुत्व की नींव रखी। एक प्रकार से उनका हिंदुत्व पंथनिरपेक्ष एवं राजकीय हिंदुत्व था। राष्ट्र सापेक्ष समाज निर्माण का लक्ष्य लेकर किया गया सफल प्रयास था। कुछ लोगों को लगता है कि सावरकर को हिंदुत्व शब्द की जगह कोई दूसरा नाम उपयोग में लाना चाहिए था, लेकिन तर्कबुद्धि से विचार करें तो समझ में आता है कि हिंदू और हिंदुत्व नाम का उपयोग करना उनकी क्रियाशील बुद्धिनिष्ठा का ही परिचायक है। उन्हें उन लोगों को इकठ्ठा करना था जो भारत में ही उपजे किसी पंथ में विश्वास रखते हैं। उनकी भावनाओं का आवाहन करने हेतु हिंदू के अलावा अन्य कोई शब्द ही नहीं था। सावरकर जी ने वही किया। उनका यह प्रयास कितना सफल हुआ, यह तो इतिहास बता देगा।
यहां यह स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है कि हिंदुत्व निबंध लिखते समय भी उनकी बुद्धिनिष्ठा अनेक बार उभरकर सामने आती है। हिंदू एक रक्त से बंधे हुए हैं, यह सोदाहरण स्पष्ट करते समय वे त्रिकाल बाधित सत्य कह जाते हैं। वे लिखते हैं, ‘यदि ठीक से विचार करें तो सारे संसार की मनुष्य जाति एक ही है; क्योंकि मनुष्यरक्त से ही यह उत्पन्न हुई और मनुष्य का रक्त ही इसमें प्रवाहित हो रहा है। यह पूर्ण सत्य है, बाकी सब बातें अपेक्षाकृत सत्य हैं।
हम सब एक ही रक्त से बने हैं, वह रक्त जो मनुष्य रक्त है। जाति-जाति के बीच मनुष्य जो कृत्रिम दीवारें खड़ी करता है, उसे प्रकृति आरंभ से ही नष्ट करती चली आ रही है। रक्त मिश्रण को रोकने का प्रयास करना रेत की दीवार बनाने जैसा है। इसके अलावा जो शुद्ध रक्त की भावना हम मानते हैं वह तात्कालिक, अल्पकालिक उपयोग और सापेक्षतया सत्य है।… सच में, देखा जाए तो हम इतना ही कह सकेंगे व इतिहास यही बतलाता है कि मनुष्य की रग-रग में समूची मानव जाति का ही खून दौड़ता है।…मनुष्य की एकता ही निरपेक्ष सत्य है, शेष सब सापेक्षतः, अंशतः सच है।’ (हिंदुत्व, पृ. 84) इसे अलग ढंग से प्रस्तुत करते हुए सावरकर जी कहते हैं, ‘जब तक संसार में मुसलमानत्व, ईसाइत्व रहेगा तब तक ही मेरा हिंदुत्व रहेगा। जैसे ही उनका अलगत्व मनुष्यत्व में बदलेगा तत्काल मेरा हिंदुत्व भी मनुष्यत्व में विसर्जित होगा।’ साथ ही, वे हिंदुत्व ही मनुष्यत्व के सबसे निकट है, यह बुद्धिवादी तथ्य अधोरेखित करना नहीं भूलते।
विज्ञाननिष्ठा से परिपूर्ण जीवन
वीर सावरकर का समग्र जीवन विज्ञाननिष्ठा से आपूर्ण रहा था। उन्हें धर्म की आवश्यकता नहीं लगती थी। इसलिए दस हजार पृष्ठों का साहित्य लिखने वाले हिंदुत्वनिष्ठ सावरकर जी ने वेद, गीता, उपनिषद पर भाष्य नहीं लिखे। (याद रहे, तिलक, गांधी, अरविंद, इतना ही नहीं, प्रगतिशील आंबेडकर ने भी धर्म पर लिखा है) वे वेद, उपनिषद, पुराण, बाइबिल, कुरान, जेंदावेस्ता आदि पांथिक ग्रंथों को एक ही दृष्टि से देखते थे। उनका मानना था सभी को अपने-अपने पांथिक ग्रंथ बंद कर पुस्तकालय में रख देने चाहिए, उनकी आज कोई प्रासंगिकता नहीं है। बाइबिल को बंद करके जिस प्रकार यूरोप ने अपनी प्रगति की है उसी प्रकार कुरान को भूलकर मुसलमान व वेदों को बंद कर हिंदुओं को अपनी प्रगति करनी चाहिए। अगर आज के दौर में सावरकर ईसाइयों का भारत में चल रहा अंधविश्वास का जाल देखते तो उस पर भी तीखी टिप्पणी करने से न चूकते।
विज्ञाननिष्ठा उनके जीवन में भी उतरी थी। पत्नी के मृत्यु पश्चात उन्होंने कोई धार्मिक क्रियाकर्म; श्राद्ध, सूतक, पूजा-पाठ आदि नहीं किया था। उनकी स्वयं की मृत्यु के पश्चात क्या करना है, यह बताते समय भी उनकी बुद्धिनिष्ठा दिखाई देती है। आश्चर्य की बात यह है कि स्वयं को ‘दुर्घटनावश हिंदू’ करार देने वाले बुद्धिजीवी, नास्तिक व प्रगतिशील कहे जाने वाले पं. नेहरू मरणोपरांत अपनी अस्थियां गंगा में प्रवाहित करने की आस जताते चले गये। लेकिन जातिवादी, पुरातनवादि कहे जाने वाले सावरकर इच्छा व्यक्त करते हैं कि ‘मृत्यु के पश्चात उनका शव मानवीय कंधों पर नहीं, बल्कि यांत्रिक वाहन पर ढोया जाए। उसे विद्युतदाहिनी में ही जलाया जाए।’ वे शेष रक्षा व अस्थियों के संबंध में कोई चिंता नहीं जताते, लेकिन यह निर्देशित करना नहीं भूलते कि उनकी मृत्यु के पश्चात कोई धार्मिक विधि जैसे, पिंडदान, काकस्पर्श, श्राद्ध, सूतक आदि ना हो। ना कोई स्मारक हो।’
ऐसे सच्चे प्रगतिशील व वैज्ञानिक मानस के थे सावरकर। इसलिए, सावरकर जी की जीवनी लिखने वाले लेखक धनंजय कीर उन्हें ‘विज्ञानेश्वर’ कहते हैं तो महान विचारक डॉ. पु.ग. सहस्रबुद्धे उन्हें ‘इहवाद का आचार्य’ कहते हैं। साप्ताहिक सोबत के संपादक व वैचारिक लेखक, पत्रकार ग.वा.बेहेरे सावरकर जी को ‘पाखंडी व नास्तिक’ करार देते हैं। धर्म व धार्मिकता को इस या उस छोर से पकड़कर चलने वाले इस देश में सावरकर जी जैसे बुद्धिवादी का अवतरित होना अपने आप में अनूठा था, अद्भुत था।
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