‘जो पात्र हैं उन्हें ही मिलता है अमृत’
आचार्य मिथिलेश नंदनी शरण जी महाराज ने कहा,”महाकुंभ को लेकर सबकी अपनी-अपनी दृष्टि है। सभी लोग अपने-अपने तरीके से इस संबंध में कहते हैं। विष भी मंथन से निकलता है, अमृत भी मंथन से निकलता है, 14 रत्न भी मंथन से निकलते हैं। जब हम ये बातें कहते हैं तो हमें लगता है कि सिर्फ समुद्र को ही मथा जाता है और कुछ नहीं मथा जाता। जब हम मंथन करते हैं, तो अनेक प्रकार से मंथन होता है— अरणी मंथन होता है, जिससे अग्नि निकलती है, यज्ञ पुरुष की पूजा होती है,दधि मंथन होता है, नवनीत प्रकट होता है, घृत प्रकट होता है। जब समुद्र मंथन की बात करें तो जिसके पास दृष्टि नहीं अमृत की, वह समुद्र मथ भी ले तो अमृत नहीं मिलता। समुद्र मथा गया था और अमृत निकल आया, ऐसा नहीं है।
जिन्होंने समुद्र मथा, उन्हें यह पता था कि इससे अमृत प्राप्त होगा। इसलिए बीच में जो भी प्राप्त हुआ, उसके बहुत मूल्यवान होने पर भी मंथन को रोका नहीं गया। मंथन निरंतर जारी रहा। जब उच्चै:श्रवा अश्व निकला था तब रुक सकते थे,जब ऐरावत निकला था तब रुक जाते, जब महालक्ष्मी प्रकट हुईं तब रुक सकते थे, जब कौस्तुभ मणि प्रकट हुई तब रुक जाते, जब हलाहल विष निकला तब भी रुका जा सकता था, लेकिन कथा यह कहती है कि जो मंथन करने वाले लोग थे, वे जानते थे कि हमें इस मंथन को अमरता तक ले जाना है, इसलिए अमरत्व के अधिकारी केवल वही हैं जो मंथन से पहले ही अमरता की अपनी अभिलाषा और उसकी अपनी प्रतिज्ञा को पहचान लेते हैं। ये वे लोग हैं जो अपने शैशव काल से ही विद्याभ्यास करते हुए पढ़ लेते हैं ‘वयम् अमृतस्य पुत्रा:’ अर्थात् ‘हम अमृत के पुत्र हैं।’ इसलिए ऐसे लोग अमृत मंथन करने निकलते हैं, तो कई बार उन्हें और लोगों के सहयोग की जरूरत होती है। वे उनको साथ ले जाते हैं जो अमृत पाने के पात्र नहीं हैं।

कार्यक्रम में सम्मानित बाएं से आचार्य मिथिलेश नंदनी शरण महाराज, साध्वी जया भारती एवं गेशे लामा चोस्पेल जोतपा
हम सभी जानते हैं कि अमृत को अकेले देवताओं ने नहीं मथा था, इसमें असुर भी शामिल थे। असुरों को अमृत की लालसा नहीं थी। वे देवताओं के निमंत्रण पर आए थे। समुद्र मंथन करने में देवताओं और असुरों ने समान श्रम किया था लेकिन असुरों को अमृत नहीं मिला क्योंकि वे इसके पात्र नहीं थे। जो महाकुंभ हुआ, उसमें सिर्फ देवता ही देवता दिखाई दें, ऐसा नहीं है। इसमें भी कुछ न कुछ असुर कहीं न कहीं दिखाई पड़े हैं क्योंकि इतिहास यही है कि जब भी समुद्र मथा जाएगा, वहां असुर भी होंगे। वे अमृत कलश छीनकर भागना चाहते हैं। इसी से कुंभ प्रकट हुआ है। इस बार भी ऐसे ही प्रयास दिखाई पड़े, लेकिन दैव्यबल अधिक था तो वे छीनकर नहीं ले जा सके। हम अपनी पिछली पीढ़ियों में अनेक कारणों से भारत को देखने में असफल रहे थे। महाकुंभ ने एक बार फिर हमें जगाया है कि देखो, यह भारत का विशाल स्वरूप है, और हम इस भारत का हिस्सा बनकर अपनी महिमा, अपनी दिव्यता को पहचान सकते हैं। भारतीयों की आंखें तो खुल ही गई हैं और इस चमक से दुनिया के लोगों की आंखें भी खुली हैं।
‘महाकुंभ जैसे आयोजन संस्कृति के वाहक’
साध्वी जया भारती ने कहा, ‘‘इस महाकुंभ ने बहुत सारे नरेटिव को तोड़ा है। उदाहरण के तौर पर सनातन प्रासंगिक नहीं है, सनातन संकीर्ण है, सनातन सीमित है, सनातन को मानने वाले बहुत लोग नहीं हैं। सनातन विरोधियों द्वारा खड़े किए गए इस झूठे विमर्श को इस महाकुंभ ने उखाड़ फेंका है। इस बार जिस भव्यता से महाकुंभ का आयोजन हुआ है, उसने दिखा दिया कि सनातन से कितने युवा जुड़े हुए हैं। आप यह देखना नहीं चाह रहे थे, यह अलग बात है। जो भी चीज सनातन की भव्यता और दिव्यता में विद्यमान हैं, और जिन्हें आज तक नकारा जा रहा था, आज कुंभ ने उनको ऐसे सिद्ध कर दिया है कि आप कितना भी जोर लगा लें, उन्हें नकार नहीं सकते। और यह सिर्फ भारत में युवा हिंदू सनातनियों के लिए नहीं है।
महाकुंभ में विश्वभर से युवा आए। अलग—अलग मतों और आस्थाओं से जुड़े युवा हैं, वे भी महाकुंभ में आए। यहां पर लोग स्वयं की खोज में आते हैं। सनातन भी यही प्रेरणा देता है. अनेक अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने यहां पर शोध किया। अधिकतर जो शोधकर्ता थे, वे युवा थे। अगर हम भारत को संजीवनी सभ्यता कहते हैं, तो ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ पुराने लोगों के लिए रही है। यह संजीवनी सभ्यता इसलिए चलती आ रही है क्योंकि इस तरह के आयोजन संस्कृति के वाहक हैं। ऐसे आयोजनों के माध्यम से हम अपनी संस्कृति और पंरपरा को आने वाली पीढ़ियों को पहुंचाते रहे हैं।”
‘शब्दों में नहीं व्यक्त हो सकती दिव्यता’
गेशे लामा चोस्पेल जोतपा ने कहा, ”हमें पहली बार इस महाकुंभ में बौद्ध समाज की तरफ से शिविर लगाने का अवसर मिला। इसके लिए मैं हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का धन्यवाद करता हूं। इस महाकुंभ ने भारत की एकता, अखंडता और परंपराओं को विकसित करने में बहुत मदद की है। यह सिर्फ देश के लिए ही नहीं बल्कि सनातन परंपरा का सम्मान करने वाले सभी लोगों के लिए खुशी की बात है।
मैं इसके लिए देश और दुनिया के सभी लोगों को बहुत-बहुत बधाई देता हूं। इस महाकुंभ में 12 देशों के बौद्ध गुरु भी शामिल हुए। हमने बहुत से संतों के साथ उनके शिविर में जाकर चर्चा की। बहुत से संत हमारे शिविर में भी आए। हमें इस महाकुंभ में बहुत-से संतों का सानिध्य मिला। यह हमारे लिए बहुत प्रसन्नता की बात है। महाकुंभ में विश्व हिंदू परिषद के साथ हमारी विचार गोष्ठियां हुईं। सनानत परंपरा में करुणा, मैत्रेय भाव,अहिंसा की जो बात है, वही बौद्ध परंपरा में भी है। कैसे पूरे विश्व के लोगों को एक करना है, यह भाव दोनों का ही है। इस बार महाकुंभ ने जो दिव्यता प्रकट की है, वह अनुभव करने योग्य है और उसे किसी भी भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता।”
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