सत्ता की प्रयोगशाला में धूर्तता की पराकाष्ठा और खुले भ्रष्टाचार के नासमझ प्रयोग देखने हों तो आजकल भारतीय राजनीति के खुलासों को परत-दर-परत पलटना होगा। यहां विदेशी षड्यंत्र और राजनीतिक दुर्गंध के ऐसे पहाड़ मिलेंगे, जिन्हें अब तक नजरअंदाज किया जा रहा था।
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ताजा खुलासे बताते हैं कि भारत में लोकतंत्र को कमजोर करने के लिए लामबंदी, देश की राजनीति में विदेशी ताकतों की सेंधमारी, आंदोलनों की आड़ में अराजकता और सत्ता प्राप्ति के लिए किसी भी स्तर तक गिर जाने की प्रवृत्ति अब कुछ दलों के लिए सामान्य बात हो गई है।
प्यादों के प्रशासक का लबादा ओढ़ लेने के बाद क्या-क्या खेल हुए, इनका खुलासा डराने वाला है। घपलेबाजी को उपलब्धि बताते हुए भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता और प्रशासनिक कुप्रबंधन को जिस तरह से एक सामान्य बात के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास हो रहा है, वह न केवल लोकतंत्र के लिए खतरनाक है, बल्कि जनता के विश्वास के साथ किया गया अब तक का सबसे बड़ा धोखा भी है।
आम आदमी पार्टी, जिसने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के नाम पर खुद को ईमानदारी का ब्रांड बताया था, सत्ता में आने के बाद उसी भ्रष्टाचार की पाठशाला में पी.एचडी. कर रही है। पंजाब में AAP सरकार की प्रशासनिक खामियां इस पार्टी की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े करती हैं। कल्पना कीजिए, एक मंत्री पूरे दो साल तक एक ऐसे विभाग का मंत्री बना रहा, जो अस्तित्व में ही नहीं था!
पंजाब में कुलदीप धालीवाल को प्रशासनिक सुधार विभाग का प्रभार सौंप दिया गया, लेकिन जब असलियत सामने आई तो पता चला कि ऐसा कोई विभाग ही नहीं था। यह न केवल अक्षम प्रशासन का नमूना है, बल्कि यह भी उजागर करता है कि सत्ता की मलाई खाने के लिए कुर्सियों को किस तरह बांटा जाता है। जनता की गाढ़ी कमाई से जुटाई गई राशि को उड़ाने का इससे बड़ी हरकत और क्या हो सकती है कि वेतन और सुविधाएं एक ऐसे विभाग के नाम पर दी जा रही थीं, जो सरकारी कागजों में कहीं मौजूद ही नहीं था।
AAP की प्रशासनिक व्यवस्था इतनी ही सजग होती तो इसे ‘आप’ कैसे कहते! पंजाब में 57 क्लर्क , डेटा एंट्री आपरेटर और सेवादारों के फर्जी स्थानांतरण आदेश सोशल मीडिया पर वायरल होते हैं और अफसर इसे बिना किसी जांच-पड़ताल के लागू भी कर देते हैं। अब यह देखना बाकी है कि आगे चलकर नियुक्तियां और बजट आवंटन भी सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर ही न होने लगें। सवाल यह उठता है कि क्या सरकारी दफ्तरों में कोई प्रक्रिया या जवाबदेही बची भी है, या फिर सरकार अब फेसबुक-ट्विटर से ही चलेगी?
दिल्ली में जब AAP सरकार ने मोहल्ला क्लीनिक योजना पेश की, तो इसे स्वास्थ्य सुधार के नाम पर क्रांतिकारी पहल बताया गया। लेकिन हुआ क्या? ‘कैग’ रिपोर्ट के अनुसार, 65,000 करोड़ रुपये के फर्जी मेडिकल परीक्षण किए गए। सरकार की प्राथमिकता स्वास्थ्य सेवाओं का सुधार नहीं, बल्कि सरकारी खजाने को एक और बड़े घोटाले में डुबाना था। इसके अलावा, 300 करोड़ रुपये की नकली दवाइयों की खरीद का भी आरोप लगा, जिससे साफ हो गया कि सरकार के लिए जनता की जान की कीमत एक राजनीतिक घोटाले से ज्यादा कुछ नहीं है।
अब बात करें दिल्ली आबकारी नीति घोटाले की, जिसमें सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचाने के लिए शराब कारोबारियों को सीधा फायदा पहुंचाया गया। इस नीति में जिस तरह से धांधली हुई, उसने यह साबित कर दिया कि नीति-निर्माण का उद्देश्य जनता का भला करना नहीं, बल्कि अपने करीबी व्यापारिक साझेदारों को फायदा पहुंचाना था। यह इतना बड़ा घोटाला था कि कई गिरफ्तारियां हुईं, जिसकी जांच अभी भी जारी है। इस सबके बावजूद, सरकार की तरफ से वही घिसी-पिटी दलीलें दी गईं—‘हम ईमानदार हैं, विपक्ष साजिश कर रहा है।’
लेकिन सवाल यह है कि जब भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन की यह शृंखला इतनी स्पष्ट है, तो इसे चलाने की हिम्मत इन पार्टियों को कहां से मिलती है? जवाब विदेशी ताकतों के उस नेटवर्क में छिपा है, जो भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करने की पूरी तैयारी में है। भारत में चुनावों में कथित अमेरिकी हस्तक्षेप को लेकर केंद्र सरकार ने जांच के आदेश दिए हैं, जिसे विदेश मंत्रालय ने ‘बहुत परेशान करने वाला’ करार दिया है।
यह कदम तब उठाया गया, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत में मतदान प्रतिशत बढ़ाने के नाम पर दी जाने वाली अमेरिकी सहायता को ‘किकबैक’ करार दिया। अब सवाल यह है कि अमेरिकी विदेश सहायता एजेंसी यूएसएड ने 2001 से 2024 के बीच भारत को 2.9 अरब डॉलर (25,112 करोड़ रुपये) की जो सहायता दी, उसका कितना हिस्सा असल में विकास कार्यों में लगा और कितना भारत के राजनीतिक हस्तक्षेप में बहा दिया गया?
यह पहली बार नहीं है जब भारत में विदेशी फंडिंग पर सवाल उठे हैं। जॉर्ज सोरोस जैसे वैश्विक हस्तक्षेपकर्ताओं की गतिविधियां भी लंबे समय से भारत में देखी गई हैं। सोरोस की ओपन सोसाइटी फाउंडेशन ने कई भारतीय एनजीओ को वित्तीय सहायता दी है, जिनमें से कई संगठनों के कांग्रेस और AAP से करीबी संबंध होने के आरोप हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले, सोरोस समर्थित संस्थाओं पर भाजपा विरोधी प्रचार अभियान को बढ़ावा देने के लिए लाखों डॉलर खर्च करने का आरोप लगा था। जब विदेशी फंडिंग भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल होने लगे, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह फंडिंग केवल समाज सुधार के नाम पर नहीं, बल्कि राजनीतिक रुख तय करने के लिए दी जा रही है।
AAP का भी इस संदिग्ध विदेशी फंडिंग से जुड़ाव कोई नया नहीं है। 2013 में गृह मंत्रालय ने AAP द्वारा विदेशी चंदा प्राप्त करने के मामले की जांच शुरू की थी, जिसमें पार्टी पर अवैध तरीके से विदेशी स्रोतों से धन एकत्रित करने का आरोप था। यह वही पार्टी है, जो पारदर्शिता का झंडा उठाकर सत्ता में आई थी, लेकिन खुद ही अब तक के सबसे बड़े राजनीतिक भ्रष्टाचारों में शामिल हो चुकी है।
अब सवाल उठता है कि यह राजनीति है या कोई एजेंडा? क्या भारत में कुछ राजनीतिक दल विदेशी ताकतों के हाथों की कठपुतली बन चुके हैं? क्या आम आदमी पार्टी, कांग्रेस और इनके जैसे अन्य दल किसी बड़ी वैश्विक योजना का हिस्सा बनकर भारत में राजनीतिक अस्थिरता लाने का काम कर रहे हैं?
कुल मिलाकर, भारतीय लोकतंत्र में विदेशी ताकतों की सेंधमारी, आंदोलन की आड़ में उपद्रव की राजनीति, भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता की अनदेखी मिलकर एक ऐसा ‘कॉकटेल’ तैयार कर चुके हैं, जिसे समय रहते नहीं रोका गया, तो इसका असर न सिर्फ भारतीय राजनीति, बल्कि हमारी लोकतांत्रिक संप्रभुता पर भी गंभीर रूप से पड़ेगा। अब यह सिर्फ एक राजनीतिक मुद्दा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न बन चुका है।
जो लोग ‘झाड़ू’ लेकर आए थे, वे आज खुद गंदगी फैलाने वालों की अगली पंक्ति में खड़े हैं। राजनीति में सुधार की बातें करने वाले ही राजनीति को लूट और स्वार्थ का सबसे बड़ा अड्डा बना चुके हैं। अब वक्त आ गया है कि भारत की जनता समझे कि यह सिर्फ चुनावी घोटाले नहीं, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों पर हमला है। यदि इस खेल को समय रहते नहीं रोका गया, तो आने वाले समय में ‘आंदोलन’ की आड़ में देश को ही गिरवी रख देने की साजिश रची जा सकती है।
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