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‘विचार के माध्यम से आचार पुष्ट करना आवश्यक’

नर्मदा साहित्य मंथन के चतुर्थ सोपान ‘अहिल्या पर्व’ का आयोजन हुआ। विश्व संवाद केंद्र, मालवा और देवी अहिल्या विश्वविद्यालय की पत्रकारिता और जनसंचार आयोजित

by WEB DESK
Feb 26, 2025, 08:34 pm IST
in संघ, मध्य प्रदेश
नर्मदा साहित्य मंथन के उद्घाटन सत्र में श्री सुरेश सोनी को प्रतीक चिह्न भेंट करते कार्यकर्ता

नर्मदा साहित्य मंथन के उद्घाटन सत्र में श्री सुरेश सोनी को प्रतीक चिह्न भेंट करते कार्यकर्ता

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गत दिनों इंदौर में नर्मदा साहित्य मंथन के चतुर्थ सोपान ‘अहिल्या पर्व’ का आयोजन हुआ। विश्व संवाद केंद्र, मालवा और देवी अहिल्या विश्वविद्यालय की पत्रकारिता और जनसंचार अध्ययनशाला के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस मंथन में देशभर के साहित्यकार, चिंतक और विचारकों ने भाग लिया। इसके विभिन्न सत्रों में 25 से अधिक पुस्तकों का विमोचन हुआ।

इस तीन दिवसीय साहित्योत्सव के प्रथम दिन इतिहासकार दिलीप सिंह जाधव एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांत संघचालक डॉ. प्रकाश शास्त्री ने सर्वप्रथम मां अहिल्या के जीवन पर आधारित प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। इस अवसर पर महेश्वर से मां नर्मदा के पवित्र जल को पूज कर कलश में विश्वविद्यालय प्रांगण में लाया गया। उद्घाटन सत्र के प्रारंभ में नर्मदा साहित्य मंथन के संयोजक श्रीरंग पेंढारकर ने साहित्योत्सव की भूमिका रखी।

देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के कुलगुरु राकेश सिंघई ने नर्मदा के सांस्कृतिक एवं भौगोलिक महत्व को प्रतिपादित किया। इस सत्र के मुख्य वक्ता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल के सदस्य श्री सुरेश सोनी ने ‘विचारों के खंडन-मंडन की भारतीय परंपरा’ पर कहा कि हमें अनुभूति के माध्यम से विचार एवं विचार के माध्यम से आचार को पुष्ट करना होगा। शास्त्रार्थ करते हुए सभी विचारों पर चर्चा होनी चाहिए, जिसमें से राष्ट्रीय विचारों की पुष्टता होनी चाहिए। श्याम मनावत ने ‘विश्व कल्याण में राम राज्य की भूमिका’ पर कहा कि राम राज्य के लिए प्रजा को भी राजा की तरह त्यागी एवं मर्यादित होना होगा।

भारती ठाकुर ने ‘लोकमाता अहिल्याबाई होलकर का पुण्य प्रवाह’ विषय के माध्यम से लोकमाता अहिल्या देवी का जीवन परिचय सभी के सामने रखा। क्षमा कौल ने ‘हिंदू विस्थापन की पीड़ा’ विषय पर कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार के मार्मिक घटनाक्रम को सभी के सामने प्रस्तुत किया। पांचवें सत्र में गिरधरदान रतनू ने ‘हिंदू संस्कृति के संरक्षण में मातृशक्ति का योगदान’ विषय पर विचार रखे। समूह व परिचर्चा सत्र में विकास दवे ने ‘मंचीय कविता का वर्तमान परिदृश्य-चिंताएं एवं समाधान’ विषय पर गौरव साक्षी, अमन अक्षर और देवकृष्ण व्यास के साथ परिसंवाद किया। प्रथम दिवस का समापन पुण्यश्लोका नृत्य नाटिका के साथ हुआ।ठ

दूसरे दिन के पहले सत्र में विचारक डॉ. पवन विजय ने ‘कल्चरल मार्क्सवाद का परिवारों पर प्रभाव’ विषय पर कहा कि भारतीय समाज की चार प्रमुख इकाइयां हैं, जिन्हें हम विचार, धर्म, परिवार और समाज कहते हैं। इन चारों पर मार्क्सवादी लगातार हमले कर रहे हैं। इन हमलों का उद्देश्य केवल हमें कमजोर करना है। मार्क्सवादी हमारी संस्कृति के विरोध करने वाले तत्वों को सामाजिक व्यवस्था में एक एजेंडे के साथ स्थापित करने में लगे हुए हैं। मार्क्सवाद वास्तव में स्थापित व्यवस्था के खिलाफ बात करता है, जिसमें परिवारों को तोड़ना भी शामिल है। मार्क्सवाद वास्तव में एक मजहब है, एक रिलीजन है, जिसकी अपनी विचारधारा है। हमें केवल हमारा धर्म, संस्कृति, मर्यादा, त्याग, परंपरा ही मार्क्सवादी हमलों से बचा सकती है। समापन सत्र के प्रथम सत्र में ‘पत्रकारिता के भारतीय तत्व’ पर परिचर्चा में वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ अग्निहोत्री और जयदीप कर्णिक के साथ सोनाली नरगुंडे भी शामिल हुईं।

दूसरे सत्र में लेखक अशोक जमनानी ने नर्मदा परिक्रमा के आध्यात्मिक एवं सामाजिक महात्म्य के साथ नर्मदा के पर्यावरणीय महत्व, लोकजीवन और लोक में नर्मदा के महत्व पर चर्चा की। इतिहास सत्र में श्रीकृष्ण श्रीवास्तव ने भारतीय इतिहास लेखन की त्रुटियों और उसके दूरगामी परिणामों की व्याख्या करते हुए भारतीय इतिहास के प्रामाणिक स्रोतों की चर्चा की। ‘भारतीय ज्ञान परंपरा और विविध दृष्टिकोण’ विषय पर एम. एस. चैत्रा ने मैकॉले के शिक्षा पद्घति के षड्यंत्रों को स्पष्ट किया। वहीं वरिष्ठ साहित्यकार श्रीराम परिहार ने ज्ञान और कर्म के समन्वय की भारतीय परंपरा में संवाद और मंथन की पद्धति को प्रतिपादित किया।

तीसरे दिन समापन सत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मध्य क्षेत्र सह कार्यवाह हेमंत मुक्तिबोध ने कहा कि विचार विविधता की स्वीकृति और विचारों की विभिन्नता का आदर संवाद परंपरा का ही विस्तार है नर्मदा साहित्य मंथन। यह आयोजन हर प्रकार के विचारों को सुनने और वैचारिक पाचन-शक्ति को बढ़ाने के लिए है। उन्होंने कहा कि बहुजन हिताय के लिए लोकमंगल और लोकरंजन के लिए लोकसंपृक्त साहित्य की रचना समय की आवश्यकता है।

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