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पुण्यतिथि विशेष: “स्वराष्ट्र के लिए जो जिए और मरे वही है स्वातंत्र्य वीर सावरकर”

विदेशी वस्त्रों की पहली होली पुणे में 7 अक्टूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी। विदेशी वस्त्र दहन की इस प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद गांधीजी उनके मार्ग पर चले और 11 जुलाई 1921 में मुंबई के परेल में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया।

by डॉ. आनंद सिंह राणा
Feb 26, 2025, 09:49 am IST
in भारत, विश्लेषण
Veer Sawarkar Punyatithi

प्रतीकात्मक तस्वीर

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स्व के आलोक में तप, त्याग और तितिक्षा जैसे गौरवशाली भारतीय मूल्यों को मिट्टी में गूंथकर यदि एक हिंदुत्व की मूर्ति गढ़ी जाए, तो उस मूर्ति का नाम होगा ‘वीर विनायक दामोदर सावरकर परंतु वीर सावरकर का नाम आते ही रंगे सियारों और लाल श्वानों में दहशत का वातावरण निर्मित हो जाता है और हृदय की धड़कन तेज हो जाती हैं। कतिपय लोगों की तो हृदय गति ही रुकने लगती है। प्रकारांतर से वीर सावरकर के स्वतंत्रता संग्राम योगदान और उनकी पवित्र आहुतियों पर बिना विचार विमर्श किए, तथाकथित रंगे सियार और लाल श्वानों की जमात नकारात्मक विचार बनाते हुए आलोचना कर देते हैं, परंतु दुर्भाग्य का विषय यह भी है कि मर्सी पिटिशन का क्या आशय है? और मर्सी पिटिशन क्यों लगाई गई? किसने लगवाई? इसे बिना जाने और समझे यह आरोप मढ़ दिया जाता है कि वीर सावरकर ने माफी मांग ली थी। सच तो यह है कि एक कूटनीतिक चाल के चलते विनायक दामोदर सावरकर को मर्सी पिटीशन के लिए तैयारी करवाई थी, क्योंकि गांधी जी असहयोग आंदोलन की सफलता चाहते थे। एक सच ये भी है कि वीर सावरकर की दया याचिका पर चर्चा करने का कांग्रेस नेताओं का प्राथमिक उद्देश्य बीते समय में अपनी ही पार्टी के नेताओं मसलन पंडित नेहरू द्वारा दी गई दया याचिका को छिपाना है।

ऐसे में एक यक्ष प्रश्न यही उठता है कि केवल सावरकर के माफीनामे का ही क्यों उल्लेख कर उनके प्रति तिरस्कृत व्यवहार किया जाता है? दया याचिका या ‘रॉयल ​​क्लेमेंसी’ अंग्रेजों द्वारा हिरासत में लिए गए आरोपी द्वारा अपनाई जाने वाली एक प्रक्रिया के अलावा और कुछ नहीं थी यह एक विशिष्ट प्रारूप था, जिसे प्रत्येक हिरासत में लिए गए व्यक्ति को अपनी रिहाई के लिए आवेदन करते वक्त जरूरत पड़ती थी। स्वघोषित इतिहासकार भी इस ऐतिहासिक किंतु शाब्दिक तथ्य से अच्छे से परिचित हैं, फिर भी अपमान केवल वीर सावरकर का ही किया जाता है। यदि स्पष्टतः कहा जाए तो वीर सावरकर ने कभी भी अंग्रेजों से माफ़ी नहीं मांगी थी। जिस महापुरुष ने दस साल सेलुलर जेल की अमानवीय यातनाएं सही हों, उसके विषय में ‘माफीनामा’ या ‘दया याचिका’ बात करना आश्चर्यजनक लगता है। वास्तविकता यह है कि आज तक हमें जिस माफीनामे के बारे में बताया जाता रहा है, वह केवल एक सामान्य सी याचिका थी, जिसे दाखिल करना राजनीतिक कैदियों के लिए एक सामान्य कानूनी विधान था।

पारिख घोष जो कि महान क्रांतिकारी अरविंद घोष के भाई थे, शचीन्द्रनाथ सान्याल, जिन्होंने एच.आर.ए .का गठन किया था, इन सबने भी ऐसी ही याचिकाएं दायर की थीं और इनकी याचिकाए स्वीकार भी हुई थी। जॉर्ज पंचम की भारत यात्रा और प्रथम विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया में राजनीतिक बंदियों को अपने बचाव के लिए ऐसी सुविधाएं दी गयी थीं। सावरकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘जब-जब सरकार ने सहूलियत दी, तब-तब मैंने याचिका दायर की’। उन्होंने अपने छोटे भाई नारायण राव को जो पत्र लिखे, उनमें भी अपनी पिटिशन के बारे में लिखा है, कभी कुछ छुपाया नहीं। और अगर आप फिर भी सावरकर को दोषी मानते हैं तो आपको स्वयं अपनी अंतरात्मा से पूछना चाहिए कि एक राजनीतिक बंदी के रूप में, अगर आप निरपराध जेल में बंद हों और सरकार आपको अपना बचाव करने का कोई एक मौका दे दे तो आप क्या करेंगे? क्या आप बंधन से मुक्त होना नहीं चाहेंगे? वीर सावरकर ने भी अपनी याचिका इसीलिए दायर की थी कि कहीं वो भारत माता की स्वतंत्रता के दिव्य यज्ञ में आहुति डालने का कोई मौका चूक न जाएं। कहीं ऐसा न हो कि उनका जीवन जेल की सलाखों के पीछे ही फंसकर समाप्त हो जाए और भारतीय स्वतंत्रता का उनका महालक्ष्य अधूरा रह जाए। महात्मा गांधी ने भी 1920-21 में अपने पत्र ‘यंग इंडिया’ में वीर सावरकर के पक्ष में लेख लिखे थे। गांधी जी का भी विचार था कि सावरकर को चाहिए कि वे अपनी मुक्ति के लिए सरकार को याचिका भेजें, इसमें कुछ भी बुरा नहीं है, क्योंकि स्वतंत्रता व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है। बाद में वीर सावरकर को 1921 में 10 साल की सजा काटने के बाद सेलुलर जेल से रिहा कर दिया गया था।

वीर सावरकर वही क्रांतिवीर हैं, जिन्हें बरतानिया सरकार ने क्रांति के अपराध में काला-पानी का दंड देकर 50 वर्षों के लिए अंडमान की सेलुलर जेल भेज दिया था। 10 साल बाद जब वीर सावरकर काला-पानी की हृदय विदारक यातनाओं को झेलने के बाद जेल से बाहर आए, तब से हमारे देश के कुछ बुद्धिजीवी उनके कृतित्व को भूलकर उन पर अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगने का आरोप लगाते रहे। इन सब षड्यंत्रों के बावजूद वीर सावरकर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर किसी प्रकार का प्रश्न चिन्ह नहीं लगता है क्योंकि यह सर्वश्रुत है कि सूरज के ओर मुंह करके थूंकने से, थूंक स्वयं के मुख पर आ गिरता है। यही स्थिति रंगे सियारों और लाल श्वानों की है। आधुनिक भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महामानव और हिंदुत्व के पुरोधा वीर विनायक दामोदर सावरकर के बलिदान दिवस पर आज उनके जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं से रंगा एक संकलित चित्रफलक प्रस्तुत है।

वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे, जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोक सभा का विरोध किया और कहा कि वह हमारे शत्रु देश की रानी हैं हम शोक क्यों करें? क्या किसी भारतीय महापुरुष के निधन पर ब्रिटेन में शोक सभा हुई है? वीर सावरकर पहले देशभक्त थे, जिन्होंने एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह का उत्सव मनाने वालों को त्र्यम्बेकश्वर में बड़े-बड़े पोस्टर लगाकर कहा था कि गुलामी का उत्सव मत मनाओ। विदेशी वस्त्रों की पहली होली पुणे में 7 अक्टूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी। वीर सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने विदेशी वस्त्रों का दहन किया तब बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में उनको शिवाजी के समान बताकर उनकी प्रशंसा की थी। सावरकर द्वारा विदेशी वस्त्र दहन की इस प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद गांधीजी उनके मार्ग पर चले और 11 जुलाई 1921 में मुंबई के परेल में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया। वीर सावरकर पहले भारतीय थे, जिनको 1905 में विदेशी वस्त्र दहन के कारण पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज से निकाल दिया गया और ₹10 का जुर्माना किया।

इसके विरोध में हड़ताल हुई स्वयं तिलक जी ने केसरी पत्र में सावरकर के पक्ष में संपादकीय लिखा। वीर सावरकर ऐसे बैरिस्टर थे, जिन्होंने 1909 में ब्रिटेन में परीक्षा पास करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफादार होने की शपथ नहीं ली इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नहीं दिया गया। वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा गदर कहे जाने वाले संघर्ष को सन् 1857 का स्वातंत्र्य समर नामक ग्रंथ लिखकर सिद्ध कर दिया। वीर सावरकर ऐसे क्रांतिकारी लेखक थे जिनके लिखे सन् 1857 का स्वातंत्र्य समर पुस्तक पर ब्रिटिश संसद में प्रकाशित होने से पहले प्रतिबंध लगाया था। सन् 1857 का स्वातंत्र्य समर विदेशों में छापा मारा दिया और भारत में भगत सिंह ने इसे छपवाया था। जिसकी एक-एक प्रति ₹300 में बिकी थी। यह पुस्तक भारतीय क्रांतिकारियों के लिए पवित्र गीता थी। पुलिस छापों में देशभक्तों के घरों में यही पुस्तक मिलती थी। वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी थे जो समुद्री जहाज में बंदी बनाकर ब्रिटेन से भारत लाते समय 8 जुलाई 1910 को समुद्र में कूद पड़े थे और फ्रांस पहुंच गए थे। वीर सावरकर विश्व के पहले क्रांतिकारी और भारत के राष्ट्रभक्त थे, जिनका मुकदमा अंतरराष्ट्रीय न्यायालय हेग में चला, परंतु ब्रिटेन और फ्रांस की मिलीभगत के कारण उनको न्याय नहीं मिला और बंदी बनाकर भारत लाया गया।

वीर सावरकर विश्व के पहले क्रांतिकारी और भारत के पहले राष्ट्रभक्त थे, जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई थी। सावरकर पहले ऐसे देश भक्त थे, जो दो जन्म की कारावास की सजा सुनते ही हंसकर बोले चलो ईसाई सत्ता ने हिंदू धर्म के पुनर्जन्म के सिद्धांत को मान लिया। वीर सावरकर पहले राजनीतिक बंदी थे, जिन्होंने काला पानी की सजा के समय 10 साल से भी अधिक समय तक स्वतंत्रता के लिए कोल्हू चलाकर 30 पौंड तेल प्रतिदिन निकाला। वीर सावरकर काला पानी में पहले ऐसे कैदी थे, जिन्होंने काल कोठरी की दीवारों पर कंकर कोयले से कविताएं लिखीं और 6000 पंक्तियां याद रखीं। वीर सावरकर पहले देशभक्त लेखक थे, जिनकी लिखी हुई पुस्तकों पर आजादी के बाद कई वर्षों तक प्रतिबंध लगा रहा। वीर सावरकर पहले विद्वान लेखक थे जिन्होंने हिंदू को परिभाषित करते हुए लिखा कि ‘आसिंधु सिंधुपर्यंता यस्य भारत भूमिका: पितृभू: पुण्यभूमिश्चेव स वै हिंदुरितीस्मृत:’ अर्थात समुद्र से हिमालय तक भारत भूमि जिसकी पितृभू है, जिसके पूर्वज यही पैदा हुए हैं व यही पुण्य भू है, जिसके तीर्थ भारत में ही हैं वही हिंदू है। वीर सावरकर प्रथम राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सत्ता ने कई वर्षों तक जेल में रखा तथा आजादी के बाद 1948 में नेहरू सरकार ने गांधीजी के वध की आड़ में लाल किले में बंद रखा।

परंतु न्यायालय द्वारा आरोप झूठे पाए जाने की बाद ससम्मान रिहा कर दिया। देशी- विदेशी दोनों सरकारों को उनके राष्ट्रवादी विचारों से डर लगता था। वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी थे जब 26 फरवरी सन् 1966 को उनका स्वर्गारोहण हुआ तब भारतीय संसद में कुछ सांसदों ने शोक प्रस्ताव रखा तो यह कहकर रोक दिया गया कि वे संसद सदस्य नहीं थे। जबकि चर्चिल की मौत पर शोक मनाया गया था। वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त स्वातंत्र्यवीर थे, जिनके मरणोपरांत 26 फरवरी 2003 को उसी संसद में मूर्ति लगी, जिसमें कभी उनके निधन पर शोक प्रस्ताव भी रोका गया था। वीर सावरकर ऐसे पहले राष्ट्रवादी विचारक थे, जिनके चित्र को संसद में लगाने से रोकने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष महोदया सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा, लेकिन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने सुझाव पत्र नकार दिया और वीर सावरकर के चित्र का अनावरण राष्ट्रपति के कर कमलों से किया गया। वीर सावरकर ऐसे राष्ट्रभक्त हुए जिनके शिलालेख को अंडमान की सेल्युलर जेल के कीर्ति स्तंभ से यूपीए सरकार के मंत्री मणिशंकर अय्यर ने हटवा दिया था और उसकी जगह गांधीजी का शिलालेख लगवा दिया था। वीर सावरकर ने 10 साल आजादी के लिए काला पानी में कोल्हू चलाया था।

महान् स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी देशभक्त उच्च कोटि के साहित्य के रचनाकार, हिंदी – हिंदू- हिंदुस्तान के मित्र दाता, हिंदुत्व के सूत्रधार वीर विनायक दामोदर सावरकर पहले ऐसे भव्य- दिव्य पुरुष, भारत माता के सच्चे सपूत थे जिनसे अंग्रेजी सत्ता भयभीत थी, स्वाधीनता के बाद नेहरू की कांग्रेस सरकार भयभीत थी। परंतु श्रीमती इंदिरा गाँधी वीर सावरकर की प्रशंसक थीं। वीर सावरकर मां भारती के पहले सपूत थे जिन्हें जीते जी और मरने के बाद भी आगे बढ़ने से रोका गया। परंतु आश्चर्य की बात यह है कि इन सभी विरोधियों के घोर अंधेरे को चीरकर आज वीर सावरकर के राष्ट्रवादी विचारों का सूर्योदय हो रहा है।

Topics: वीर सावरकरमहात्मा गांधीMahatma Gandhiवीर सावरकर की पुण्यतिथिवीर सावरकर माफीनामा विवादस्वतंत्रता आंदोलन में वीर सावरकर का योगदानVeer Savarkar's death anniversaryVeer Savarkar apology controversyVeer Savarkar's contribution in the freedom movementveer savarkar
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