जब भारत में फिल्में बननी शुरू हुई थीं, तब ‘बंबई’ की फिल्मों से लेकर दक्षिण की फिल्मों तक एक विशेष तरह की एकरूपता थी। ज्यादातर फिल्में भारतीय पौराणिक आख्यानों पर बना करती थीं, या उन ऐतिहासिक पात्रों पर बनती थीं, जिनकी सीधी लड़ाई कभी अंग्रेजों से नहीं हुई थी। लेकिन ऐसी फिल्में जुल्म और विदेशी लुटेरों या शासकों के प्रति बगावत का संदेश जरूर देती थीं। जैसे महाराणा प्रताप पर ही दो फिल्में बनीं, लेकिन आजादी के बाद माहौल एकदम से बदल गया। अब ऐसे पात्रों से भी किनारा किया जाने लगा जिन्होंने मुगलों या किसी अन्य विदेशी मुस्लिम शासक या आक्रांता के खिलाफ युद्ध लड़ा हो।
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फिल्म समीक्षक हैं)
महाराणा प्रताप पर मुख्य हिंदी सिनेमा में बस एक फिल्म 1947 के बाद बनी, वह थी 1961 में आई पी. जयराज और निरूपा रॉय की ‘जय चित्तौड़’। शिवाजी पर मुख्य धारा के तहत कोई फिल्म बनी ही नहीं, लेकिन केन्द्र में भाजपा नीति सरकार आने के बाद तान्हाजी, उनके बाद मराठा साम्राज्य के सबसे बड़े वीर योद्धा बाजीराव पर बाजीराव मस्तानी जैसी फिल्में आईं, लेकिन विकी कौशल की छावा हाल के वर्षों में शुरू हुई एक नई परम्परा की वाहक है।
छत्रपति शिवाजी शेर तो शेर का बेटा मराठी में कहलाता है ‘छावा’ यानी संभाजी राजे भोंसले, जिसके बारे में किसी स्कूली किताब तक में पढ़ाने से परहेज किया जाता रहा है। यूं तो कभी सावरकर ने कहा था कि पराजयों की कहानियों को नहीं बताना चाहिए, लेकिन पिछले कुछ साल में एक परम्परा शुरू हो गई है। इसके लिए वीरतापूर्ण युद्ध के बाद मिली पराजयों की कहानियों को बड़े परदे पर दिखाया जाने लगा है और अब लगातार पांचवीं फिल्म आने के बाद मामला आधा-आधा है, यानी दो फिल्में नहीं चलीं और दो फिल्में पसंद की गईं। निर्देशक आशुतोष गोवारिकर ने सबसे पहले यह कोशिश की थी ‘पानीपत’ को बनाकर, तीसरे पानीपत युद्ध की कहानी, जिसमें भारत पर एकछत्र राज कर रही मराठा ताकत लगभग नष्ट हो गई थी।
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आशुतोष ने गलती यह की कि फिल्म का सारा बोझ अर्जुन कपूर पर डाल दिया। फिल्म ने एक अच्छा काम यह किया कि सदाशिव राव जैसे इतिहास में उपेक्षित वीर की वीरता और शौर्य को लाखों लोगों तक पहुंचाया, लेकिन लोगों को अर्जुन कपूर इस रोल में कतई नहीं जंचे। मगर संजय लीला भंसाली ने पद्मावत बनाकर लोगों की वाहवाही बटोर ली, वे न केवल अलाउद्दीन खिलजी की क्रूरता के बारे में जनता को बता पाए, बल्कि मां पद्मावती के दृढ़ चरित्र को भी ठीक से रख पाए, राणा रत्न सिंह जैसे बहादुर को भी लोग भूल नहीं पाएंगे। हालांकि चंद्रप्रकाश द्विवेदी पृथ्वीराज के मामले में चूक गए। लोग पृथ्वीराज चौहान की जिस विहंगम रूप में कल्पना करते आए हैं, वे उसे वैसा नहीं दिखा पाए। रणदीप हुड्डा तो इतिहास के पन्नों से पराजय की कहानियों पर बयान देने वाले सावरकर की जिंदगी पर ही फिल्म ले आए स्वातंत्र्य वीर सावरकर, तमाम लोगों और खासतौर पर वामपंथी फिल्म समीक्षकों ने फिल्म को लेकर ऐसा विरोधी अभियान चलाया कि 20 करोड़ रु. की लागत वाली फिल्म, जिसमें कम से कम 200 करोड़ रु. निकालने की क्षमता थी, बॉक्स आफिस पर 31.23 करोड़ रु. ही कमा सकी।
सब फिल्मों को पछाड़ा
फिल्म ट्रेड वेबसाइट www.sacnilk.comके मुताबिक छावा फिल्म की छह दिनों की भारत में कमाई 197.75 करोड़ रुपए हुई है, जबकि पहले सप्ताहांत यानी शुरू के तीन दिनों में देश से बाहर के सिनेमाघरों में यह करीब 72.25 करोड़ रुपए कमा चुकी है यानी कुल कमाई 269.75 करोड़ हुई है। यह इस साल की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म तो बन ही चुकी है, भारतीय बॉक्स आफिस पर तो इसने मार्वल की कैप्टन अमेरिका सीरीज की नई फिल्म को बुरी तरह धो दिया है, जो यहां तीन दिनों में केवल 12.5 करोड़ रु. कमा पाई है, हालांकि इससे पहले ये फिल्में सभी हिंदी फिल्मों को धूल चटा देती थीं। वेलेंटाइन डे पर भी ये सबसे ज्यादा कमाई का रिकॉर्ड करने वाली हिंदी फिल्म बन चुकी है।
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चार दिनों के अंदर ये विकी कौशल के करियर की दूसरी सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म राजी (123.74 करोड़) को पीछे छोड़ चुकी है, अब उरी निशाने पर है, जो विकी की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म है, जिसने 244.14 करोड़ रुपए कमाई की थी और ये रिकॉर्ड बस टूटने ही वाला है। जबकि रश्मिका की ये तीसरी सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म बन चुकी है, इससे ज्यादा कमाई ‘एनीमल’ और ‘पुष्पा 2’ ने ही की है। सबसे ज्यादा खुश होंगे अक्षय ख्नन्ना, उनकी ये सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म है, जो उनकी दूसरे नंबर की कमाई वाली मूवी मॉम के 37.28 करोड़ के मुकाबले अब तक चार गुना से भी ज्यादा कमाई कर चुकी है।
ऐसे में ‘छावा’ भी उसी तरह की फिल्म है जिसका अंत धोखे और पराजय के बाद असीम दर्द पर खत्म होता है। यह औरंगजेब जैसे कट्टरपंथी मुगल शासक के सामने शिवाजी के बेटे की पराजय की कहानी है, लेकिन चार दिनों में फिल्म को बॉक्स आफिस पर लोगों का जो प्यार मिला है, उससे लगता है कि इसे शायद सबसे ज्यादा प्यार मिलने वाला है। जिसके मन में छत्रपति शिवाजी या संभाजी राजे को लेकर तनिक भी श्रद्धा है, उनको तो शर्तिया ये फिल्म पसंद आने वाली है। हालांकि इस को लेकर उसी तरह के फिल्म समीक्षक अभियान शुरू करने की सोच रहे थे, लेकिन शुरुआत में ही संभाजी राजे के रोल में विकी कौशल के सद्भावना पूर्ण डायलॉग सुनकर ठंडे पड़ गए, विकी इस डायलॉग में कहते हैं कि ‘स्वराज किसी धर्म के खिलाफ नहीं है।’ और वे यही सुनना चाहते थे, अब भले ही पूरी फिल्म में जय भवानी के नारे लगते रहें, उन्हें कोई दिक्कत नहीं।
वैसे भी इस दुनिया से विदाई तो चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह की भी कोई विजय के साथ तो हुई नहीं थी, लेकिन उनके मुकाबले सम्भाजी को लोग एक फीसदी भी नहीं जानते थे, महाराष्ट्र के बाहर तो कभी पढ़ाया ही नहीं गया। तीन सदी बाद जब सोशल मीडिया आया तब उन्हें पता चला। जबकि संभाजी की वीरता तो कई युद्धों में औरंगजेब की सेना को हराने और 9 साल तक उसे छकाने वाली रही थी और उन्हें मौत से पहले जो दर्द मिला था, उसे जानना भी कम दर्दनाक नहींं। इस फिल्म में जो सबसे बेहतरीन काम निर्माता ने किया वह है विकी कौशल और अक्षय खन्ना जैसे दमदार अभिनेताओं को प्रमुख रोल देना और उनके सहयोगियों के रोल आशुतोष राणा, विनीत सिंह, दिव्या दत्ता, रश्मिका मंदाना, अनिल जॉर्ज जैसे मंजे हुए कलाकारों को देना। विकी कौशल छत्रपति शिवाजी के बेटे संभाजी के रोल में और अक्षय खन्ना औरंगजेब के रोल में हैं। कहानी शिवाजी की मृत्यु के बाद से शुरू होती है, औरंगजेब यह सोचकर जश्न मनाता है कि दक्कन में अब मुगलों के सामने कोई चुनौती नहीं बची है, लेकिन संभाजी राजे वहां मुगलों के गढ़ बुरहानपुर को अचानक लूटकर उसे गलत साबित कर देते हैं।
फिल्म ने जीता दिल
तब औरंगजेब फिर से 8 लाख की बड़ी सेना के साथ दक्कन का रुख करता है। सोचिए, आज भारत की सेना में कुल 12 लाख 35 हजार सैनिक हैं। लेकिन संभाजी लगातार छापामार तकनीक से औरंगजेब की टुकड़ियों को ठिकाने लगाते रहते हैं। फिल्म बताती है कि 9 साल के अंदर सम्भाजी आधी सेना को साफ कर देते हैं। एक लाख मुगल सैनिकों को मारने वाले शिवाजी के वीर बेटे के बारे में आज तक किसी स्कूली किताब में न पढ़ाया जाना हैरानी पैदा करता है। जबकि न जाने किस किस की मूर्तियां यहां हर चौक चौराहे पर लगी हैं।
शिवाजी की मृत्यु के बाद पहले संभाजी की सौतेली मां सोयरा बाई (दिव्या दत्ता) की साजिशें उनके लिए दिक्कतें पैदा करती हैं। बाद में उनकी पत्नी येशुबाई (रश्मिका मंदाना) के दोनों भाई, जो संभाजी से नाराज थे, भी औरंगजेब से जाकर हाथ मिला लेते हैं, बिना किसी को बताए। इधर औरंगजेब अपने विद्रोही बेटे अकबर को संभाजी द्वारा शरण देने से भी नाराज था, येशुबाई के दोनों भाई औरंगजेब को यह बताते हैं कि संभाजी केवल 150 सैनिकों के साथ संगमेश्वर में मौजूद हैं। औरंगजेब की सेना की एक टुकड़ी धावा बोलकर संभाजी और उनके मित्र कवि कलश (विनीत सिंह) को गिरफ्त में लेकर औरंगजेब के सामने पेश करती है। आगे की कहानी काफी भावुक है और दर्दनाक भी।
दमदारी से निभाया किरदार
इस फिल्म ने अगर शुरुआती दौर में लोगों का दिल जीता है, तो इसके पीछे दो सकारात्मक बातें भी हैं, एक तो विकी, अक्षय खन्ना और रश्मिका मंदाना का अपने-अपने किरदारों में इस कदर जज्ब होना कि दर्शक भी कहानी में डूब जाए। आशुतोष राणा, प्रदीप रावत, डायना पेंटी, विनीत सिंह, दिव्या दत्ता आदि के किरदार भले ही छोटे हैं लेकिन दमदार हैं। दूसरा मजबूत पक्ष है आम आदमी की इस कहानी में रुचि होना। सम्भाजी की वीरता, उनको मिले दर्द और उनके संघर्ष के बारे में ज्यादातर लोगों को पता नहीं था। अपनी एक खास दहाड़ के साथ विकी कौशल ने संभाजी के चरित्र को दमदार तरीके से यादगार बना दिया है। शिवाजी की सारी कहानियां लोगों को याद हैं, लेकिन उनके बेटे संभाजी के साथ यह सब हुआ था और वे इतने वीर थे यह जानना बहुतों को हैरत में डालेगा। मध्यांतर के बाद का हिस्सा काफी भावुक है। लोग अश्रुपूरित हुए बिना इस फिल्म को देख ही नहीं सकते। सबसे खास बात है कि जिस आत्मसम्मान के साथ बिना चीखे चिल्लाए, केवल मां जगदम्बा के नाम के सहारे संभाजी को उन यातनाओं को झेलता हुआ दिखाया गया है, उससे सबके मन में उनके लिए सम्मान और भी बढ़ जाएगा, इसके लिए निर्देशक लक्ष्मण उतेकर बधाई के पात्र हैं।
अभिनेता विकी कौशल ने एक साक्षात्कार में कहा था कि निर्देशक लक्ष्मण उतेकर ने उन्हें शेर जैसा लगने को कहा था और इसमें विकी बिल्कुल सफल रहे हैं, खासतौर पर उनकी दहाड़ आप नहीं भूल पाएंगे। अंत का एक दृश्य आरआरआर में रामचरण पर फिल्माए गए थाने के बाहर भीड़ के साथ के शुरुआती दृश्य की याद दिलाता है। 1000 सैनिक एक संभाजी को रोक पाने में नाकाम हो रहे थे। बेड़ियों में जकड़े जाने के बाद भी उनके करीब जाने में लोगों के पसीने छूट रहे थे। जब बूढ़ा औरंगजेब मन की जलन को छुपाता हुआ यह कहता है कि काश! उसके पास भी कोई ऐसा योद्धा होता तो संभाजी राजे के लिए इज्जत और भी बढ़ जाती है। यह तब भी लगता है जब एक डायलॉग औरंगजेब की बेटी के रोल में डायना पेंटी बोलती हैं, ‘वह अपनी मौत का जश्न मनाकर चला गया और छोड़ गया हमें अपनी जिंदगी का मातम मनाने को।’
फिल्म के जरिए लोगों को यह तो पता चलेगा कि संभाजी भी पिता शिवाजी की तरह वीर, साहसी, तकनीक के माहिर योद्धा और हिन्दवी स्वराज के सच्चे सिपाही थे। कैसे उन्होंने औरंगजेब की सेनाओं को छापामार तकनीक से मात दी, यह दिखाया। लेकिन फिल्म में न रामसेज किले की मुगलों द्वारा पांच महीने की सफल घेराबंदी दिखाई और न रायगढ़ किले की घेराबंदी में मुगलों ने कैसे मात खाई, यह दिखाया। इन दोनों घटनाओं से आज की पीढ़ी यह जान पाती कि औरंगजेब को कैसे संभाजी ने आमने सामने के युद्ध में भी मात दी थी। हालांकि फिल्म में सपने में उनका शिवाजी से बातें करना, जीजाबाई का जिक्र और अपनी मां को याद करने जैसे दृश्यों ने उनके व्यक्तित्व को भावुक भी बनाए रखा।
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उपन्यास पर आधारित है फिल्म
फिल्म में कई जगह युद्ध के कौशल बहुत दमदार लगे हैं। फिल्म में ए आर रहमान का संगीत है। ‘जाने तू’ और ‘आया रे तूफान’ गाने अच्छे लगते हैं, लेकिन बाजीराव मस्तानी जैसी फिल्म के मुकाबले न ए आर रहमान का संगीत इतना दमदार है दौर ना इरशाद कामिल के बोल। सेट्स ठीक ठाक हैं। स्पेशल इफेक्ट्स का और इस्तेमाल फिल्म को और बेहतर बना सकता था। शेर से लड़ने वाला दृश्य और घोड़े की लम्बी छलांग जैसे कुछ और बेहतर दृश्यों को रखने की जरूरत थी। कुछ संवाद बेहतरीन थे, लेकिन ज्यादा संख्या में नहीं थे। कुल मिलाकर इस फिल्म का भावनात्मक पक्ष और विकी, अक्षय व रश्मिका की तिकड़ी इस फिल्म की नैया को पार भी लगा सकती है। हां, दुनिया शेर को जानती है, लेकिन उसके छावा को पहली बार इस फिल्म के जरिए ही जानेगी जो शिवाजी सावंत द्वारा लिखे इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है।
हालांकि कुछ समस्याएं और भी हैं, औरंगजेब ने संभाजी के सामने तीन शर्तें रखी थीं, आखिरी इस्लाम कबूल करने वाली थी जिसे संभाजी ने मानने से साफ इनकार कर दिया। तभी औरंगजेब ने उनको इतनी यातनाएं देकर मार दिया था। फिल्म में यातनाएं पहले हैं और इस्लाम कुबूल करने की शर्त वह बाद में रखता है। जाहिर है वह औरंगजेब के हिंदू विरोधी पक्ष को कमजोर ही रखना चाहते थे। इसी तरह वे संभाजी के हिंदू हितैषी पक्ष को भी कई संवाद से कमजोर करते दिखे। ट्रेलर तक में से एक संवाद में से हिंदवी शब्द काट लिया तो एक महिला वकील ने उन्हें नोटिस भेज दिया है। लगता है कि बीच युद्ध में संभाजी को एक मुस्लिम बच्चे को बचाकर मां को सौंपने के सीन को रखकर निर्देशक ने दर्शक बढ़ाने की कोशिश की है।
बावजूद इसके आज संभाजी के अदम्य शौर्य, कभी ना भूलने वाले बलिदान और दर्दनाक लेकिन शौर्यपूर्ण मृत्यु के बारे में देश के बच्चे-बच्चे को पता चल रहा है और वह मन में उनके प्रति श्रद्धा पैदा कर रहा है तो इसके लिए उन सब कमियों को नजरअंदाज करते हुए निर्देशक और निर्माता के साथ साथ पूरी टीम को धन्यवाद देना तो बनता ही है।
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