“उठो! जागो! और तब तक मत रुको जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न कर लो!” स्वामी विवेकानंद का कहा गया यह सूत्र वाक्य आज भी युवा मन को सर्वाधिक उद्वेलित करता है। जितनी बार भी पढ़ें, यह छोटा सा प्रेरक हर बार युवाओं के मन में एक नया जोश और ऊर्जा भर देता है। स्वामी विवेकानंद भारत की संत परंपरा के उन चुनिंदा महापुरुषों में से एक हैं, जो समाज के लिए श्रद्धा के पात्र होने के साथ-साथ भारतीय युवाओं के लिए एक “रोल मॉडल” भी हैं। धर्म और परंपरा के बारे में गहरी अंतरदृष्टि रखने वाले स्वामी जी जिस तरह अपने समय, परिवेश और पृष्ठभूमि से बहुत दूर, बहुत आगे जाकर युवाओं को एक नवीन जीवन दृष्टि देते हैं; वह कौतूहल का विषय तो है ही; उनकी बेमिसाल मेधा और दूरदृष्टि को भी परिलक्षित करता है। स्वामी विवेकानंद भारतमाता के ऐसे दिव्य सपूत जो परंपरा और आधुनिकता के बीच अनूठा तालमेल स्थापित करते हैं। यह इस युवा संन्यासी के कालजयी विचारों की सामर्थ्य ही है कि देश उनकी जयंती को “युवा दिवस” के रूप में मनाता है।
आज से डेढ़ सौ साल पहले कोलकाता में 12 जनवरी 1863 को नरेंद्र नाथ दत्त के रूप में जन्म लेने वाली देश की इस आध्यात्मिक विभूति की जीवनदृष्टि और धार्मिक व्याख्याएं चौंकाने की हद तक आधुनिक और स्पष्ट हैं। यही वजह है कि इक्कीसवीं सदी के इस अति भौतिकतावादी, अर्थ-प्रधान तथा पेशेवर माहौल में भी उनको पढ़ना जरा भी असहज नहीं लगता। अपने व्याख्यानों, धार्मिक चर्चाओं और लेखों के माध्यम से वे जिस तरह राष्ट्र की युवा शक्ति को नेतृत्व क्षमता, नवाचार (इनोवेशन), प्रबंधन, सफलता और वैज्ञानिक सोच का पाठ पढ़ाते हैं, वह अपने आप में अद्भुत है। स्वामी विवेकानन्द कभी नहीं चाहते थे कि भारतीय युवा किसी धर्म, परंपरा या संस्कृति का अंधानुकरण करें। उनका कहना था कि हर भारतीय युवा को स्वयं अपनी शक्ति को समझाना व परखना होगा।
दूसरों की नकल करने से व्यक्ति की सृजनशीलता व विशिष्टता दब जाती है। कोई व्यक्ति कितना महान क्यों न हो, मगर उस पर आंख मूंदकर भरोसा न करें। इस तथ्य को उदाहरण के माध्यम से समझाते हुए वे कहते हैं, ‘’यदि भगवान की ऐसी ही मंशा होती तो वह हर प्राणी को स्वतंत्र आंख, कान, नाक व दिमाग क्यों देते ? इसलिए हर युवा को अपना रास्ता खुद चुनना व बनाना चाहिए। इसके उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा। इस तथ्य को समझाते हुए स्वामी जी कहते हैं कि जब भी कोई व्यक्ति आम परंपरा से हटकर अलग सोचता व करता है तो उसके बारे में तीन बातें निश्चित होती हैं- पहले उपहास, फिर विरोध और अंत में स्वीकृति। इसलिए सोच-विचार के बाद जो हमें सही लगता है, उसे अवश्य करना चाहिए बजाय दूसरे का अँधा अनुकरण करने के। वे कहते हैं कि जिस बात को हम सत्य समझते हैं, उसे अभी कर डालें। भविष्य में क्या होगा, इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है।
शिक्षा के संबंध में विवेकानन्द का कहना है कि शिक्षा का उद्देश्य तथ्यों व सूचनाओं के संकलन मात्र नहीं अपितु उसे तकनीकी कौशल के साथ-साथ विद्यार्थियों को वैचारिक व चारित्रिक रूप से मजबूत बनाने वाला होना चाहिए।
शिक्षा के संबंध में उनका कहना था कि शिक्षा का उद्देश्य तथ्यों व सूचनाओं के संकलन मात्र नहीं अपितु उसे तकनीकी कौशल के साथ-साथ विद्यार्थियों को वैचारिक व चारित्रिक रूप से मजबूत बनाने वाला होना चाहिए। सूचना प्रौद्योगिकी से लेकर राजनीति और कारोबार से लेकर विज्ञान के क्षेत्र में सक्रिय युवाओं के लिए भी उनके सूत्र अत्यन्त कारगर हैं। कितनी सटीक बात कहते हैं वे –‘’ मन में जब अंधविश्वास घर कर जाता है तो बुद्धि विदा हो जाती है। इसलिए किसी भी बात पर बिना अच्छी तरह चिंतन-मनन किये, उसे बिना अपने तर्क की कसौटी पर कसे अमल में नहीं लाना चाहिए।‘’ उनका यह विचार उन अंधभक्तों को आइना दिखाता है जो मात्र वाह्य प्रलोभनों के वशीभूत होकर किसी भी छद्मचोलाधारी के छलावे में फंस जाते हैं। स्वामी जी कहते हैं- ‘’अच्छे बनो और अच्छा करो, एकमात्र यही सच्चा मानव धर्म है। हर भारतीय युवा को स्वयं अपनी शक्ति को समझाना व परखना होगा। दूसरों की नकल करने से व्यक्ति की सृजनशीलता व विशिष्टता दब जाती है। कोई व्यक्ति कितना महान क्यों न हो, मगर उस पर आंख मूंदकर भरोसा न करें। हर युवा को अपना रास्ता खुद चुनना व बनाना चाहिए।
धार्मिक पृष्ठभूमि के होते हुए भी स्वामी जी की सोच अत्यन्त प्रगतिशील और भविष्योन्मुख है। उनका चिंतन सही मायने में युवा राष्ट्र का पोषक है। उनका कहना था कि धर्म-संस्कार और तरक्की के बीच वैसा विरोधाभास नहीं है, जैसा कि बहुत से भ्रामक धारणा रखने वाले लोग मानते हैं। स्वामी विवेकानंद के विचार युवाओं को इसलिए आकर्षित करते हैं क्योंकि वे धर्म का पुरातनपंथी चेहरा सामने नहीं रखते बल्कि धर्म को एक प्रगतिशील व उद्वेलन पैदा करने वाली शक्ति के रूप में सामने रखते हैं। “अनुभव सबसे बड़ा शिक्षक है” तथा “विश्व का इतिहास उन चंद लोगों का इतिहास है, जिन्हें अपने आप में विश्वास था” ऐसे ही सरल से सूत्रों में वे जिस तरह प्रबंधन से जुड़े अहम सिद्धांत बातों ही बातों में सिखा जाते हैं, वह वाकई अनूठा है। वे एक वैज्ञानिक की तरह तर्क-वितर्क, शोध, मनन और विश्लेषण के बाद तथ्यों को स्वीकार करने वाले मनीषी थे। उन्होंने कर्मकांडों के स्थान पर धर्म को संस्कारों से जोड़ा और आध्यात्मिक अवधारणाओं की सरल किंतु तर्कपूर्ण व्याख्या की ताकि वैज्ञानिक दृष्टि वाले व्यक्ति को उनकी बात सरलता से समझ में आ जाए।
उनकी विदेश यात्राओं की सफलता के पीछे उनकी यही वैचारिक शक्ति निहित थी। शिकागो में उनकी तर्कशक्ति ने विश्व को अचंभे में डाल दिया था। यह उनके विचारों की ही ताकत थी कि अमेरिका की धरती पर इस “साइक्लोनिक हिन्दू ” की धूम मच गयी थी। एक आध्यात्मिक व्यक्ति होकर भी वे समाज से कटे हुए नहीं थे; अपने दायित्वों से विमुख नहीं थे। देश की विसंगतियां, पिछड़ापन और चारों तरफ फैला दुःख-दर्द उन्हें व्यथित करता था लेकिन यह व्यथा हताशा नहीं थी। जून 1894 में मैसूर के महाराजा को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा था, “भारत में बुराइयों की जड़ गरीबों की हालत में निहित है। हमारेदेश के निम्न वर्गों को ऊपर उठाने के लिए सबसे जरूरी है उन्हें शिक्षित करना और उनकी खोई हुई निजता को बहाल करना। धार्मिक-राजनैतिक ताकतों और विदेशी राजसत्ता ने सदियों से उनका इतना दमन किया है कि भारत के गरीब भूल गए हैं कि वे भी इंसान हैं।‘’
अपने समय की वास्तविकताओं की समझ रखे बिना कोई नेतृत्व सार्थकता प्राप्त नहीं कर सकता। आज हमारे देश की पहचान एक युवा राष्ट्र की है और इस युवाशक्ति के बल पर देश का कायाकल्प तभी संभव है जब इन युवाओं के सामने एक स्पष्ट उद्देश्य तथा दिशा मौजूद हो और उन्हें अपने दायित्वों का पूरा अहसास हो। स्वामी जी युवकों के आदर्श इसलिए बने क्योंकि उन्होंने युवाओं को यही उद्देश्यपरकता प्रदान की। व्यक्ति, राष्ट्र, विश्व और धर्म के संदर्भ में उनकी प्राथमिकताएं इतनी स्पष्ट थीं कि लगता है वे कोई समाजशास्त्री हों। स्वामी जी का कहना था देशभक्ति सिर्फ एक भावना या मातृभूमि के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है; देशभक्ति का सही अर्थ है अपने देशवासियों की सेवा करने का जज्बा। वे मन से एक विश्व मानव थे, जिनकी आकांक्षा पूरे विश्व को एक परिवार के रूप में देखने की थी। देशभक्ति और वैश्विकता के बीच उनके विचारों में कहीं कोई भ्रम नहीं दिखता। स्वामी विवेकानंद प्रकृति से ही अन्वेषक थे और दूसरों के प्रति खुले विचार रखते थे। आईटी, सेवा उद्योग, आयात-निर्यात और पर्यटन जैसे क्षेत्रों को ध्यान में रखिए तो उनका यह कथन कितना प्रासंगिक लगता है कि हमें यात्रा अवश्य करनी चाहिए। हमें विदेशी भूमियों पर जाकर देखना चाहिए कि दूसरे देशों में सामाजिक तौर तरीके और परिपाटियां क्या हैं। दूसरे देश किस दिशा में क्या सोच रहे हैं। यह जानने के लिए हमें उनके साथ मुक्त और खुले संवाद से झिझकना नहीं चाहिए। जरा विचार कीजिए अपने समय की सोच से कितनी आगे थी स्वामी विवेकानंद की जीवन दृष्टि!
आज के युवा यह जानकर विस्मित हो सकते हैं कि विज्ञान से कोई सीधा संबंध न रखने वाला यह साधु अपने समय में युवकों से कहा करता था कि कोई विचार (आइडिया) लो और फिर उसी को अपने जीवन का मकसद बना लो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नाड़ियों और शरीर के हर भाग को उस विचार से भर लो। सफलता का एकमेव यही रास्ता है और इसी रास्ते ने अनेक महान विभूतियों को जन्म दिया है। सचमुच ऐसे शक्तिशाली और अद्भुत विचारों की प्रासंगिकता कभी भी समाप्त नहीं हो सकती।
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