29 मार्च 1978 का काला दिन29 मार्च 1978, एक ऐसा दिन जब सूर्योदय के साथ संभल शहर सांप्रदायिक हिंसा की आग में जल उठा। यह दिन आज भी पीड़ितों के मन में खौफ के रूप में जीवित है। शहर के हर कोने में मार-काट, आगजनी, और लूटपाट का भयानक मंजर था। विशेष रूप से हिंदू समुदाय के व्यवसायिक प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया गया।
फायरिंग और हथियारों का तांडवदंगाइयों ने सड़कों पर हथियारों के साथ उत्पात मचाया। चाकू, लोहे के सरिये, लाठियां और बंदूकें हर जगह मौत का सामान बन चुकी थीं। निर्दोष लोगों को बेरहमी से मारा गया। किसी के सिर काट दिए गए, तो किसी के हाथ-पैर। कुछ लोगों को मिट्टी का तेल और पेट्रोल डालकर जिंदा जला दिया गया।
व्यापार और घरों को लगी आगदंगाइयों ने हिंदुओं की दुकानों और फैक्ट्रियों में आग लगा दी। विनीत गोयल, जिनकी फैक्ट्री में मजदूरों को बेरहमी से मारा गया, बताते हैं, “दंगाइयों ने हमारी फैक्ट्री पर हमला किया। मजदूरों को काट डाला। मेरे पिता की हत्या कर उनके शव को टायर से जला दिया।”
जागरण की खबर के मुताबिक अनिल रस्तोगी ने बताया, “दंगाइयों ने हमारी दुकान को आग के हवाले कर दिया। असुरक्षा के माहौल में मकान बेचना पड़ा।”
डर और पलायनदंगे के बाद शहर का माहौल पूरी तरह से बदल चुका था। कई परिवारों ने डर के मारे अपने घर और दुकानें औने-पौने दामों में बेच दीं और पलायन कर गए। विष्णु शरण रस्तोगी कहते हैं, “दंगे के दौरान घर से बाहर निकलना मौत को दावत देने जैसा था। डर के मारे हिंदू समुदाय ने संभल छोड़ने का फैसला किया।”
कैसे भड़का दंगा?इस सांप्रदायिक दंगे की जड़ें महात्मा गांधी मेमोरियल डिग्री कॉलेज के प्रबंधन समिति विवाद में थीं। कॉलेज की आजीवन सदस्यता के लिए ट्रक यूनियन के नाम से 10,000 रुपये का चेक भेजा गया था, जो मंजर शफी के नाम पर था। लेकिन, ट्रक यूनियन ने मंजर शफी को अधिकृत करने से मना कर दिया।
कॉलेज प्रशासन ने मंजर शफी को मान्यता नहीं दी, जिससे तनाव बढ़ा। यही तनाव सांप्रदायिक हिंसा में तब्दील हो गया। मंजर शफी पर दंगे की अगुवाई का आरोप है। 29 मार्च से लेकर 20 मई तक शहर में कर्फ्यू लगा रहा।
पीड़ितों ने आरोप लगाया कि हिंदू समुदाय की संपत्तियों को वक्फ बोर्ड में शामिल कर लिया गया। यह भी दावा किया गया कि इस संपत्ति हड़पने के पीछे बड़ा फर्जीवाड़ा हो सकता है। कई पीड़ित आज भी न्याय के इंतजार में हैं।
देवेंद्र रस्तोगी कहते हैं, “हमारा घर और व्यापार दोनों खत्म हो गए। मजबूरी में हमें संभल छोड़ना पड़ा।”
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