1948 में अंतरिम संविधान समिति ने स्वतंत्र भारत के लिए लोकतांत्रिक ढांचा तैयार किया। इस प्रक्रिया ने भारतीय संविधान के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। संविधान सभा में गहन विचार-विमर्श और बहस के बाद 1950 में संविधान लागू हुआ। यह विश्व का सबसे विस्तृत संविधान है, जिसमें नागरिक अधिकार, न्याय और समानता सुनिश्चित की गई है। यह संविधान भारत के लोकतांत्रिक संस्थानों और कानूनों के संचालन का मूलाधार है। इसकी स्थिरता और प्रभावशीलता ने इसे अन्य देशों के लिए अनुकरणीय बनाया है।
समानता भारतीय संविधान में अंतर्निहित सबसे प्रमुख मौलिक अधिकार है और शायद इसीलिए संविधान के भाग तीन में अनुच्छेद 14-18 को संविधान संरक्षित मौलिक अधिकारों में सबसे प्रथम स्थान दिया गया है। मौलिक अधिकार वैसे अधिकार होते हैं, जिन्हें संविधान प्रदान नहीं करता, अपितु व्यक्ति के जीवन के साथ पहले से मौजूद इन अधिकारों का संरक्षण करता है। इसके संरक्षण की जिम्मेदारी सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की है। कोई भी सरकार इन मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर कानून नहीं बना सकती। संविधान सभा ने काफी विमर्श के बाद नागरिकों के इन मौलिक अधिकारों को संरक्षित माना है। समानता का अधिकार अनुच्छेद 14 के अंतर्गत विधि की दृष्टि में सभी को समान मानता है। अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है, तो अनुच्छेद 16 में सरकारी नौकरियों में सामान अवसर प्रदान करने की बात कही गई है। अनुच्छेद 17 में छुआछूत को खत्म करने के साथ ही साथ इसे अपराध भी माना गया है।
समता के अधिकार की प्रेरणा
भारतीय सामाजिक एवं आध्यात्मिक दर्शन हमेशा से समता-मूलक रहा है। यही कारण था कि जब 1950 के दशक में कलाकार नंदलाल बसु को भारत के संविधान को चित्रित करने का दायित्व सौंपा गया, तो संविधान के प्रत्येक भाग को भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद के पहलुओं को समाहित करते हुए चित्रों से सजाया गया। संविधान के भाग तीन की शुरुआत भगवान राम, सीता माता एवं लक्षमण जी के रथ में सवार हुए चित्र से की गई है। अर्थात् मौलिक अधिकारों को रामराज्य के तत्व के रूप में दर्शाया गया है जिसे संविधान सभा ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया था। रामराज्य में सभी नागरिकों को कानून की दृष्टि में समान संरक्षण प्राप्त था एवं भगवान श्रीराम ने भी हमेशा उन लोगों के लिए यथास्थिति परंपराओं को तोड़कर विशेष प्रबंध किए, जो समाज में हाशिए पर थे। उन्होंने स्वयं को भी कानून की दृष्टि में सामान्य प्रजा के बराबर ही माना।
भारतीय वाड्मय में समानता
कई प्राचीन भारतीय ग्रंथ समानता, न्याय और मानव गरिमा के विचारों को दर्शाते हैं, हालांकि यह विचार विभिन्न रूपों और संदर्भों में प्रस्तुत किए गए हैं। विशेष रूप से छांदोग्य उपनिषद् और बृहदारण्यक उपनिष्द्, अहम् ब्रह्मस्मि (अंतिम सत्य) के सिद्धांत को प्रमुखता से प्रस्तुत करते हैं, जिसे सभी प्राणियों का सामान्य सार माना जाता है, और इस प्रकार सभी मानवों के बीच आध्यात्मिक स्तर पर अंतर्निहित समानता का संकेत मिलता है।
छांदोग्य उपनिषद् (6.8.7) में कहा गया है कि सभी प्राणी मूल रूप से ब्रह्म के अंश हैं और एक दिव्य तत्व को साझा करते हैं, जो अस्तित्वात्मक समानता का संकेत देता है। बृहदारण्यक उपनिषद् (1.4.10) में भी यह कहा गया है कि आत्मा (आत्मन) सभी व्यक्तियों में समान है, चाहे वे राजा हों या निर्धन, जो उनके सार में समानता को दर्शाता है। महाभारत, विशेष रूप से भगवद्गीता के माध्यम से सभी प्राणियों की समानता पर जोर दिया गया है। भगवद्गीता (अध्याय 5, श्लोक 18) में भगवान श्रीकृष्ण सभी लोगों की दिव्य प्रकृति में अंतर्निहित समानता की बात करते हैं, चाहे उनकी सामाजिक स्थिति या शारीरिक परिस्थितियां कुछ भी हों। ज्ञानी सभी में एक ही सत्य को देखते हैं, चाहे वे ब्राह्मण हों, शूद्र, गाय, हाथी, कुत्ता, या कुत्ते का मांस खाने वाला हो।
कौटिल्य ने अपने ‘अर्थाशास्त्र’ में शासन और समाज के प्रबंधन के बारे में बात करते हुए कहा कि राजा को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि समाज में किसी के साथ अन्याय न हो और सभी नागरिकों को समान अवसर मिलें। हालांकि, इसमें विशेष रूप से सामाजिक वर्गों के अधिकारों का निर्धारण भी किया गया था, जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, लेकिन फिर भी शासन के संचालन में समानता और न्याय को बनाए रखने की आवश्यकता को रेखांकित किया गया था। मनुस्मृति में यह विचार किया गया कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्म और गुण के आधार पर सम्मान मिलना चाहिए। हालांकि, इसमें जातिवाद और वर्गों के अधिकारों का विशेष उल्लेख है, लेकिन इसके कुछ हिस्सों में समानता की भावना भी मिलती है, जैसे कि राजा को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि समाज में किसी भी व्यक्ति का उत्पीड़न न हो और सभी को न्याय मिले।
बुद्ध और जैन विचारधारा
प्राचीन भारत में गौतम बुद्ध और महावीर के समय में समानता और सामाजिक न्याय पर जोर दिया गया। इन विचारधाराओं ने जातिवाद और भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई और समाज में समानता की अवधारणा को बढ़ावा दिया। गौतम बुद्ध ने अपने उपदेशों में समाज के सभी वर्गों को समान रूप से धार्मिक अधिकार देने का समर्थन किया। धम्मपद, जो गौतम बुद्ध के उपदेशों का संग्रह है, में समानता के सिद्धांत यानी आध्यात्मिक समानता को सभी प्राणियों के दुखों को समाप्त करने के संदर्भ में प्रमुखता से व्यक्त किया गया है। धम्मपद (197) में कहा गया है कि जो दूसरों को नुकसान नहीं पहुंचाता और सभी प्राणियों के भले के लिए कार्य करता है, वही सच्चा ब्राह्मण है, चाहे उसकी जाति या परिवार कुछ भी हो।
भगवान महावीर ने भी अहिंसा और सभी जीवों की समानता का समर्थन किया है। जैन मत जातिवाद को अस्वीकार करता है और सभी जीवन की पवित्रता पर समान रूप से जोर देता है। महावीर ने सिखाया कि सभी आत्माएं समान हैं और वे सही आचरण के माध्यम से मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं। भारतीय संविधान में समानता के अधिकारों को समाविष्ट करने की प्रेरणा कहीं न कहीं इन प्राचीन विचारों से ही मिली है।
वर्तमान संवैधानिक अवधारणा
समानता का सिद्धांत भारतीय संविधान की एक ऐसी आधारशिला है, जो लोगों को मनमाने भेदभाव से बचाती है और यह सुनिश्चित करती है कि सभी नागरिकों के साथ निष्पक्षता और न्याय के साथ व्यवहार किया जाए। समानता पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों ने लगातार इस सिद्धांत की व्याख्या को आकार दिया है। यह भारतीय समाज की बदलती वास्तविकताओं को दर्शाता है, जिसमें हाशिए के समूहों की जरूरतों और सकारात्मक कार्रवाई के माध्यम से सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना शामिल है।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय
सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर समानता को बढ़ाने वाले अनेक निर्णय दिए हैं। मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978)
के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 14 की व्याख्या ‘प्रक्रियात्मक निष्पक्षता’ और ‘वास्तविक निष्पक्षता’ के सिद्धांत हेतु की थी। अदालत ने यह निर्णय दिया कि राज्य के कानून और कार्य केवल उचित ही नहीं, बल्कि निष्पक्ष और न्यायपूर्ण भी होने चाहिए, जिससे समानता केवल प्रारूप में ही नहीं, बल्कि वास्तविकता में भी सुनिश्चित हो। ई.पी. रॉयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य (1974) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि समानता केवल कानून के सामने औपचारिक समानता नहीं है, बल्कि वास्तविक समानता भी है।
अदालत ने यह निर्णय दिया कि समानता का मतलब केवल समान व्यक्तियों को समान व्यवहार देना नहीं है, बल्कि असमान व्यक्तियों के साथ इस प्रकार का व्यवहार करना है, जो उनके अंतर्निहित पिछड़ेपन को दूर करता हो। ‘समानता एक गतिशील अवधारणा है, जिसमें कई पहलू और आयाम होते हैं। इसे संकीर्ण और किताबी व्याख्या तक सीमित नहीं किया जा सकता।’ पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार (1952) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उस कानून को रद्द कर दिया, जो अपराधियों के कुछ वर्गों के लिए भेदभावपूर्ण प्रक्रिया प्रदान करता था। इस मामले ने यह स्थापित किया कि उचित वर्गीकरण को मनमाना नहीं होना चाहिए। वर्गीकरण और प्राप्त किए जाने वाले उद्देश्य के बीच कुछ तार्किक संबंध होना चाहिए।
इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) का मामला मंडल आयोग से जुड़ा था। इस पर न्यायालय ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण के प्रावधान को मंजूरी दी, लेकिन आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत तक सीमित कर दिया। यह मामला सकारात्मक कार्रवाई या सकारात्मक भेदभाव के बीच संतुलन स्थापित करने में ऐतिहासिक था। सभी के लिए अवसर की समानता संविधान की नींव है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सभी को एक जैसा माना जाए, बिना उनके सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को ध्यान में रखे। अतएव, हम वर्तमान में समानता के अधिकारों के प्रति अपने समाज में जो धारणा देखते हैं चाहे वह संवैधानिक हो या न्यायालयों के आदेश में हो, उसका मूल हमारे समाज में हमेशा से मौजूद है।
बात केवल रामराज्य की ही नहीं, अपितु भारतीय दर्शन की भी है। यह दर्शन प्रकृति एवं मानव-जीवों के व्यवहार में साम्यता का उद्घोष करता है। यही दर्शन प्राचीन विधिवेत्ता चाणक्य की अवधारणा से होते हुए समस्त मौर्य साम्राज्य में और विशेष रूप से सम्राट अशोक के शिलालेखों, अशोक चक्र एवं अशोक स्तंभ से परिलक्षित होता है। इसी भाव के साथ चलने वाले सम्राट विक्रमादित्य प्राचीन काल में स्वर्णयुग लाए थे। वस्तुत: हमारा संविधान उस भारतीय दर्शन को अपना मूल बताता है, जो प्राचीन काल से राज-व्यवस्था में समानता के सिद्धांतों का पक्षधर रहा है।
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