स्वतंत्रता के बाद भारत में अब तक 400 से अधिक लोकसभा और विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग की सराहना भारत ही नहीं, दुनिया भर में होती है। इस वर्ष लोकसभा चुनाव में 90 करोड़ से अधिक मतदाताओं ने हिस्सा लिया और रिकॉर्ड 64.2 करोड़ लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। हाल ही में ‘टेस्ला’और ‘एक्स’ के मलिक एलन मस्क ने लोकसभा चुनाव की तुलना अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव से करते हुए टिप्पणी की थी, ‘‘भारत ने एक दिन में 64 करोड़ वोट गिन दिए! कैलिफोर्निया में अभी भी वोटों की गिनती चल रही है।’’
भारत का शासन लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर आधारित है और चुनाव प्रणाली चुनी हुई सरकारों का मूल स्तंभ है। भारत में लोकतंत्र की दिशा में पहला कदम फरवरी 1937 में उठाया गया था, जब देशवासियों को प्रत्यक्ष चुनाव के जरिये प्रांतीय सरकारों के गठन के लिए वोट देने का अधिकार मिला था। 10 वर्ष बाद स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माताओं ने केंद्र और राज्यों में सरकार बनाने के लिए चुनाव कराने का प्रावधान किया। संविधान के तहत लोकसभा और राज्यों में विधानसभा का गठन हुआ। फिर संसद को कानून बनाने का अधिकार दिया गया, ताकि चुनाव के माध्यम से जन प्रतिनिधित्व का मार्ग सुनिश्चित हो सके।
बिगड़ती गई व्यवस्था
देश में पहला आम चुनाव अक्तूबर 1951 से मई 1952 के बीच हुआ। इस त्रिस्तरीय चुनाव प्रक्रिया में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति, केंद्र में लोकसभा व राज्यों में विधानसभा और उच्च सदन के सदस्यों का चुनाव हुआ। मार्च 1957 में दूसरे आम चुनाव में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए। लेकिन लोकसभा चुनाव के साथ तारतम्य बनाने के लिए विधानसभाओं को भंग करना पड़ा।
चुनाव कराने को लेकर1957 की रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि लोकसभा और विधानसभाओं को अपना कार्यकाल पूरा करने की अनुमति दी गई होती तो उनके पुनर्गठन के लिए आम चुनाव अलग-अलग समय पर कराए गए होते। ऐसी स्थिति में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराना संभव नहीं होता। इसलिए यह निर्णय लिया गया कि दूसरा आम चुनाव मार्च 1957 से पहले कराया जाए और जहां आवश्यक हो, विधानसभाओं को समय से पहले भंग कर दिया जाए, ताकि निर्वाचित सदन की बैठक आम चुनाव समाप्त होने के तुरंत बाद हो सके। लिहाजा, बिहार, बम्बई, मद्रास, मैसूर, पंजाब, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में विधानसभा को समय पूर्व भंग कर दिया गया।
1951-60 के बीच लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए, इसलिए एक दशक में दो ही चुनाव हुए। एक साथ चुनाव का क्रम 1962 तक चला। 1967 में कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं। लेकिन कुछ राज्यों में कार्यकाल पूरा होने से पहले ही विधानसभाओं को भंग कर दिया गया, जिससे 1968 और 1969 में एक साथ चुनाव कराने में बाधा आई और एक साथ चुनाव का क्रम टूट गया, फिर बार-बार चुनाव कराए जाने लगे। 1961- 1970 के बीच 5 राज्यों-बिहार, पंजाब, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और केरल में एक दशक में 3 बार विधानसभा चुनाव कराए गए। यहां से जो स्थिति बिगड़ी वह अगले चार दशक तक बिगड़ती चली गई। 1970 में पहली बार चौथी लोकसभा समय से पहले भंग कर दी गई।
इसका कार्यकाल 3 वर्ष 10 माह ही रहा। फिर 1971 में केवल लोकसभा चुनाव कराए गए। इस तरह, पहली, दूसरी और तीसरी लोकसभा ने ही अपना 5 वर्ष का कार्यकाल पूरा किया। 1971-80 के बीच तो 14 राज्यों में 3-3 बार विधानसभा चुनाव हुए, जबकि ओडिशा में सबसे अधिक 4 बार। आपातकाल की घोषणा के कारण 5वीं लोकसभा का कार्यकाल अनुच्छेद-352 के तहत 10 माह तक यानी 1977 तक बढ़ा दिया गया था। 1981-90 के दशक में भी यह प्रवृत्ति में जारी रही। इस दौरान 5 राज्यों में 3 बार, जबकि 1991-2000 के दौरान राजनीतिक अस्थिरता के कारण लोकसभा चुनाव चार बार कराने पड़े। इसी अवधि में हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश में 3-3 और 2011-2020 के बीच केवल दिल्ली में तीन बार विधानसभा चुनाव हुए।
इस तरह, छठी, 9वीं, 11वीं, 12वीं और 13वीं लोकसभाओं को समय से पहले भंग कर दिया गया और केवल 7वीं, 8वीं, 10वीं, 14वीं और 15वीं लोकसभाएं अपना कार्यकाल पूरा कर सकीं। इस तरह, विधानसभाओं को समय से पहले भंग करना और बार-बार कार्यकाल विस्तार चुनौती बन गए। इन कारणों से एक साथ चुनाव कराने का चक्र टूट गया, क्योंकि लोकसभा और विधानसभाओं के कार्यकाल नियत समयावधि के नहीं थे। इससे राजनीतिक दलों, उनके नेताओं, चुनाव आयोग ही नहीं, मतदाताओं पर भी समय, ऊर्जा और वित्तीय बोझ पड़ने लगा। 1960 के दशक के बाद पूर्ववर्ती सरकारों ने अनुच्छेद-356 में प्रदत्त आपात प्रावधान का इस्तेमाल विधानसभाओं को भंग करने के लिए किया। हालांकि, इसमें त्रिशंकु सदन, विपक्ष का अविश्वास प्रस्ताव जैसी परिस्थितियां भी शामिल रहीं। अब तो स्थिति यह है कि हर वर्ष 4-5 राज्यों में चुनाव होते हैं, जिससे 5 वर्ष का आधा समय चुनाव में ही निकल जाता है।
पहले भी उठती रही मांग
राजनीतिक दल, उनके नेताओं, कार्यकर्ताओं, उद्योगों व व्यापारिक संगठनों, शिक्षाविदों, सरकारों और जागरूक मतदाताओं ने बार-बार चुनाव से होने वाली परेशानियों की ओर ध्यान खींचा है। इनका कहना है कि बार-बार चुनाव होने से अनिश्चितता का माहौल बनता है। एक साथ चुनाव का मुद्दा कई अन्य रिपोर्टों और अध्ययनों में भी उठाया जा चुका है। निर्वाचन आयोग ने 1962 के आम चुनाव पर अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ‘यदि संभव हो तो दो बार चुनावी खर्च से बचा जाना चाहिए। एक साथ चुनाव होने से मतदाताओं और चुनाव आयोग को तो सुविधा होती ही है, राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों को भी लाभ होता है। मतदाताओं को भी मतदान केंद्र पर एक ही बार जाना पड़ता है। इसके अलावा, चुनाव आयोग को कर्मचारियों की तैनाती, मतदान केंद्र बनाने और सुरक्षाबलों को भेजने सहित अन्य प्रबंध एक बार ही करना होता है।’
निर्वाचन आयोग ने 1983 की आरंभिक वार्षिक रिपोर्ट में भी साथ-साथ चुनाव कराने का सुझाव दिया था। आयोग ने कहा था कि अलग-अलग चुनाव से प्रशासनिक और अन्य खर्चों जैसे- मतदाता सूची के दोबारा पुनरीक्षण पर खर्च, लगभग 25 लाख कर्मचारियों-अधिकारियों और हजारों पुलिस कर्मियों की तैनाती हर बार लगभग दो से तीन महीनों के लिए करनी पड़ती है, जिससे उनका मूल कार्य प्रभावित होता है। इसके अलावा, विकास कार्य, प्रशासनिक व्यवस्था सहित स्थानांतरण और अन्य सरकारी कामकाज प्रभावित होते हैं। आचार संहिता लागू होने के कारण सरकारें बड़ी घोषणाएं नहीं कर पातीं और राजनीतिक दलों व प्रत्याशियों को भी दोहरा खर्च करना पड़ता है। इससे आम लोगों को भी बहुत परेशानी होती है।
यही नहीं, विधि आयोग ने भी काफी अध्ययन के बाद 1999, 2015 और 2018 की मसौदा रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की थी। विधि आयोग ने 1999 में अपनी 170वीं रिपोर्ट में कहा था कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की परंपरा 1967 तक चली। इसके बाद अन्य कारणों के अलावा संविधान के अनुच्छेद-356 का बार-बार उपयोग और मुख्यमंत्रियों की सिफारिश पर विधानसभाओं को भंग किया जाने लगा। आयोग का सुझाव था कि अलग चुनाव कराने की व्यवस्था नियम के बदले अपवाद होना चाहिए। लेकिन सामान्य नियम यही हो कि हर 5 वर्ष पर लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ हों।
इसके बाद 2002 में ‘राष्ट्रीय संविधान कार्य प्रणाली समीक्षा आयोग’ और कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय विभाग से संबंधित संसद की स्थायी समिति ने 2015 में अलग-अलग चुनाव की खामियों की पहचान करते हुए एक साथ चुनाव की सिफारिश की थी। इसके बाद जनवरी 2017 में नीति आयोग ने एक साथ चुनाव की संभावनाओं पर ‘समकालिक चुनावों का विश्लेषण : क्या, क्यों और कैसे’ शीर्षक से एक कार्य पत्र तैयार किया था। दो वर्ष बाद 2019 में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के मुद्दे पर एक सर्वदलीय बैठक हुई थी, जिसमें 19 राजनीतिक दलों ने हिस्सा लिया था। इनमें से 16 दल एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में थे, जबकि केवल 3 ने ही इसका विरोध किया था। विरोध करने वालों में सीताराम येचुरी (माकपा), क्षिति गोस्वामी (रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी) और असदुद्दीन ओवैसी (एआईएमआईएम) शामिल थे।
कोविंद समिति के सुझाव
समिति का कहना है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ होने चाहिए। इसके लिए संविधान और अन्य कानूनों में आवश्यक संशोधन भी किया जाना चाहिए। इसके लिए समिति ने सुझाव दिया है कि लोकसभा, विधानसभा, नगरपालिका और पंचायतों के चुनाव दो चरणों में कराए जाएं। पहले चरण में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव कराए जाएं। दूसरे चरण में नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनाव 100 दिन के भीतर कराए जाएं। तीनों स्तरों पर चुनावों में एक ही मतदाता सूची और फोटो पहचान पत्र का उपयोग हो। ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ संविधान की भावना के अनुरूप है और इसके लिए संविधान में मामूली संशोधन की आवश्यकता है। जैसे-
अनुच्छेद-82 (क)
- आम चुनाव के बाद राष्ट्रपति लोकसभा की पहली बैठक की तारीख को अधिसूचना जारी कर अनुच्छेद-82 (क) का प्रावधान लागू करें। इसमें अधिसूचना की तिथि को ही निर्धारित तिथि माना जाए।
- अनुच्छेद-83 और 172 के तहत निर्धारित तिथि के बाद गठित लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल लोकसभा का कार्यकाल पूरा होने के बाद समाप्त हो।
- संविधान या किसी भी कानून में वर्तमान व्यवस्था के बावजूद उप-अनुच्छेद-(2) के तहत कार्यकाल पूरा होने के बाद चुनाव आयोग लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए। इन चुनावों पर संविधान के भाग (श्) के प्रावधान आवश्यक बदलावों के साथ लागू किए जाएं।
अनुच्छेद 324 (क )
- आम चुनाव के साथ नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनाव आयोजित करने के लिए अनुच्छेद-243(ङ) और अनुच्छेद-243 (थ) में उपबंध जोड़े जाएं। संशोधनों के बाद निर्धारित तिथि से लोकसभा और विधानसभा के चुनाव कराए जाएं। इन निकायों का कार्यकाल लोकसभा के कार्यकाल के साथ पूरा होना चाहिए। यदि कोई विधानसभा अविश्वास प्रस्ताव, त्रिशंकु सदन या किसी अन्य कारण से भंग होती है, तो वहां नए सिरे से चुनाव कराए जाएं, जिसका कार्यकाल लोकसभा के साथ पूरा हो।
अनुच्छेद-325
- समिति ने संविधान के अनुच्छेद-325 में भी संशोधन का सुझाव दिया है ताकि एक मतदाता सूची और एक फोटो पहचान पत्र बनाया जा सके।
80 प्रतिशत लोग समर्थन में
रामनाथ कोविंद की अगुआई वाली उच्च स्तरीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में सीआईआई, फिक्की, एसोचैम जैसे शीर्ष व्यापारिक संगठनों और प्रख्यात अर्थशास्त्रियों के हवाले से कहा है कि अलग-अलग चुनाव कराने से महंगाई बढ़ती है और अर्थव्यवस्था धीमी होती है। आर्थिक विकास, सार्वजनिक व्यय की गुणवत्ता, शैक्षिक और सामाजिक सद्भाव पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ता है। साथ ही, आर्थिक और कानूनी विशेषज्ञों ने साथ-साथ चुनाव के असंख्य लाभ गिनाए हैं। राजनीतिक दलों, विशेषज्ञों और अन्य पक्षों से मिले सुझावों के आधार पर समिति ने निष्कर्ष निकाला है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ से चुनाव प्रक्रिया ही नहीं, समग्र शासन में मौलिक बदलाव आएगा। इससे सीमित संसाधनों का बेहतर उपयोग तो सुनिश्चित होगा ही, बड़ी संख्या में मतदाता को मतदान में हिस्सा लेने के लिए भी प्रोत्साहित करेगा। इसके अलावा, बार-बार आचार संहिता लागू होने के कारण शासन व नीतिगत फैसलों में व्यवधान और इसके कारण आर्थिक विकास को जो नुकसान होता है, वह भी कम हो जाएगा।
अलग-अलग चुनावों के कारण उद्योगों और व्यापारिक संगठनों के समक्ष सबसे बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है, क्योंकि श्रमिक बार-बार वोट देने अपने घर चले जाते हैं। श्रमिकों के अभाव में उद्योगों को अपना उत्पादन चक्र बनाए रखने में परेशानी होती है। दूसरी ओर, नई व्यवस्था से श्रमिकों, खासकर प्रवासी श्रमिकों को भी लाभ होगा, क्योंकि निर्वाचन क्षेत्र तक जाने में उनका होने वाला खर्च बचेगा और दिहाड़ी का भी नुकसान नहीं होगा।
समिति ने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय सहित 62 दलों से बात की। इनमें 47 राजनीतिक दलों में प्रतिक्रिया दी, जबकि 18 ने बार-बार आग्रह के बावजूद कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। 47 में से 32 दल एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में हैं।
केवल 15 दल ही ऐसे हैं, जिन्हें लगता है कि अगर लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हुए तो उनका अस्तित्व खत्म हो जाएगा। आम आदमी पार्टी का तो यहां तक कहना है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ से लोकतंत्र, संविधान की मूल संरचना और देश की संघीय राजनीति कमजोर हो जाएगी। वहीं, कांग्रेस ने तो अलग-अलग बहुत अधिक खर्च की बात को ही बेबुनियाद कहा है। साथ ही, कहा कि साथ-साथ चुनाव संघवाद की गारंटी, संसदीय लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाएगा और संविधान की मूल संरचना काफी बदल जाएगी। हालांकि, समिति ने स्पष्ट कहा है कि इससे क्षेत्रीय राजनीति पर कोई असर नहीं पड़ेगा और क्षेत्रीय दलों की प्रासंगिकता बनी रहेगी।
समिति ने भारत के पूर्व न्यायाधीशों, प्रमुख उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों, भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त व राज्य चुनाव आयुक्तों के अलावा विधि आयोग और चुनाव आयोग जैसी विशेषज्ञ संस्थाओं से भी बातचीत की। इन सभी का यही मानना था कि अलग-अलग चुनाव कराने से संसाधनों की भारी बर्बादी तो होती ही है, देश पर सामाजिक-आर्थिक बोझ बढ़ता है और मतदाताओं में चुनाव को लेकर उदासीनता आती है। लोगों से बड़ी संख्या में मिलने वाली प्रतिक्रियाओं को देखते हुए समिति को सुझाव और प्रतिक्रिया लेने की अंतिम तिथि बढ़ानी पड़ी। इसका अनुमान समिति को ईमेल, वेबसाइट और डाक से मिले सुझावों से लगाया जा सकता है।
समिति को 21,558 लोगों के सुझाव मिले, जिनमें से 80 प्रतिशत एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में हैं। ये प्रतिक्रियाएं खासतौर से लक्षद्वीप, अंदमान एवं निकोबार, नागालैंड, दादरा एवं नगर हवेली जैसे अपेक्षाकृत छोटे इलाकों से मिलीं। समिति को सबसे अधिक प्रतिक्रियाएं तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल, गुजरात और उत्तर प्रदेश से मिलीं। यहां तक कि राजनीतिक दलों ने भी सीमित संसाधनों की बचत, सामाजिक तालमेल बनाए रखने और आर्थिक विकास को गति देने के लिए एक साथ चुनाव की जोरदार वकालत की है।
अभी यह स्थिति है कि अलग-अलग चुनावें के कारण राजनीतिक दल, उनके सांसद-विधायक ही नहीं, केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों का ध्यान भी शासन को प्राथमिकता देने के बजाए चुनावी तैयारियों पर ही केंद्रित रहता है। एक साथ चुनाव होंगे तो सरकारें अपना ध्यान विकास कार्यों और कल्याणकारी नीतियों पर केंद्रित कर सकेंगी।
आचार संहिता के कारण नीतिगत फैसले भी प्रभावित नहीं होंगे और शासन संबंधी अनिश्चितता भी नहीं रहेगी। लेकिन कुछ राजनीतिक दलों को यह डर है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ लागू होगा तो उनकी प्रासंगिकता ही खत्म हो जाएगी और राष्ट्रीय मुद्दे व राष्ट्रीय दल हावी हो जाएंगे। इसलिए वे ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का विरोध कर रहे हैं। उन्हें यह समझना चाहिए कि अगर एक साथ चुनाव कराए जाते हैं तो राजनीतिक दलों में अवसरों और जिम्मेदारियों का समान को समान रूप से विभाजन हो सकेगा। अभी यह स्थिति है कि पार्टी के कुछ नेता ही चुनावों में हावी रहते हैं। पार्टी के प्रमुख पदों पर कुछ नेताओं का वर्चस्व और उनका कई स्तरों पर चुनाव लड़ना सामान्य बात है। लेकिन एक साथ चुनाव में विभिन्न दलों का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच विविधता और समावेशिता की गुंजाइश अधिक होती है।
संयुक्त संसदीय समिति गठित‘
एक राष्ट्र, एक चुनाव’ विधेयक पर विपक्ष के विरोध के बीच भाजपा सांसद पीपी चौधरी की अध्यक्षता में एक 31 सदस्यीय संयुक्त संसदीय समिति गठित की गई है। इसमें लोकसभा के 21 और राज्यसभा के 10 सांसद सदस्य होंगे। समिति में भाजपा के अनुराग ठाकुर, सीएम रमेश, पुरषोत्तम भाई रूपाला, संबित पात्रा, बांसुरी स्वराज, विष्णु दयाल राम, भर्तृहरि महताब, अनिल बलूनी व विष्णु दत्त शर्मा, कांग्रेस से प्रियंका गांधी वाड्रा, मनीष तिवारी व सुखदेव भगत, सपा के धर्मेंद्र यादव, तृणमूल कांग्रेस के कल्याण बनर्जी, राकांपा (शरद गुट) की सुप्रिया सुले, द्रमुक से टीएम सेल्वगणपति, टीडीपी के जीएम हरीश बालयोगी, शिवसेना (शिंदे गुट) के श्रीकांत एकनाथ शिंदे, राष्ट्रीय लोक दल के चंदन चौहान और जनसेना पार्टी के बालाशोवरी वल्लभनेनी को शामिल किया गया है।
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