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सशक्त भारत के लिए छोड़िए जाति जकड़न

भारत को भारत बनाए रखने के लिए हमें जाति जकड़न से दूर होना होगा। साथ ही अपनी संस्कृति, सरोकार, रोजगार को हर तरह से बढ़ावा देना पड़ेगा। हमें युवा पीढ़ी को बताना होगा कि तुम्हारी एक भक्ति है भारत-भक्ति

by पाञ्चजन्य ब्यूरो
Dec 20, 2024, 10:00 am IST
in भारत, विश्लेषण
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भारतीय संस्कृति समरस एवं सर्वसमावेशी होकर संपूर्ण मानवता के कल्याण की कामना करती रही है। यह मानव समाज को सत्य एवं ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करने और ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ तथा ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का पाठ पढ़ाने वाली रही है। साथ ही यह ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’, ‘आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:’ एवं चतुर्थ पुरुषार्थ यानी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पर अटूट विश्वास करने वाली रही है। किंतु न जाने कैसे इस ‘विश्व बंधुत्व’ एवं चराचर जगत की कल्याणकारी संस्कृति को ग्रहण सा लग रहा है। वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों के संदर्भ में यह चिंतन-मनन का विषय है कि इस शाश्वत संस्कृति को पुन: कैसे जनकल्याणकारी एवं सर्वहितकारी मार्ग पर लाकर वैश्विक पटल पर इसकी सार्थकता सिद्ध की जा सकती है।

इस संदर्भ में सामाजिक समरसता, भारत-केंद्रित शिक्षा, परिवार भाव, पर्यावरण संरक्षण एवं स्वदेशी—ये पांच आयाम भारत के सामाजिक, आर्थिक और नैतिक उत्थान की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकते हैं। इन आयामों पर सामूहिक प्रयास करने से भारत न केवल आत्मनिर्भर और सशक्त राष्ट्र बनेगा, बल्कि सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर संपूर्ण विश्व के लिए प्रेरणास्रोत भी बनेगा।

विगत समय से भारतीय समाज को तरह-तरह से कृत्रिम आधारों पर विभाजित करने के कुत्सित प्रयास हो रहे हैं। फलस्वरूप समाज समूहों में बंट रहा है एवं इसकी एकता प्रभावित हो रही है। सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय भावना को बलवती करने हेतु सामूहिक रूप से भगीरथ प्रयास करने होंगे। जातिगत विद्वेष ने भारतीय समाज को कई जातियों, उपजातियों में विभाजित कर दिया है। परस्पर स्पर्धा एवं द्वेष की भावना पनप रही है। इससे संगठित समाज के रूप में हमारी एकता को क्षति पहुंच रही है। विदेशी आक्रमणों के सामने भारत की पराजय का एक बड़ा कारण यहां की जातिगत समस्याएं भी रही हैं।

मुगल शासन काल में कई सामाजिक कुरीतियां यथा बाल-विवाह, परदा-प्रथा आदि पनपीं। अंग्रेज काल में उनके पिछलग्गूओं ने इनका दुरुपयोग समाज को बांटने में किया। अतएव हमें जातिगत भेदभाव और सामाजिक असमानताओं को समाप्त करना होगा। हमें यह स्वीकार करना होगा कि एक सभ्य एवं संगठित समाज को व्यक्ति, जाति-उपजाति, समुदाय या आर्थिक स्थिति के आधार पर विभाजित नहीं होना चाहिए।

हमारा मुख्य निमित्त एक सुसंगठित, अनुशासित, आत्मनिर्भर सशक्त समाज का निर्माण होना चाहिए। हमें युवाओं की ऐसी पीढ़ी तैयार करनी चाहिए जो नैतिक एवं सामाजिक रूप से जागरूक नागरिकों का समूह हो, जो समाज एवं राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों से सुपरिचित होकर उनके निर्वहन हेतु उत्सुक हों। ऐसे युवा जो केवल व्यक्तिगत नैतिकता तक ही सीमित न हों, बल्कि जो समाज को सुसंगठित करने एवं राष्ट्रीय हित के विषयों पर सामूहिक निर्णय लेने में सर्वथा सक्षम हों।

देश का शीर्ष नेतृत्व क्या कहता एवं करता है, समाज का सामान्य व्यक्ति इससे अधिक प्रभावित नहीं होता। बल्कि उसके अड़ोस-पड़ोस के लोगों का आचरण एवं व्यवहार कैसा है, इस पर वह अधिक ध्यान देता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को धर्म-नैतिकता संपन्न बनाना हमारा सामाजिक उत्तरदायित्व होना चाहिए। इस उद्देश्य को सफल बनाने हेतु समाज को एक व्यापक राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का विकास करना चाहिए।

सर्वविदित है कि भारत देश कभी भी हमारे लिए केवल एक भूगोल या कागज पर बना मानचित्र मात्र नहीं रहा। हमने इसे भूमि का एक टुकड़ा न मानकर सदैव एक जाग्रत देवता के रूप में पूजा है। कहा गया है-

वन्दे नितरां भारतवसुधाम्।
दिव्यहिमालय-गंगा-यमुना-सरयू-कृष्णशोभितसरसाम्॥
अर्थात् देवभूमि हिमालय, गंगा, यमुना, सरयू, कृष्णा एवं अन्य कई पवित्र नदियों से सुशोभित भारत भूमि को नमन। यहां तक कि देवताओं ने भी इस हिंदू भूमि भारतवर्ष की प्रशंसा में गीत गाये हैं –

गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्॥
अर्थात् भारतभूमि के उत्कर्ष का गुणगान करते हुए देवतागण भी यहां पर स्वयं जन्म धारण करने के इच्छुक रहते हैं, क्योंकि यह पावन भूमि स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाली है।

इस तथ्य को विवादित नहीं बनाना चाहिए कि प्राचीन काल से यहां जो निवास करते आए हैं उन्हें ‘हिन्दू’ नाम से जाना गया एवं उनके निवास स्थान को ‘भारत भूमि’ कहा गया। इस भूमि का क्षेत्र विस्तार कितना है, इस संबंध में विष्णु पुराण का यह श्लोक हमारा मार्गदर्शन करता है-

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्,
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:।
यानी हिमालय पर्वत से लेकर कन्याकुमारी तक का भू-भाग भारत एवं यहां के निवासी भारतीय कहलाए। यह तो हमारी उत्तरी और दक्षिणी सीमा का निर्धारण हुआ। पूर्व एवं पश्चिम में भारत की सीमा रेखा जब संज्ञान में आती है तो मन पुलकित हो उठता है। भारत (आर्यावर्त) की सीमा में आज के अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, तिब्बत, भूटान, बांग्लादेश, बर्मा, इंडोनेशिया, कंबोडिया, वियतनाम, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, मालदीव और अन्य कई छोटे-बड़े क्षेत्र हुआ करते थे। इस प्रकार हिमालय, हिंद महासागर, ईरान व इंडोनेशिया के मध्य के पूरे भू-भाग को आर्यावर्त अथवा भारतवर्ष या हिंदुस्थान कहा गया। महान स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने भारत एवं भारतवासियों के संदर्भ में कहा है-

आसिन्धुसिन्धुपयंर्ता यस्य भारतभूमिका।
पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृत:।।
अर्थात् जो सिन्धु नदी के उद्गमस्थान से कन्याकुमारी के समुद्र तक के विस्तृत भूभाग को भारत-भूमि, पितृ-भूमि, मातृ-भूमि एवं पुण्य-भूमि मानते हैं, उन्हें ‘हिन्दू’ कहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि इस राष्ट्र की उन्नति के साथ ही अवनति का दायित्व भी हिंदू समाज पर ही है। इसलिए हिंदुओं को एकजुट, सजग, संपन्न, नैतिक एवं धर्मपरायण होना अति आवश्यक है। लेकिन इसका आशय यह कतई नहीं कि हमें अन्य मतावलंबियों का विरोधी होना चाहिए। अपितु हमें सभी समुदायों एवं वर्गों को संगठित करना है।

इस हेतु राष्ट्र-प्रेमी सोच रखने वाले लोगों की संख्या बढ़ानी होगी। समाज के सभी वर्ग के लोगों के मध्य इस पुनीत कार्य का विस्तार करना होगा। इसमें बाधाएं आएंगी, क्योंकि बाधा खड़ी करने वाले विघ्नसंतोषी भी इसी समाज से हैं। किंतु राष्ट्रहित में सभी बाधाओं को पार करना ही पड़ेगा। आज जो हमारे विचारों के विरोधी हैं, कल हमें उन्हें अपना सहयोगी बना लेना है। इसीलिए तो बारम्बार कहा गया है, मित्र होंगे सब विरोधी। ऐसे लोगों के साथ भी मिलकर राष्ट्र उन्नति में लग जाना है। ऐसा कार्य करते समय धर्म अर्थात् नीति-नियम और शुद्ध विचारों के लिए भी दृढ़ संकल्पित होना पड़ेगा।

इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु हमें शिक्षा के क्षेत्र में अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए। भारतीय शिक्षा प्रणाली में ऐसे सुधारों की महती आवश्यकता है, जो राष्ट्रीय और सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों को सुदृढ़ कर सकें एवं जिनसे विद्यार्थियों को युगानुकूल शिक्षा मिल सके। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इनका समुचित प्रावधान है। यथा भारतीय जीवन-मूल्यों एवं भारतीय ज्ञान परंपरा का शिक्षा में समायोजन, भारतीय भाषाओं में शिक्षा, परिणाम आधारित समग्र शिक्षा, तकनीकीयुक्त शिक्षण पद्धति, कितना सीखना है के स्थान पर कैसे सीखना है, विश्लेषणात्मक एवं रचनात्मक सोच का विकास, अनुभवजनित एवं कौशलयुक्त शिक्षा और समाजोपयोगी शिक्षा तथा शोध आदि। ऐसी शिक्षा जो उद्योग जगत के अनुरूप कौशल विकास कर हमारे युवाओं को उद्यमी एवं उत्पादक बना सके। अनेक राष्ट्रवादी संगठन इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। शिक्षकों को अब इस क्षेत्र में अधिक सघनता के साथ कार्य करने की आवश्यकता है। इस नीति के क्रियान्वयन से ही विकसित एवं स्वावलंबी भारत का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।

परिवार भारतीय समाज के आधारभूत स्तंभ हैं, जो सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बदलते परिवेश में परिवारों का विघटन एवं संबंधों में दूरी बढ़ने से पारिवारिक मूल्यों का ह्रास केवल भावनात्मक समस्याओं को जन्म नहीं देता, अपितु सामाजिक असंतुलन का भी कारण बनता है। इसलिए परिवार प्रणाली को सशक्त बनाना अत्यंत आवश्यक है। परिवार प्राथमिक पाठशाला है, जहां शिशु संस्कार सीखता है। आज एकल परिवारों के बढ़ते प्रचलन के बीच संयुक्त परिवारों का महत्व समझना जरूरी है, क्योंकि वे बच्चों के समग्र विकास में सहायक होते हैं। इसीलिए स्वस्थ संवाद और सूझ-बूझ से परिवार के सदस्यों के मध्य पारस्परिक संबंधों को प्रगाढ़ बनाने की आवश्यकता है।

कुटुंब प्रबोधन के माध्यम से कुछ संगठनों ने घर-घर जाकर परिवारों एवं उनके बच्चों के अंदर संस्कार के बीज बोने का बीड़ा उठाया है। वर्तमान में बच्चे एवं युवा मोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स, जंक फूड समेत पाश्चात्य जीवन-शैली की लत में बुरी तरह फंसे हुए हैं एवं औपनिवेशिक मानसिकता के रोग से ग्रस्त हो गए है। उन्हें विश्वास हो गया है कि पाश्चात्य जीवन-शैली ही सर्वोत्तम है। ऐसा सोच राष्ट्र निर्माण में बाधक है। युवाओं को इस सोच से बाहर निकालना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। हमें भारतीय तथा स्वदेशी उत्पादों के उपयोग के प्रति रुचि विकसित करनी पड़ेगी। अपने सांस्कृतिक इतिहास एवं राष्ट्रनायकों से अनभिज्ञ इस पीढ़ी के संज्ञान में यह विषय जा सके, इस हेतु हमें निरंतर प्रयासरत होना पड़ेगा।

पर्यावरणीय प्रदूषण एवं जलवायु परिवर्तन एक विकराल समस्या बन गया है। इस विषय पर भी समाज में निरंतर चिंतन-मनन होना चाहिए। पर्यावरण संतुलन एवं प्रकृति-केंद्रित सतत विकास भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं। इसलिए पर्यावरण संरक्षण सहित प्रकृति-केंद्रित एवं जलवायु अनुकूल जीवन-शैली तथा प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग जैसे अभियानों में समाज की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। हमें नियमित रूप से वृक्षारोपण, स्वच्छता अभियान, कचरा-निष्पादन, जल, भूमि एवं जैव-विविधता संरक्षण और वायु प्रदूषण रोकने आदि कार्यों को बढ़ावा देना होगा। देश को सशक्त बनाने का एक स्पष्ट मार्ग स्वदेशी और आत्मनिर्भरता है। अंग्रेजों के समय से भारतीय अर्थव्यवस्था जो विदेशों की मुहताज हुई, वह आज भी पूर्णरूपेण उबर नहीं पाई है। हमें अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए स्थानीय उत्पादों का समर्थन करना चाहिए।

आत्मनिर्भरता का तात्पर्य केवल आर्थिक स्वावलंबन तक सीमित नहीं है, वरन् यह रोजगार-सृजन, ग्रामीण विकास, औद्योगिक एवं वैज्ञानिक-तकनीकी प्रगति को भी प्रोत्साहित करता है। हमें लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास करना होगा जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त करेगा और आयात पर निर्भरता घटाएगा। साथ ही यदि हर नागरिक स्थानीय वस्तुओं को प्राथमिकता देगा तो भारतीय उत्पादों की मांग बढ़ेगी, जिससे उद्योगों को गति मिलेगी। आत्मनिर्भर भारत के लिए नवोन्मेषी विचारों और स्टार्टअप्स को बढ़ावा देना जरूरी है, ताकि हम वैश्विक आर्थिक क्षेत्र में अग्रणी बन सकें।

सारांश में हमें ऐसी कार्ययोजना बनानी पड़ेगी जिससे इन पुनीत लक्ष्यों की प्राप्ति हो सके। समस्त भारतवासी यदि पूरी ऊर्जा के साथ इस दृष्टिकोण को अपनाते हैं और इसे जन-भागीदारी का रूप देते हैं, तो भारत अगले कुछ दशकों में एक ऐसे राष्ट्र के रूप में उभरेगा, जो न केवल आर्थिक रूप से समृद्ध होगा, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों का ध्वजवाहक बनकर विश्वबंधुत्व एवं वैश्विक कल्याण को सुनिश्चित करने में सक्षम हो सकेगा। भारतवासियों का यही मूलस्वभाव है। एक जाग्रत राष्ट्र के रूप में हमारी यही प्राथमिकता होनी चाहिए। शुभमस्तु। (कुलपति, पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा)

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