बांग्लादेश का राजनीतिक परिदृश्य इस वर्ष 5 अगस्त को हुए तख्तापलट के बाद पूरी तरह बदल गया है। अल्पसंख्यक हिंदुओं की हत्या कर उनके घरों व व्यापारिक प्रतिष्ठानों में लूटपाट, आगजनी, महिलाओं से बलात्कार हो रहा है। खासतौर से युवा हिंदू और महिलाएं कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं। उन्हें ईशनिंदा के झूठे मुकदमों में फंसा कर प्रताड़ित किया जा रहा है। बच्चों को भी बख्शा नहीं जा रहा है।
नरसंहार का सिलसिला
बांग्लादेश के एक पत्रकार एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता सुदीप्तो (परिवर्तित नाम) ने बताया, ‘‘5 अगस्त, 2024 को शेख हसीना सरकार के पतन के बाद ही हिंदू समुदाय के घरों, व्यवसायों और पूजा स्थलों पर व्यापक हमले शुरू हो गए। ठाकुरगांव में जलकर खंडहर हो चुके घर से सुनीता मंडल की चीखें इस्लामी भीड़ द्वारा विस्थापित अनगिनत हिंदू परिवारों की पीड़ा को प्रतिबिंबित करती हैं। पूर्णिमा भट्टाचार्य के पति, जो पुजारी थे, की उनकी आस्था के कारण नृशंस हत्या कर दी गई, जबकि डॉ. दीपक दास को केवल हिंदू होने के कारण शिक्षक पद से बर्खास्त कर अपमानित किया गया। ये घटनाएं एक ऐसे राष्ट्र की गंभीर तस्वीर पेश करती हैं, जहां अल्पसंख्यकों पर अत्याचार किया जाता है और न्याय उनके लिए दूर की कौड़ी है।’’
बांग्लादेश हिंदू ईसाई-बौद्ध एकता परिषद के आंकड़ों के अनुसार, 4-20 अगस्त, 2024 के बीच अल्पसंख्यकों पर हुए हमलों ने पूरे देश को झकझोर दिया। इसमें 9 हत्या, पूजा स्थलों पर 69 हमले, 4 बलात्कार, घर में लूटपाट और आगजनी के 915 मामले शामिल हैं। हिंदुओं की दुकानों पर 953 हमले किए गए, जबकि मकान पर कब्जे के एक मामले के साथ जमीन कब्जाने के 21 और महिलाओं के यौन शोषण के 38 मामले भी सामने आए। ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं। हालांकि, कुछ हिंदू संगठनों का कहना है कि वास्तविक आंकड़े कहीं अधिक भयावह हैं। उनके अनुसार, 76 हिंदुओं की हत्या हुई, पूजा स्थलों पर 589 हमले, 43 बलात्कार, घर में लूटपाट और आगजनी के 4,080 मामले, जबकि हिंदू व्यवसायों पर 1,064 हमले, 3200 घरों पर कब्जे, और शारीरिक शोषण के मामले 1,000 से अधिक हैं।
दैनिक अखबार द डेली स्टार के अनुसार, तख्तापलट के एक घंटे के भीतर कम से कम 27 जिलों में हिंदुओं के घरों, मंदिरों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर हमले हुए। बांग्लादेश हिंदू बौद्ध ईसाई एकता परिषद की मानें तो सत्ता परिवर्तन के दो दिन के भीतर 29 जिलों में अल्पसंख्यक हिंदुओं के उत्पीड़न की घटनाएं दर्ज की गईं, जो चार दिन में बढ़कर 52 जिलों तक पहुंच गईं। 5-9 अगस्त के बीच 52 जिलों में हजारों हिंदू घरों, व्यवसायों और मंदिरों पर हमले, तोड़फोड़, लूटपाट और आगजनी की गई। हालांकि, सेना प्रमुख जनरल वकार-उज-जमान के अनुसार, 13 अगस्त तक देशभर में अल्पसंख्यकों से जुड़ी हिंसा की 30 घटनाएं दर्ज की गईं। यही नहीं, कट्टरपंथियों ने देश के कई हिस्सों में स्वदेशी समुदायों को भी निशाना बनाया। प्रोथोम एलो अखबार के अनुसार जांच से पता चला कि 5-20 अगस्त के बीच 64 में से 49 जिलों में अल्पसंख्यकों के 1,068 घरों, व्यवसायों और 22 पूजा स्थलों पर हमले हुए, जिसमें दो मौते हुईं।
बढ़ते हमलों के बीच 9 अगस्त को पूरे देश में अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए विरोध प्रदर्शन और आंदोलन शुरू हुए। बांग्लादेश हिंदू बौद्ध-ईसाई एकता परिषद और हिंदू जागरण मंच जैसे संगठनों के नेतृत्व में इस आंदोलन में 8 सूत्री मांगें रखी गईं। इसके बाद 13 अगस्त को अल्पसंख्यक अधिकार आंदोलन, बांग्लादेश हिंदू बौद्ध ईसाई एकता परिषद, बांग्लादेश पूजा उत्सव परिषद, मेट्रोपॉलिटन सर्बोजनिन पूजा समिति, रामकृष्ण मिशन, इस्कॉन, बांग्लादेश के प्रतिनिधि क्रिश्चियन एसोसिएशन, बांग्लादेश बौद्ध महासंघ और स्वदेशी नेताओं की मांगों पर अंतरिम सरकार से आश्वासन के बाद आंदोलन को तीन दिन के लिए रोक दिया गया। लेकिन अल्पसंख्यकों पर कट्टरपंथियों के हमले जारी रहे। तब 19 सितंबर को बांग्लादेश हिंदू बौद्ध ईसाई एकता परिषद ने ढाका में प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित कर कहा कि अंतरिम सरकार ने उनकी मांगों पर कोई स्पष्ट कदम नहीं उठाया है। इसके कारण ढाका विश्वविद्यालय, केंद्रीय शहीद मीनार, चटगांव में लाल दिघी और अन्य स्थानों पर विरोध प्रदर्शन और रैलियां जारी रहीं।
चिन्मय प्रभु पर आरोप
31 अक्तूबर को बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के नेता फिरोज खान ने इस्कॉन के साधु चिन्मय कृष्णदास प्रभु और 19 अन्य पर राष्ट्रीय ध्वज के अपमान का आरोप लगाते हुए देशद्रोह का मामला दर्ज कराया। हालांकि, झंडे के अपमान का आरोप साबित नहीं हुआ। बाद में फिरोज खान को पार्टी से बर्खास्त कर दिया गया। इस घटना के बाद बड़ी संख्या में हिंदू एकजुट होकर सड़कों पर उतरने लगे थे। पर उनका प्रदर्शन शांतिपूर्ण था।
इसी बीच, सोशल मीडिया पर एक वीडिया वायरल हुआ, जिसमें 5 नवंबर की रात को सेना चटगांव के हजारी गली इलाके में हिंदुओं पर हमला करती और सीसीटीवी कैमरे नष्ट करती दिख रही थी। हालांकि, मीडिया ने उसे ‘आॉपरेशन’ बताया, लेकिन सीसीटीवी कैमरे तोड़ने को लेकर कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया। 22 नवंबर को ‘बांग्लादेश सोमिलिटो सनातनी, जगरोन जोत’ की रंगपुर के जिला स्कूल मैदान में एक संभागीय सभा होनी थी, लेकिन शासन की मंजूरी नहीं मिलने पर सभा माहीगंज डिग्री कॉलेज में आयोजित की गई। इसमें मांगें पूरी होने तक आंदोलन जारी रखने का ऐलान किया गया। जब कुरीग्राम के विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए लोगों को बसों से ले जाया जा रहा था, तब कट्टरपंथियों ने बसों पर हमला कर दिया।
इसमें लगभग 30 लोग घायल हो गए। 25 नवंबर को पुलिस ने जब चिन्मय प्रभु को ढाका हवाईअड्डे से गिरफ्तार किया तो हालात बिगड़ गए। अगले दिन चटगांव में पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प हुई, जिसमें एक वकील की मौत हो गई। इसके लिए भी कई मीडिया समूहों ने हिंदुओं को ही दोषी ठहराया, जबकि इसके कोई सबूत नहीं थे।
हिंदू नेताओं का कहना है कि उनका विरोध अहिंसक था। लेकिन घुसपैठियों ने उनके आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की। गठबंधन के एक प्रतिनिधि सुमन रॉय ने बताया कि चटगांव में वकील पर कट्टरपंथियों ने उसके हिंदू होने के संदेह पर हमला किया था, जिससे अन्य हिंदू वकीलों की जान भी खतरे में पड़ गई। इसी के बाद चिन्मय प्रभु के कानूनी रक्षकों के खिलाफ हत्या के मामले दर्ज किए गए और उनके कार्यालयों में तोड़फोड़ की गई।
मजहबी कट्टरता
हिंदुओं के विरुद्ध मजहबी कट्रता तो पहले से ही उजागर थी। लेकिन चटगांव के अदालत कक्ष में चिन्मय प्रभु के एकमात्र हिंदू वकील रमन रॉय पर हमला और उनके चैंबर में तोड़फोड़ से यह भी साबित हो गया कि हिंदू कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। 26 नवंबर को अदालत की कार्यवाही के दौरान मुस्लिम वकीलों ने भी रॉय को चुप कराने की कोशिश की, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अदालत में चिन्मय प्रभु अपना पक्ष न रख सकें।
ढाका उच्च न्यायालय के वकील बिपिन चंद्र पाल (परिवर्तित नाम) कहते हैं, ‘‘अदालत कक्ष में जो हुआ, वह हिंदू पेशेवरों के खिलाफ मुस्लिमों के बढ़ते पूर्वाग्रह और उनके अधिकारों के प्रणालीगत क्षरण को रेखांकित करता है। इस पर अधिकारियों की चुप्पी ने न्यायिक प्रणाली में अल्पसंख्यक समुदाय के अविश्वास को और गहरा कर दिया है। अंतरिम सरकार के पहले के दावों के बावजूद कि न्यायपालिका निष्पक्ष रूप से अपराध और सजा का फैसला करेगी, जब कट्टरपंथियों ने चिन्मय प्रभु के लिए न्याय में बाधा डाली तो राज्य चुप रहा। अब इस मामले में उच्च न्यायालय के शामिल होने से सरकार पर इन मुद्दों को निर्णायक रूप से संबोधित करने का दबाव है। जैसे-जैसे देश इन घटनाओं को सामने आता देख रहा है, एकता और न्याय की मांग तेज होती जा रही है।’’
वैसे देश में कानून की स्थिति क्या है, इसका अनुमान लामा नगरपालिका में 23 नवंबर को हुई घटना से लगाया जा सकता है। ‘तालाब खुदाई’ परियोजना के बहाने पत्रकार बिप्लब दास सहित कई हिंदुओं के घर ध्वस्त कर दिए गए। यह तोड़फोड़ बिना किसी कानूनी नोटिस, मुआवजे या पुनर्वास योजना के की गई। यह प्रशासनिक विफलता से कहीं अधिक पांथिक भेदभाव था, जिसमें हिंदू परिवारों को निशाना बनाया गया। अधिकारियों ने पीड़ित पक्ष की हस्तक्षेप की गुहार को अनसुना कर दिया, जो स्पष्ट रूप से अल्पसंख्यक अधिकारों के प्रति संस्थागत उदासीनता को दर्शाता है।
26 नवंबर तक हिंदुओं की दुर्दशा और बढ़ गई, जब चिन्मय प्रभु की रिहाई के लिए खुलना में हिंदुओं की शांतिपूर्ण रैली पर उन्मादी कट्टरपंथियों ने पत्थरों और लाठियों से हमला किया। इस हमले ने हिंदुओं को पूरी तरह से तोड़ दिया, क्योंकि अल्पसंख्यकों की शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति को भी डरा-धमका कर दबाया गया। धार्मिक स्थलों पर तो लगातार हमले हो ही रहे हैं। कट्टरपंथियों ने उसी दिन चटगांव के फिरंगी बाजार में लोकनाथ आश्रम को तोड़कर खंडहर बना दिया। यह हमला हिंदू समुदाय के आध्यात्मिक हृदयस्थल पर किया गया।
न्यूयॉर्क से बांग्लादेशी कार्यकर्ता सितांगशु गुहा ने कहा, ‘‘बांग्लादेश में 53 वर्ष से किसी भी सरकार ने पांथिक अल्पसंख्यकों के जीवन और सम्मान की रक्षा के लिए सार्थक कार्रवाई नहीं की है। किसी भी सरकार ने कभी भी इस्लामी उग्रवाद के प्रति सहानुभूति रखने वाली संस्थाओं पर अंकुश लगाने की कोशिश नहीं की है।’’
निशाने पर मंदिर
5 अगस्त के बाद हिंदू धार्मिक स्थलों और प्रतीकों पर भी हमले बढ़े हैं।ये घटनाएं देश में बढ़ती असहिष्णुता, हिंदू अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को खत्म करने के सोचे-समझे प्रयास की एक गंभीर तस्वीर पेश करती हैं। पेट्रोल बम फेंकने से लेकर पवित्र स्थलों को अपवित्र करने और बहुमूल्य धार्मिक कलाकृतियों की चोरी तक, प्रत्येक हमले से लंबे समय से हाशिए पर रह रहे हिंदू समुदाय के अधिकारों के प्रति शत्रुता और उपेक्षा का एक गहरा, प्रणालीगत पैटर्न दिखता है।
11 अक्तूबर को ढाका के व्यस्त इलाके में तांती बाजार पूजा समिति के पंडाल पर हमला हुआ। दुर्गापूजा की तैयारियों के दौरान दो हमलावरों ने पंडाल में पेट्रोल बम फेंका, जिसमें चार श्रद्धालु और एक अन्य व्यक्ति घायल हो गया। हालांकि, हमलावरों को तत्काल पकड़ लिया गया, लेकिन हिंदुओं में इसका खौफ लंबे समय तक बना रहा। हिंसा यहीं नहीं रुकी। अगले दिन यानी 12 अक्तूबर को कट्टरपंथियों ने मोल्लाहाट उपजिला में चंद्रहाटी मंदिर पर हमला कर उसे क्षतिग्रस्त कर दिया और मूर्तियों व कलाकृतियों को भी नष्ट कर दिया।
इन हमलों की प्रतिक्रिया में सनातनी संघ के सौ से अधिक युवा मंदिर की सुरक्षा और उपद्रवियों पर कार्रवाई की मांग को लेकर एकत्र हुए। इससे पूर्व 10 अक्तूबर को सतखिरा जिले के श्यामनगर मंदिर से एक बहुमूल्य कलाकृति की चोरी ने भयावहता को और बढ़ा दिया। देवी जॉयश्री का सोने का मुकुट, जिसका वजन 11.6 किलो और कीमत एक करोड़ बांग्लादेशी टका से अधिक थी, चोरी हो गया। यह मुकुट भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उपहार स्वरूप दिया था। लेकिन ऐसे मामलों में भी अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होने से हिंदुओं का चिंतित होना स्वाभाविक है।
पाबना जिले के पालपारा दुर्गा मंदिर पर तो जिहादियों ने आधी रात को हमला किया, जब महालया शुरू ही हुआ था। इस्लामी कट्टरपंथियों ने मंदिर में तोड़-फोड़ की। यह घटना हिंसा के अन्य मामलों से अलग थी, क्योंकि यह पहले से ही डरे हुए अल्पसंख्यकों की आस्था और संस्कृति को नष्ट करने का एक प्रयास था। इसके बाद हुए हमलों में हिंसा का पैटर्न स्पष्ट था। 2 अक्तूबर को रंगपुर सदर के लाहिरिरहाट और सुतेर पारा क्षेत्रों में मूर्तियों को खंडित किया गया। फिर अगले दिन कट्टरपंथियों ने बत्रिश इलाके में श्रीश्री गोपीनाथ मंदिर को निशाना बनाया। लेकिन डरे हुए हिंदुओं को कोई राहत नहीं मिली।
गत 28 और 29 नवंबर को चटगांव में बर्बरता की दो बड़ी घटनाएं हुईं। पाथरघाटा में हमलावरों ने शांतनवेश्वरी मंदिर और आसपास की दुकानों को नुकसान पहुंचाया, जबकि पाटिया में इस्कॉन मंदिर की सुरक्षा में कमी का फायदा उठाकर जिहादियों ने परिसर में तोड़फोड़ और सीसीटीवी कैमरों से छेड़छाड़ की। इन समन्वित हमलों ने पांथिक अल्पसंख्यकों की चिंता को और बढ़ा दिया है। 29 नवंबर को पाथरघाटा में ही एक मंदिर और किशोरगंज के भैरब में इस्कॉन द्वारा संचालित सुविधाओं पर हमला हुआ।
ईशनिंदा कानून बना हथियार
बांग्लादेश के अस्थिर सामाजिक-राजनीतिक माहौल में गलत सूचना की छोटी सी चिंगारी सांप्रदायिक कलह को जंगल की आग की तरह भड़का सकती है, यह भी साबित हो गया है। दरअसल, हिंदुओं को हाशिए पर धकेलने के लिए कट्टरपंथी हर तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। इसमें ईशनिंदा कानून भी एक शक्तिशाली हथियार है। कट्टरपंथी ईशनिंदा के झूठे आरोप लगाकर हिंदुओं का उत्पीड़न कर रहे हैं। हाल की कुछ घटनाएं इसका प्रमाण हैं कि कैसे ईशनिंदा के आरोपों और उत्तेजक आख्यानों को हथियार बनाकर व्यक्तियों और समुदायों को हाशिए पर धकेला जाता है।
27 अक्तूबर को धनरपुर गांव में मदरसे के छात्रों ने 13 वर्षीय हिंदू हृदय पाल पर ईशनिंदा का आरोप लगाया। इसके बाद कट्टरपंथियों की भीड़ ने उसके परिवार को धमकाया। पीड़ित परिवार द्वारा बार-बार बुलाने के बावजूद पुलिस न तो आई और न ही कार्रवाई की। 28 अक्तूबर को फरीदपुर के बोआलमारी में ईशनिंदा के झूठे आरोप में जब फौज ने उसे हिरासत में लिया, तब कट्टरपंथियों की भीड़ ने फौज को ही घेर लिया और बच्चे को सौंपने के लिए दबाव बनाया।
दरअसल, सोशल मीडिया पर पाल की एक पुरानी फेसबुक पोस्ट को वायरल किया गया। पाल कहता रहा कि उसका फेसबुक अकाउंट हैक हो गया था। सबूत भी यही बताते हैं कि कई माह से उसने मोबाइल का इस्तेमाल नहीं किया था। फिर भी मुसलमानों को उकसाया गया, खासकर कादिरदी डिग्री कॉलेज में मुस्लिम छात्र उसके खिलाफ हो गए जहां उसने दाखिला लिया था। न्याय की मांग करते हुए उसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किए गए। उसके परिवार को धमकी दी जाने लगी। लेकिन प्रशासनिक स्तर पर कोई पहल नहीं हुई। तब कॉलेज के प्रिंसिपल जरुज्जकमान मोल्ला ने पाल को अपने कार्यालय में रखा और उन्मादी भीड़ से बचाया। इसके बाद सैन्य अधिकारियों ने हस्तक्षेप किया।
इसी तरह, 15 अक्तूबर को शिक्षक सुकुमार बागची पर ईशनिंदा का झूठा आरोप लगाया गया। मुसलमानों के बीच यह अफवाह फैलाई गई कि उन्होंने इस्लाम का अपमान किया है। उन्हें और उनके परिवार को धमकी दी गई। हालांकि, ईशनिंदा का कोई प्रमाण नहीं था, फिर भी उन्हें इस्तीफा देने के लिए विवश किया गया। नौकरी गंवाने के बाद भी उनकी जान पर खतरा बना हुआ है।
चटगांव के एक छात्र भास्कर भट्टाचार्य (परिवर्तित नाम) ने बताया कि 31 अक्तूबर को जब चिन्मय प्रभु के खिलाफ देशद्रोह का झूठा मामला दर्ज किया गया था, तब हमने एक रैली में शामिल होने का निर्णय लिया था। लेकिन बीएनपी छात्र दल, जमात-ए-इस्लाम की छात्र इकाई छात्र शिबिर, पुलिस और गुप्तचर एजेंसियां हिंदुओं, विशेषकर युवाओं पर नजर रखे हुए थीं और फोन भी टैप किए जा रहे थे। ऐसी स्थिति में हम अकेले या समूह में कहीं जा नहीं सकते थे। अगर अकेले निकलते तो हम पर हमले होते और समूह में होते तो हम पर निगाह रखी जाती।
भास्कर भट्टाचार्य ने आगे कहा कि एक-एक मंदिर पर निगाह रखी जा रही है। हमारे लिए तो हालात 26 जनवरी के बाद से ही हर घड़ी बद से बदतर होते चले गए थे। हर लम्हा हमें एक नए डरावने पल की ओर ले जा रहा है। विशेष तौर पर साधु, हिंदू युवा और विवाहित हिंदू महिलाएं निशाने पर हैं।
राजनीतिक दलों की छात्र इकाइयां पहले से कहीं अधिक आक्रामक रूप से सक्रिय हैं। ये लोग उन हिंदू युवाओं की सूची बना रहे हैं, जिन पर जरा भी संदेह है। यहां नफरत का आलम यह है कि हमारे मुस्लिम साथी हमें कुछ बोलने के लिए उकसाते हैं और जब हम कुछ बोलते हैं तो वे आॉफलाइन या आॉनलाइन, दोनों तरह से उसे ईशनिंदा का मुद्दा बना देते हैं। हालात इतने संवेदनशील हैं कि हम हर समय डर के साये में रहते हैं कि अगले पल न जाने क्या हो जाए।
यह केवल भास्कर भट्टाचार्य का डर नहीं है। हृदयपाल के साथ फौज का कठोर व्यवहार और कट्टरपंथियों की धमकी दर्शाती है कि बांग्लादेश में हिंदू युवा किन परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं। स्कूलों को अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया गया है और हिंदू युवाओं के परिवारों पर खतरा मंडरा रहा है।
ये घटनाएं एक खतरनाक प्रवृत्ति को उजागर करती हैं, जहां अल्पसंख्यकों को डरा-धमका कर चुप कराने के साथ आतंकित करने के लिए उन्हें हिंसा का शिकार बनाया जाता है, झूठे आरोप मढ़े जाते हैं, जिससे अल्पसंख्यक खुद को असुरक्षित व असहाय मानकर अलग-थलग पड़ जाते हैं। कुल मिलाकर अल्पसंख्यकों को ऐसे हथकंडे अपना कर विस्थापित होने के लिए विवश किया जाता है। ऐसे मामलों में अक्सर कोई कार्रवाई नहीं की जाती।
सोशल मीडिया का दुरुपयोग
इस्लामी कट्टरपंथी सोशल मीडिया का उपयोग घातक हथियार के रूप में कर रह हैं। इसके जरिए वे अफवाहें फैलाकर मुसलमानों को हिंदुओं पर हमले के लिए उकसाते हैं। 9 अक्तूबर को एक सत्यापित सोशल मीडिया वाले एक प्रमुख व्यक्ति उजैर इब्न तालिब की एक पोस्ट ने बांग्लादेश के कमजोर सद्भाव को तहस-नहस कर दिया। अपने पोस्ट में उजैर ने उकसाने वाला सवाल पूछा, ‘‘राक्षस को हरी त्वचा के साथ क्यों दर्शाया गया है?’’ उसने यह कहते हुए मजहबी विरोध की आग को और भड़काया कि हरा रंग, जो इस्लाम में गहरा मजहबी महत्व रखता है, राक्षसों का प्रतीक है।
दरअसल, हरा रंग इस्लाम से जुड़ा है और मुस्लिम बहुल देशों के झंडों और मजहबी प्रतीकों में इसका प्रमुखता से इस्तेमाल होता है। इसी की आड़ में उजैर ने दो समुदायों के बीच आग लगाई। फिर भी उसके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की गई, जबकि उसने व्यक्तिगत या राजनीतिक लाभ के लिए मजहबी प्रतीक को हथियार बनाना जारी रखा और अपने समुदाय के लोगों को उकसाया। उजैर जैसे प्रभावशाली व्यक्ति के लिए जवाबदेही का अभाव उन दोहरे मानकों को रेखांकित करता है, जिनका अल्पसंख्यकों को सामना करना पड़ता है। इससे ऐसे माहौल को बढ़ावा मिलता है, जहां उनकी सांस्कृतिक और पांथिक पहचान खतरे में है।
महिलाएं-बच्चे निशाने पर
इसी तरह, बांग्लादेश में हिंदू महिलाओं और बच्चों के खिलाफ हिंसा का एक गंभीर और व्यवस्थित पैटर्न सामने आया है, जो उत्पीड़न, शोषण और संस्थागत उदासीनता की वास्तविकता को उजागर करता है। बोगुरा की 15 वर्षीया रूपा और सीमा तकदार जैसी लड़कियां इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। वे अचानक गायब नहीं हुईं, बल्कि हिंदू अल्पसंख्यकों को डराने और अस्थिर करने के लिए बनाई गई सोची-समझी रणनीति के तहत उन्हें गायब किया गया। पुरोनिता पाल को धार्मिक अनुष्ठान के दौरान 20-25 मुस्लिम लड़कों ने अगवा कर उसका जबरन कन्वर्जन कराया और नाम बदलकर जन्नतुल फिरदौस कर दिया। यह एक व्यक्तिगत त्रासदी से कहीं अधिक सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान पर एक सुविचारित हमला है।
इस हिंसा के तंत्र जटिल और बहुआयामी हैं। इसमें कन्वर्जन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। दूसरी ओर यौन हिंसा इसका एक प्रमुख हथियार है। पाइकगाचा में भारती से 6 लोगों ने उसके बच्चे को जान से मारने की धमकी देकर सामूहिक बलात्कार किया। इसी तरह, जेसोर में सविता रानी की हत्या भी इस लक्षित क्रूरता को उजागर करती है। ये महज अपराध नहीं हैं, बल्कि भय और समर्पण पैदा करने के लिए तैयार की गई आतंक की सोची-समझी रणनीतियां हैं। दुर्गा पूजा के दौरान सांता सरकार का रहस्यमय ढंग से गायब होना, जिसमें स्थानीय पुलिस ने बहुत कम दिलचस्पी दिखाई, इस संस्थागत उपेक्षा का उदाहरण है।
अक्सर संगठित नेटवर्क के जरिए युवा लड़कियों का व्यवस्थित रूप से अपहरण, कन्वर्जन और यौन शोषण किया जाता है, जिसे कानून का कोई डर नहीं है। सामाजिक बुनियादी ढांचा, कानूनी प्रणालियां, स्थानीय प्रशासन और सामुदायिक संरचनाएं उनकी निष्क्रियता के कारण उलझी हुई लगती हैं। अपराधियों का लक्ष्य युवा महिलाओं को निशाना बनाकर पारिवारिक और सामुदायिक संरचनाओं को कमजोर करना, सांस्कृतिक निरंतरता और धार्मिक पहचान नष्ट करना है। रूपा, पुरोनिता, भारती, सीमा, संता और सविता के मामले केवल व्यक्तिग त्रासदीयां नहीं हैं। वे प्रणालीगत हस्तक्षेप, कानूनी जवाबदेही और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए सामाजिक सुरक्षा की मौलिक पुनर्कल्पना के लिए तत्काल आह्वान हैं।
बांग्लादेश की हिंदू महिला कार्यकर्ता उषा मंडल (परिवर्तित नाम) कहती हैं, ‘‘कट्टरपंथी मुसलमान हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार करते हैं, पूजा स्थलों और घरों को जलाते हैं। लेकिन यूनुस सरकार हिंदुओं की मदद करने के बजाए आतंकवादियों और कट्टरपंथी मुसलमानों को संरक्षण दे रही है। मुसलमानों ने सशस्त्र बलों की मदद से दूरदराज के इलाकों में हिंदू घरों पर हमला किया और लूटपाट की। लेकिन सरकार और मीडिया इसे छुपाने की कोशिश कर रहे हैं। हिंदुओं को झूठे मामलों में फंसाया जा रहा है, हिंदू शिक्षकों को स्कूलों और कॉलेजों से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया जा रहा है। इस देश में हिंदू हमेशा से मुस्लिम बहुसंख्यकों द्वारा प्रताड़ित होते रहे हैं, यहां हिंदुओं को इंसान नहीं माना जाता है।’’
ऐसा नहीं है कि केवल नवयुवक और महिलाएं ही कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं। कुछ रिपोर्टों में कहा गया है कि एक ब्रांड के तहत बेचे जाने वाले केक, जो बच्चों में लोकप्रिय है, को एक भयानक षड्यंत्र से जोड़ा गया है। केक में एक गोली छिपाई जा रही है, जिससे बच्चों को पक्षाघात हो सकता है। ये केक हिंदु बहुल इलाकों में बच्चों को अपंग बनाने की साजिश के तहत बेचे जा रहे हैं। चिकित्सकों के अनुसार केक के भीतर रखी गई गोलियां एक हानिकारक पदार्थ छोड़ती हैं, जो तंत्रिका तंत्र को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचा सकती हैं। अक्सर बच्चे बिना सोचे-समझे केक खा लेते हैं। जब तक माता-पिता को पता चलता है कि क्या हुआ है, तब तक क्षति अपरिवर्तनीय हो सकती है।
समुदाय के नेताओं ने इस पर आक्रोश और चिंता व्यक्त की है। एक नेता ने कहा, ‘‘यह सिर्फ हमारे बच्चों पर हमला नहीं है, बल्कि हमारे भविष्य पर हमला है।’’ इस हानिकारक केक की बिक्री न केवल व्यक्तिगत परिवारों, बल्कि हिंदू समुदाय के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को कमजोर करने की सोची-समझी साजिश है। लिहाजा, माता-पिता बच्चों के प्रत्येक व्यवहार और मिठाई का निरीक्षण कर रहे हैं। साथ ही, अपने आस-पड़ोस के लोगों को सजग भी कर रहे हैं। धार्मिक नेता और स्थानीय संगठन इसके बारे में जागरूकता फैलाने के अभियान चला रहे हैं।
आर्थिक-सामाजिक बहिष्कार
दूसरी ओर, आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार भी ऐसा शक्तिशाली हथियार है, जो पांथिक अल्पसंख्यकों को हाशिए पर धकेलता है। बांग्लादेश में हिंदू समुदाय पहले से ही पांथिक असहिष्णुता की चुनौतियों से जूझ रहा है, ऊपर से लक्षित आर्थिक उत्पीड़न में चिंताजनक वृद्धि कोढ़ में खाज की तरह है। हाल के दिनों में चोरी, भूमि कब्जा, संपत्ति विनाश और जबरन वसूली जैसी घटनाएं आर्थिक रूप से हिंदुओं को हाथिए पर धकेलने वाले पैटर्न को दर्शाती हैं। ये न केवल उनके प्रति बढ़ती शत्रुता को रेखांकित करते हैं, बल्कि संस्थागत खामियों को भी उजागर करती हैं, जिसके कारण हिंदू परिवार संकट में हैं।
सिराजगंज में चोरी और जहर देने की घटना यह दर्शाती है कि हिंदू परिवारों को अस्थिर करने के लिए अपराधी किस हद तक जा सकते हैं। 2 नवंबर की रात गरदाहा पालपारा गांव में पांच हिंदू परिवारों के घरों पर सुनियोजित डाका पड़ा। चोरों ने पहले ही गांव के ट्यूबवेल में जहर घोल दिया था, जिससे हिंदू परिवार बेसुध हो गए थे। अगली सुबह जब वे उन्हें होश आया तो देखा कि उनके घरों में तोड़फोड़ के साथ 10 लाख रुपये का सामान चोरी हो चुका था।
यह चोरी केवल पैसे और कीमती सामान के लिए नहीं की गई थी, बल्कि ऐसा करके हिंदू परिवारों को यह स्पष्ट संदेश दिया गया कि वे सुरक्षित नहीं हैं। इसके बाद से ग्रामीण पानी तक पीने से डरने लगे। उधर, कॉक्स बाजार में धर परिवार को भूमि पर कब्जा करने वालों के खिलाफ एक मुश्किल लड़ाई लड़नी पड़ी। इस परिवार का दो दशक से भी अधिक समय तक जमीन पर कब्जा था और इसके कानूनी कागजात भी उसके पास थे। फिर भी अपराधियों ने परिवार को उनकी ही जमीन पर रहने देने के लिए पैसे मांगे। जब परिवार ने इनकार कर दिया, तो अपराधियों ने चारदीवारी तोड़ दी। इस घटना के कई महीने बीतने के बावजूद धर परिवार दहशत में है।
इसी तरह, 1 नवंबर को राजबाड़ी में रातोंरात किसान मितिन बिस्वास के 500 केले के पेड़ काट दिए गए, जिससे उन्हें 5 लाख का नुकसान हुआ। तोड़फोड़ की ऐसी कार्रवाई दोहरे उद्देश्य को पूरा करती हैं। भले ही ऊपरी तौर पर यह संपत्ति के नुकसान के रूप में दिखे, लेकिन परोक्ष रूप से यह हिंदुओं को विस्थापित करने और जमीन कब्जाने की एक रणनीति होती है। धर परिवार की तरह मितिन बिस्वास भी अपने भविष्य को लेकर अनिश्चित और प्रशासनिक उपेक्षा के शिकार हैं। उनके मामले में भी स्थानीय अधिकारियों ने कोई रुचि नहीं ली। ये घटनाएं भूमि विवादों की व्यापक दास्तान को प्रतिबिंबित करती हैं, जहां हिंदू भू-स्वामियों से व्यवस्थित रूप से उनकी आजीविका छीन ली जाती है।
आर्थिक उत्पीड़न चोरी और जमीन कब्जे तक नहीं थमा है। ठाकुरगांव के एक हिंदू व्यापारी उत्तम रॉय को 5 अक्तूबर को जबरन वसूली की धमकी मिली। पत्र लिखकर उनसे 6 लाख रुपये की मांग की गई और इनकार करने पर उनके बेटे के 100 टुकड़े करने की धमकी दी गई। उनकी बेटी को भी नुकसान पहुंचाने की धमकी दी गई थी। इस कारण से पूरा परिवार दहशत में था। यह घटना हिंदुओं के खिलाफ लक्षित आर्थिक हिंसा की कठोर वास्तविकता को उजागर करती है। इस तरह की जबरन वसूली केवल पैसे के लिए नहीं की जाती, बल्कि अल्पसंख्यक परिवारों को आतंकित करने और स्थानीय अर्थव्यवस्था में भाग लेने से रोकने का काम काम करती है। हिंदू व्यापारियों के खिलाफ ऐसे मामले बहुत बढ़े हैं।
कानून की विफलता
बांग्लादेश में 2024 के अंत में बढ़ती हिंसा, संस्थागत अन्याय और पांथिक अल्पसंख्यकों, विशेषकर हिंदू समुदाय को हाशिए पर धकेलने के साथ कानूनी विफलता को भी उजागर करते हैं, जिससे देश में भय और असुरक्षा का माहौल व्याप्त हो गया है। इसका ज्वलंत उदाहरण 26 नवंबर को हुई चटगांव की घटना है, जब सनातनी हिंदुओं का शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन राज्य प्रायोजित हिंसा की भेंट चढ़ गया। प्रदर्शनकारी चिन्मय प्रभु की रिहाई की मांग को लेकर एकत्र हुए थे। लेकिन उनसे बात करने या उनकी शिकायतों को दूर करने के बजाय अधिकारियों ने असंगत बल के साथ जवाब दिया। पुलिस और सैन्यकर्मियों ने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ ध्वनि बम (साउंड ग्रेनेड) का प्रयोग किया और लाठीचार्ज किया। इस बल प्रयोग में खासकर महिलाओं को न केवल शारीरिक हिंसा, बल्कि अधिकारियों से मौखिक दुर्व्यवहार का भी सामना करना पड़ा।
यह घटना भी पांथिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों को कमजोर करने में राज्य की मिलीभगत के व्यापक पैटर्न का हिस्सा है। चटगांव की कार्रवाई से कुछ ही दिन पहले एक और चिंताजनक घटना ने हिंदू समुदाय को सदमे में डाल दिया था। बंदरबन में रैपिड एक्शन बटालियन के आॅपरेशन में गिरफ्तार किए जाने के बाद प्रतिबंधित अंसारुल्लाह बांग्ला टीम के 32 आतंकवादियों को जमानत दे दी गई। अपनी कट्टरपंथी विचारधारा और हिंसक गतिविधियों के लिए कुख्यात आतंकियों ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा पैदा कर दिया था। फिर भी उनकी रिहाई उन तत्वों के प्रति परेशान करने वाली उदारता का संकेत देती है, जो खुले तौर पर राष्ट्र की सुरक्षा और एकजुटता को कमजोर करते हैं।
दरअसल विरोध प्रदर्शनों का हिंसक दमन, आतंकियों की रिहाई, जबरन वसूली और संपत्ति विनाश के प्रति उदासीनता न्याय को बनाए रखने में प्रणालीगत विफलता का संकेत है। जब आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा असुरक्षित और लक्षित महसूस करता है, तो न्यायपूर्ण और न्यायसंगत समाज का वादा दूर का सपना बन जाता है।
संस्थानों में पांथिक भेदभाव
बांग्लादेश में पांथिक भेदभाव लंबे समय से एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। शैक्षणिक संस्थानों में पूर्वाग्रह की घटनाओं के साथ-साथ हिंदू शिक्षकों और उप-निरीक्षकों (एसआई) को निशाना बनाकर उनसे जबरन इस्तीफे और निलंबन की हालिया घटनाएं प्रणालीगत असमानता की परेशान करने वाली तस्वीर पेश करती हैं। हाल के महीनों में बड़ी संख्या में हिंदू शिक्षकों को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया है। इनमें काजी नजरुल इस्लाम विश्वविद्यालय के कुलपति सौमित्र शेखर और बीयूईटी के कुलपति डॉ. सत्य प्रसाद मजूमदार जैसी हस्तियों के अलावा साथिया पायलट मॉडल स्कूल के प्रिंसिपल डॉ. विजय कुमार देबनाथ और अनवर खान मॉडर्न नर्सिंग कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ. तापसी भट्टाचार्य जैसे लोग शामिल हैं। यही नहीं, पुलिस विभाग में भी कई हिंदू उप-निरीक्षकों को इसी तरह की बर्खास्त कर दिया गया है। सुशांत रॉय और रिपन मंडल सहित सौ से अधिक लोग इसके भुक्तभोगी हैं।
इसी तरह, शैक्षणिक संस्थानों में अल्पसंख्यक छात्रों के साथ भी भेदभाव होता है। चटगांव मेडिकल कॉलेज (सीएमसी) में कई हिंदू छात्रों को कथित राजनीतिक संबद्धता के कारण निष्कासित कर दिया गया। प्रशासन ने भी इन कार्रवाइयों को आवश्यक बताया। वहीं, आलोचकों का कहना है कि निष्कासन राजनीति से इतर असहमति को दबाने और हिंदू आवाजों को हाशिए पर धकेलने का एक प्रयास था। दूसरी ओर, सिलहट में कनाई घाट सरकारी कॉलेज में मुस्लिम छात्रों की तुलना में हिंदू छात्रों से अधिक प्रवेश शुल्क की मांग की गई। हालांकि, तीव्र विरोध के कारण नीति में संशोधन करना पड़ा।
इसी तरह, चेओरिया, तुलाबरिया और कालीदह के बाढ़ प्रभावित हिंदुओं को उनके हाल पर छोड़ दिया गया, जो पहले से ही कट्टपंथियों के हमलों का सामना कर रहे थे। नोआखली और बारिसाल के गांव अलग-थलग और उपेक्षित रहे। एक हिंदू ने दुखी मन से कहा, ‘‘हमें राहत सामग्री देने कोई नहीं आया।’’ बाढ़ प्रभावित इलाकों में कई हफ्तों तक हिंदू मदद की आस लगाए बैठे रहे। आस-पास के इलाकों से गुजरने वाले राहत ट्रक इन गांवों की सीमा तक पहुंचते ही गायब हो जाते हैं।
कुल मिलाकर इन घटनाओं के बहुत गहरे निहितार्थ हैं। इसलिए बांग्लादेश में हिंदुओं पर लगातार हो रहे हमलों को केवल शारीरिक क्षति या संपत्ति के नुकसान की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि यह उनकी पहचान, आस्था और अस्तित्व पर हमला है। न्यायपालिका, कानून प्रवर्तन और शासन-प्रशासन की चुप्पी, निष्क्रियता या मौन स्वीकृति से पता चलता है कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर जो अत्याचार हो रहा है, वह इनकी मिलीभगत का परिणाम है। बांग्लादेश में बढ़ते मजहबी आतंक के ज्वार को नियंत्रित नहीं किया गया तो वहां हिंदुओं के लिए एक पल भी रहना मुश्किल हो जाएगा।
‘बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार तत्काल बंद हों’
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ हो रहे अत्याचारों की निंदा की है। गत 30 नवंबर को संघ के सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा है कि बांग्लादेश में हिंदुओं तथा अन्य सभी अल्पसंख्यकों पर इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा हमले, हत्या, लूट, आगजनी तथा महिलाओं पर हो रहे अमानवीय अत्याचार अत्यंत चिंताजनक हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इन घटनाओं की भर्त्सना करता है।
वर्तमान की बांग्लादेश सरकार तथा अन्य एजेंसियां इन्हें रोकने की जगह केवल मूकदर्शक बनी हुई हैं। विवशतावश बांग्लादेश के हिंदुओं द्वारा स्वरक्षण हेतु लोकतांत्रिक पद्धति से उठाई गई आवाज को दबाने के लिए उन्हीं पर अन्याय व अत्याचार का नया दौर उभरता दिख रहा है। ऐसे ही शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में हिंदुओं का नेतृत्व कर रहे इस्कॉन के संन्यासी चिन्मय कृष्णदास को बांग्लादेश सरकार द्वारा कारावास भेजना अन्यायपूर्ण है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बांग्लादेश सरकार से यह आवाहन करता है कि वह यह सुनिश्चित करे कि बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार तत्काल बंद हों तथा श्री चिन्मय कृष्णदास को कारावास से मुक्त करें। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत सरकार से भी यह आवाहन करता है कि वह बांग्लादेश में हिंदुओं तथा अन्य सभी अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों को रोकने के प्रयासों को हरसंभव जारी रखे तथा इसके समर्थन में वैश्विक अभिमत बनाने हेतु यथाशीघ्र आवश्यक कदम उठाए।
इस महत्वपूर्ण समय में भारत तथा वैश्विक समुदाय एवं अन्य संस्थाओं को बांग्लादेश के पीड़ितों के साथ खड़े होकर अपना समर्थन प्रकट करना चाहिए तथा अपनी-अपनी सरकारों से इस हेतु हरसंभव प्रयासों की मांग करना विश्व शांति एवं भाईचारे हेतु आवश्यक है।
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