बढ़ते शहरीकरण के कारण बदलते पारिवारिक समीकरण आज हमारे समाज को कहां से कहां ले आए हैं! एक वक्त था जब ‘बड़े परिवार’ या ‘संयुक्त परिवार’ ही दिखाई देते थे। समाज में बड़े परिवारों के सुरक्षा कवच तले सब बढ़िया चलता था। बालक कब बड़े होकर सयाने हो जाते थे, पता ही नहीं चलता था। घर में बुजुर्ग माता-पिता की स्नेहमयी छाया में कई भाई, कई भाभियां, कई बहनें, कई बहनोई, कई भतीजे, कई भतीजियां, कई मामा, कई मामियां, कई भानजे, कई भानजियां, मौसा, मौसियां, फूफा, बुआएं, साले, सालियां, ननद-बहनोईं, भतीज बहुएं….हुआ करती थीं। रसोई एक, चूल्हा एक, भोजन एक व जल का कुंभ एक, बर्तन एक, भात एक, दाल एक, साग एक, हलवा और रायता एक…!
लेकिन आज क्या स्थिति है? प्रचलित तर्क यह है कि नौकरी-पेशों की विविधता और नियुक्तियों की वजह से परिवार बिखरने को मजबूर हुए। गांव खाली हैं, घर में बचे हैं तो बस उम्रदराज बुजुर्ग, जो अपने छोटे-मोटे खेतों पर बंटाई मजदूरों की चौकसी भर कर रहे हैं या सफर नहीं कर सकते इसलिए गांव का घर ‘संभाले’ हैं। अब पापा-मम्मी और शायद एक ही बेटा या बेटी वाले परिवार रह गए हैं शहरों में। पड़ोस के नाम पर बचा है तो बस, अपार्टमेंट के सामने वाले घर का ताला बंद दरवाजा। उसमें कौन रहता है, कितने बालक हैं उसके, वह करता क्या है आदि बातें बेमानी हो चली हैं। कौन पूछे, किससे पूछे, क्यों पूछे! ‘प्राइवेसी’ की दुहाई जो दी जाती है।
इस ‘खुश्की’ भरे नए चलन में सावन के झोंके सा आया था एक विज्ञापन! पिडिलाइट कंपनी के ‘जोड़ लगाने में माहिर’ उत्पाद फेवीकॉल का टेलीविजन पर खूब चला वह विज्ञापन। गजब की संकल्पना थी उसमें। विज्ञापन के केन्द्र्र में था एक संयुक्त परिवार, एक छत के नीचे! विज्ञापन में दर्शाए गए राजस्थान के उस संयुक्त परिवार को देखकर मन पुलकित हुए बिना नहीं रहता। नई पीढ़ी तो भौंचक रह गई थी उस विज्ञापन में दिखाए गए परिवारिक संबंधों की गरिमा और आपसी प्यार को देखकर।
तुलसी के पौधे को पानी देने के लिए घर का एक दसेक वर्षीय बालक कलसे में पानी भरकर पौधे तक पहुंचा है, लेकिन पहले यह पक्का कर लेना चाहता है कि किसी ने उसे अभी पानी तो नहीं दिया न। वह आवाज लगाता है-‘मम्मी, तुलसी में पानी दे दिया क्या?’ मां मना करती है, कहती है, सासू जी ने दिया होगा। उधर यह सुनकर सासू जी कहती हैं, मैंने नहीं दिया, गप्पू के बापू से पूछ लो….! फिर बापू आगे बुआ के लड़के का नाम लेते हैं, वह आगे मामा का नाम लेता है, मामा मौसी की बेटी का, मौसी की बेटी ताऊ जी का, ताऊ जी जीजा जी के भाई का…..करते-करते करीब सौ लोगों के परिवार के बच्चे, बूढ़े, जवान अपने-अपने झरोखों से झांकते हुए हवेली के पहले, दूसरे और तीसरे तल से नीचे आंगन में तुलसी के पौधे के सामने पानी का कलसा लिए खड़े उस बालक को निहारते हैं।
इतने सारे परिवारीजनों से ना सुनने के बाद असमंजस में पड़े उस बालक को बस एक ही रास्ता सूझता है और वह कहता है-‘कोई बात नहीं, मैं फिर से डाल देता हूं।’ वह फेवीकॉल के प्लास्टिक के जैरीकेन में लगे तुलसी के पौधे में कलसी का पानी उड़ेल देता है।
विज्ञापन कंपनी ने ‘मजबूत जोड़’ का दावा करने वाले ‘फेवीकॉल’ के बहाने गाहे-बगाहे एक संयुक्त परिवार का भी बढ़िया जोड़ दिखाया है जो मन को राहत पहुंचाता है। पीयूष पांडे की इस विज्ञापन की संकल्पना गजब की है। इसमें भारतीय मानस में बसे रिश्तों की गर्मजोशी का एहसास झलकता है।
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