जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित, जिनकी सैयद हुसैन के साथ शादी गांधी जी ने तुड़वा दी थी और उन्हें अपने साथ साबरमती आश्रम ले गए थे। साबरमती आश्रम में विजय लक्ष्मी पंडित को एक युवक से प्रेम हुआ और उनका विवाह भी उन्हीं के साथ हुआ। वह युवक थे रंजीत पंडित। रंजीत पंडित के विषय में विजयलक्ष्मी अपनी पुस्तक “The Scope of Happiness — A Personal Memoirs” में लिखती हैं कि रंजीत पंडित ने वर्ष 1920 में एक लेख मॉडर्न रिव्यू ऑफ कलकत्ता में “एट द फीट ऑफ गुरु” शीर्षक से लिखा था।
उनके अनुसार इस लेख ने युवाओं में बहुत हलचल पैदा की। उस समय जहां सारे ध्यान का केंद्र तब तक केवल महात्मा गांधी थे, इस लेख ने यह स्थापित किया कि भारत की राजनीति में एक नया सितारा उभर रहा है और वह नया सितारा और कोई नहीं, बल्कि जवाहरलाल नेहरू थे। विजयलक्ष्मी पंडित लिखती हैं कि इस लेख के बाद जवाहरलाल नेहरू के दिल में रंजीत पंडित के लिए विशेष स्थान बन गया था। जब रंजीत इलाहाबाद आए तो उन दोनों की सगाई हुई थी। सगाई में रंजीत ने विजयलक्ष्मी को एक गीता उपहार में दी थी। यह देखकर विजयलक्ष्मी की मां बहुत डर गई थीं और उन्हें लगा था कि जिस व्यक्ति की शादी होने जा रही है, वह गीता उपहार में दे रहा है। हालांकि हीरे की अंगूठी और शेष आभूषण भी बाद में आए। इसके बाद वह आगे लिखती हैं कि रंजीत के पिता और महात्मा गांधी बहुत नजदीकी मित्र थे। जब शादी तय हो गई तो महात्मा गांधी ने उनसे पूछा कि वे अपनी शादी में क्या पहनेंगी।
विजयलक्ष्मी लिखती हैं कि कश्मीरी पंडितों में आमतौर पर कॉटन की गुलाबी साड़ी शादी में पहनी जाती है क्योंकि शादी रात को देर तक चलती है। जब लड़की की विदाई होती है तो वह सोने की जरी की साड़ी में और अपने माता-पिता के दिए हुए आभूषणों में अपने पति के घर जाती है। जब महात्मा गांधी को यह पत्र मिला तो उन्होंने फिर से एक पत्र वापस भेजा कि वह इसे अनुमति नहीं दे सकते हैं।
गांधी जी ने पत्र लिखा कि विजयलक्ष्मी को उनकी शादी में खादी की साड़ी पहननी होगी और साथ ही आभूषण का तो कोई प्रश्न ही नहीं है। यह सुनते ही उनकी माताजी बहुत गुस्से में आ गईं। उन्हें बहुत गुस्सा आ रहा था कि शादी में राजनीति जिस तरह से मिलाई जा रही है, उन्हें लगता था कि महात्मा गांधी उनके परिवार के दुश्मन हैं।
वह लिखती हैं कि खादी उस समय साड़ी के रूप में पहनना बहुत असहज था। दो टुकड़ों को एक साथ जोड़कर पहनने से वह भारी हो जाती और बहुत बदसूरत भी दिखती। और जहां तक आभूषणों का प्रश्न था तो वह तो एक लड़की का अधिकार होते हैं। वह तो स्त्रीधन होते हैं। उस समय को ध्यान मे रखते हुए शादी बहुत साधारण तरीके से हुई थी। आधी रात को विवाह सम्पन्न हुआ था और उस समय गांधी जी को आग्रह करके आराम करने के लिए भेज दिया था। रंजीत और विजयलक्ष्मी पंडित शादी के बाद उनसे मिलने के लिए कमरे में गए। जब वे लोग उनसे मिलने गए तो उनके चेहरे पर चांदनी फैली हुई थी। वे जाग ही रहे थे और उन दोनों की पदचापों से वे उठ गए। उन्होंने उन दोनों को आशीर्वाद दिया और फिर प्यार और जिम्मेदारी की बात की। विजयलक्ष्मी के अनुसार उस समय गांधी जी का चेहरा उतरा हुआ था। और उन्होंने देश के विषय में बात करनी शुरू कर दी कि देश के लिए कुछ करने की ताकत केवल और केवल सर्वोच्च पवित्रता से आ सकती है। शादी में ब्रह्मचर्य का पालन करना कठिन था यह उन्हें पता था। मगर उतना ही कठिन आजादी का वह संघर्ष था, जिसमें वे लोग कूद पड़े थे और जो हर बलिदान मांगता था।
विजयलक्ष्मी लिखती हैं कि वह इतना डर गई थीं कि अगर महात्मा गांधी इसी तरह से बोलते रहे तो वे इस भावुकता का शिकार हो जाएंगी और उनके द्वारा जो भी मांगा जाएगा उसके लिए हाँ कर देंगी। और शायद रंजीत के दिमाग में भी बापू के शब्द दस्तक देने लगे थे। उन्होंने दृढ़ता से बापू की ओर देखा और तेजी से कहा, “अगर आपको यह लगता था कि पति और पत्नी के रूप में हम दोनों का एक साथ रहना गलत है, तो आपने हमें शादी की अनुमति क्यों दी थी? मैं रंजीत से प्यार करती हूं और एक सामान्य वैवाहिक जीवन जीना चाहती हूं!” फिर वह लिखती हैं कि ऐसा कहने के बाद वे रुक गईं क्योंकि उन्हें सांस लेने में कठिनाई हो रही थी और उन्हें लगा कि गांधी जी जबाव देंगे, मगर कुछ नहीं हुआ। उन्होंने एक मुस्कान के साथ मेरे तपते हुए गालों पर एक चपत लगाई, “तो तुम रंजीत से प्यार करती हो? देखना कि तुम उसे उसके कर्तव्यों से दूर न कर दो!” और फिर हम एक मुस्कान के साथ वापस चले आए।
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