आश्विन शुक्ल पूर्णिमा की 16 कलाओं से सुसज्जित शरद चंद्र की धवल चांदनी में 16 कलाओं के पूर्णावतार लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण द्वारा ब्रजमंडल की 16 हजार गोपिकाओं को अलौकिक प्रेम की जो दिव्य रसानुभूति करायी थी, भारतभूमि के तत्वज्ञानी महामनीषियों ने उसे अध्यात्म क्षेत्र की महानतम परिघटना की संज्ञा दी है। कामदेव का अहंकार चूर करने के लिए किया गया यह महारास कान्हा के जीवन का वो अभिन्न हिस्सा है, जिसके बिना राधा-कृष्ण के प्रेम की महागाथा अधूरी ही कही जाएगी। पौराणिक कथानक के अनुसार द्वापर युग में एक बार कामदेव को अपनी शक्ति पर बहुत ज्यादा घमंड हो गया था। उन्हें यह अहंकार हो गया था कि वे किसी को भी ‘काम’ के प्रति आसक्त कर सकते हैं। उनमें यह अभिमान तब से जगा था जब देवताओं के कहने पर उन्होंने अपना महादेव पर अपना काम बाण चलाकर उन्हें माता पार्वती की ओर आकर्षित कराया था। जब यह बात श्रीकृष्ण को पता चली तो उन्होंने कामदेव का अहंकार तोड़ने के लिए उन्होंने महारास की लीला रचाई। शरद पूर्णिमा की रात को महारास रचाने के लिए उन्होंने अपनी आह्लादिनी शक्ति श्री राधा रानी समेत ब्रजमंडल की 16 हजार गोपिकाओं के साथ अलग-अलग नृत्य किया। इस दौरान कामदेव ने उन गोपिकाओं के मन में में काम भाव जगाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी लेकिन कृष्ण की कृपा से किसी के भी मन को वासना रंचमात्र भी न छू सकी। अंततः कामदेव का घमंड टूट गया और उन्होंने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगी। कहा जाता है कि तभी से शरद चंद्र की यह पूर्णिमा रास पूर्णिमा के नाम से भी लोकप्रिय हो गयी।
‘चंद्रमा मनसो जात:’ के रूप में भारतीय दर्शन में चंद्रमा को मन का कारक माना गया है। कहते हैं जब वृन्दावन में भगवान कृष्ण गोपिकाओं के साथ महारास की यह दिव्य लीला रचा रहे थे तो शरद चंद्र आसमान से यह अलौकिक दृश्य देख इतना भाव-विभोर हो उठा कि उसने पृथ्वी पर अमृत की वर्षा आरंभ कर दी। भगवान श्रीकृष्ण और शरद पूर्णिमा का संबंध सोलह की संख्या से भी जुड़ता है। भारतीय दर्शन में 16 की संख्या पूर्णता का प्रतीक मानी जाती है। श्रीकृष्ण सोलह कलाओं से युक्त संपूर्ण अवतार माने जाते हैं और शरद ऋतु की पूर्णिमा का सोलह कलाओं से संयुक्त चंद्रमा भी संपूर्णता और सौंदर्य का अधिपति बन अपनी कलाओं से समूचे विश्व को सम्मोहित करता है। अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, धृति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत; इन 16 कलाओं से संयुक्त शरद पूर्णिमा इसलिए भी सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि इस रात्रि में चंद्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होने के कारण उसका ओज सबसे तेजवान और “रास पंचाध्यायी” में वर्णित इस रासलीला के तत्वदर्शन के अनुसार 16 कलाओं के पूर्णावतार श्रीकृष्ण द्वारा 16 हजार गोपिकाओं के साथ किया गया भावपूर्ण नृत्य कोई काम क्रीड़ा नहीं अपिुत विशुद्ध प्रेम की वह सर्वोच्च अवस्था थी जिसमें योगेश्वर श्रीकृष्ण ने महारास के रूप में उनको आत्मसाक्षात्कर की अलौकिक अनुभूति करायी थी। महामनीषी श्री अरविंद ने इस आध्यात्मिक परिघटना को “ओवरमाइंड” की संज्ञा दी है। इसी तरह भागवत मर्मज्ञ पं. बलदेव उपाध्याय महारास की अनूठी व्याख्या करते हुए कहते हैं, “लीलाधर की रासलीला वस्तुत: जीव के पूर्ण समर्पण भाव का द्योतक है। लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण आप्तकाम थे जिन्होंने अपनी आह्लादिनी शक्ति श्रीराधा के साथ गोपिकाओं को अप्राकृत व अलौकिक प्रेमामृत का पान कराया था। प्रेमदान के इस लीला विलास में कलुषित कामना का रंचमात्र भी नहीं था।” महामनीषी गोपीनाथ कविराज लिखते हैं, “भक्तिरस में ब्रज की माधुरी अनुपमेय है; इसमें भी राधा भाव सर्वोत्कृष्ट है। इस श्रीराधारूपी महाभाव और उनकी उपांग गोपिकाओं का कृष्ण तत्व में आत्म विसर्जन ही इस महारास का मूल है।”
विकृत मानसिकता वाले लोग भगवान् श्रीकृष्ण की इस महान लीला को वासनात्मक रूप देने का प्रयास करते हैं। किन्तु कहते हैं न कि, जिसकी जैसी बुद्धि होती है वो वैसी ही सृष्टि कर लेता है, और ऐसे लोग श्रीकृष्ण के अधरामृत पान को गलत ही समझ लेते हैं। अधरामृत से उनका तात्पर्य मात्र अधरों से होता है, परन्तु पं. बलदेव उपाध्याय कहते हैं कि इस अधरामृत का अर्थ है “अधरा- अर्थात जो इस धरा का नहीं है “। वह तो चंद्रमा से आने वाला दिव्य अमृत है, चंद्रमा का सोमरस है जो शरद पूर्णिमा के दिन बरसता है।
शास्त्रीय कथानक के अनुसार माता महालक्ष्मी और महर्षि वाल्मीकि का जन्म शरद पूर्णिमा को ही हुआ था। भगवान शिव और माता पार्वती के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय भी इसी दिन जन्मे थे। नारद पुराण के अनुसार इस धवल चांदनी में मां लक्ष्मी पृथ्वी के मनोहर दृश्यों का आनंद उठाने भ्रमण के लिए निकलती हैं और इस अवधि जो मनुष्य जागकर इस अमृतबेला का लाभ उठाता है, उनकी आराधना करता है, उसे अपने अनुदान वरदान देती हैं। इसलिए शरद पूर्णिमा की रात को कोजागरी पूर्णिमा ( कौन जाग रहा) भी कहा जाता है। पौराणिक मान्यता है कि लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात चंद्रमा की किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण कर पुनर्यौवन की शक्ति प्राप्त करता था। पौराणिक कथानुसार एक समय ब्रह्मा के पुत्र प्रजापति दक्ष ने चंद्रमा को क्षय रोग से ग्रसित होने का श्राप दिया था, जिससे चंद्रमा का अमृत सूखने लगा तब चंद्रमा ने अपनी तपस्या से भगवान् शिव को प्रसन्न कर फिर से अमृत प्राप्त किया और वह शरद पूर्णिमा की ही शुभ तिथि है; जिस दिन भगवान् शिव ने चंद्रदेव को सोम अर्थात अमृत प्रदान किया था। भगवान् शिव की इसी कृपा के कारण उन्हें सोमनाथ कहा जाता है और चन्द्र-देव पर हुई इस महान कृपा के स्मरण में ही प्रथम ज्योतिर्लिंग की स्थापना सोमनाथ के नाम से हुई। शास्त्र कहते हैं कि श्रद्धालुओं द्वारा शरद पूर्णिमा की रात को श्री राधाकृष्ण की गोपियों संग पूजा और ‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीकृष्णाय गोविंदाय गोपीजन वल्लभाय श्रीं श्रीं श्रीं’ मंत्र के जाप से से जीवन में प्रेम व सुख और सौभाग्य बना रहता है।
अनूठा है आश्विन पूर्णिमा का ज्ञान-विज्ञान
हमारी भारतीय सनातन संस्कृति ज्ञान विज्ञान से आपूरित है। हमारी वैदिक परम्परा में मनाये जाने वाले पर्व-त्यौहारों के पीछे निहित ज्ञान विज्ञान अनूठा है। ग्रह-नक्षत्रों के आधार पर तिथियों का निर्धारण एवं मनुष्य के जीवन और स्वास्थय पर पड़ने वाले उनके प्रभाव का सूक्ष्म अध्ययन बहुत ही लाभप्रद है। हमारे ऋषि मुनियों द्वारा विकसित एक ऐसा ही पौराणिक पर्व है ‘शरद पूर्णिमा’। आश्विन माह के शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को चंद्रमा अश्विनी नक्षत्र में होता है; इसीलिए इस महीने का नाम आश्विन पड़ा है। ज्योतिषीय मान्यता के अनुसार इस पूर्णिमा को अपनी सोलह कलाओं से सुसज्जित चंद्रमा अन्य दिनों की तुलना पृथ्वी के सर्वाधिक नजदीक आ जाता है। इसी तिथि से शरद ऋतु का शुभारम्भ होता है। इसी के अगले दिन से कार्तिक स्नान शुरू होता है। ‘ब्रह्म पुराण’ के अनुसार शरद पूर्णिमा की रात्रि को चंद्रमा की किरणों से जो सोमरस रूपी अमृत पृथ्वी पर बरसता है; उससे औषधि रूपी दिव्य औषधियों में प्राणतत्व विकसित होता है। इसीलिए चंद्रमा को ‘औषधीश’ यानी औषधियों का स्वामी कहा गया है। इसीलिए आयुर्वेदाचार्य वर्षभर इस पूर्णिमा की प्रतीक्षा भारी उत्सुकता से करते हैं। जीवनदायिनी रोगनाशक जड़ी-बूटियों को वह शरद पूर्णिमा की चांदनी में रखते हैं। अमृत से नहाई इन जड़ी-बूटियों से जब दवा बनायी जाती है तो वह रोगी के ऊपर तुंरत असर करती है। शरद पूर्णिमा की शीतल चांदनी में रखी खीर खाने से शरीर के सभी रोग दूर होते हैं। आयुर्वेद के स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार ज्येष्ठ, आषाढ़, सावन और भाद्रपद मास में शरीर में पित्त का जो संचय हो जाता है, शरद पूर्णिमा की शीतल धवल चांदनी में रखी खीर खाने से पित्त बाहर निकल आता है। गोदुग्ध में चावल व सूखे मेवे डालकर बनायी गयी इस खीर को माँ महालक्ष्मी को भोग के रूप में अर्पित कर इस खीर को शरद पूर्णिमा के अमृत से अभिसिंचित करने के लिए चौड़े मुंह के खुले पात्र में आकाश तले रखने की परंपरा है। प्रातः स्नान व पूजन के उपरांत प्रसाद के रूप में इस खीर का सेवन किया जाता है। आयुर्वेदाचार्य कहते हैं कि पूरी रात चांद की चांदनी में रखने के बाद सुबह खाली पेट यह खीर खाने से शरीर निरोगी होता है। यह बात आयुर्वेदीय परीक्षणों में भी साबित हो चुकी है कि इस खीर के सेवन से मौसम बदलने पर फैलने वाले रोगों से मुक्ति मिलती है। इसलिए शरद पूर्णिमा को ‘आरोग्य का पर्व’ भी कहा जाता है।
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