विक्रम संवत् 1982 की अश्विन शुक्ल दशमी के दिन जिस संगठन ने जन्म लिया, वह अपने जन्म के 100वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। हम बात कर रहे हैं 27 सितंबर, 1925 को रविवार के दिन मुट्ठीभर बालकों के साथ नागपुर में आरम्भ हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की, जो आज विश्व के सबसे बड़े सामाजिक संगठन का गौरव पाकर भी अपना शताब्दी वर्ष बगैर किसी धूम-धड़ाके के मना रहा है। संघ के अधिकारियों का विचार है कि शताब्दी वर्ष पर भारी-भरकम समारोहों का आयोजन करने की अपेक्षा कुछ ऐसे ठोस कार्यों पर विशेष ध्यान देना चाहिए, जो देश में उन्नत और श्रेष्ठ समाज का निर्माण कर सकें। ऐसे आयाम जो हमारे दैनिक व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन की लहर उत्पन्न कर सकें। यथावश्यक सामाजिक परिवर्तन का कारक बन सकें।
इसी भावना को दृष्टिगत करते हुए संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत और सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले ने देश के समक्ष ‘पंच परिवर्तन’ की संकल्पना प्रस्तुत की है। संघ ने अपने स्वयंसेवकों तथा अपने समविचारी विविध संगठनों से भी आग्रह किया है कि वे इन पांचों बिंदुओं के अनुसार कार्ययोजना बनाते हुए देश के सामाजिक परिवर्तन के सक्रिय संवाहक बनें।
समाज में गुणात्मक परिवर्तन लाने के लिए निर्धारित किए गए ये ‘पंच परिवर्तन’ हैं- सामाजिक समरसता, कुटुम्ब प्रबोधन, स्व का भाव, नागरिक कर्तव्यों का पालन और पर्यावरण संरक्षण। इन पांच आयामों को ‘पंच प्रण’ भी इसी अपेक्षा से कहा गया है कि भारत के उत्थान की कामना करने वाले सभी लोग संकल्पपूर्वक इनकी पालना करें।
देश के वर्तमान परिदृश्य में यह ‘पंच परिवर्तन’ की अवधारणा कितनी मूल्यवान है, यह अलग से समझाने की आवश्यकता नहीं है। इसकी उपयोगिता देश का प्रत्येक सजग नागरिक भली-भांति समझ सकता है, किन्तु इनके पीछे जो सूक्ष्म दृष्टि और मूल भाव छुपा हुआ है, उसको जाने बिना हम न तो संघ की समाज परिवर्तन की अवधारणा को समझ सकते हैं, न संघ के वास्तविक लक्ष्य को। अत: जिस परिघटना से सम्पूर्ण देश में मूलगामी परिवर्तन की आहट सुनाई पड़ने लगी है, उस पर गंभीरता से विचार किया जाना अपेक्षित है। देखना होगा कि इस पंच प्रण की अवधारणा का वैचारिक आधार क्या है, जिनके द्वारा संघ ने एक उन्नत समाज की संकल्पना के साथ व्यापक सामाजिक परिवर्तन के लिए अपनी कमर कसी है।
वस्तुत: समाज की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति है, जो उत्तरोत्तर बड़ी इकाइयों से संयुक्त रहती है। मनुष्य की चेतना का एक छोर उसके भीतर स्थित, उसका ‘स्व’ है, तो दूसरा छोर बाहर फैले हुए शेष संसार में रहता है। व्यक्ति की चेतना पर इन बाहरी इकाइयों के वलय बने रहते हैं जो परिवार, नगर, प्रान्त, राष्ट्र, समाज आदि के रूप में होते हुए सम्पूर्ण चराचर विश्व तक व्याप्त रहते हैं। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति स्व और संसार के इन दो, भीतरी और बाहरी ध्रुवों से बंधा रहता है।
समाज में वांछित परिवर्तन की प्रक्रिया किसी एक ही स्तर पर घटित नहीं होती। यह व्यक्ति से प्रारंभ होती हुई इन सभी स्तरों पर घटित होती है। किसी विशेष व्यक्ति का कार्य विशेष, समाज में उत्प्रेरक का कार्य तो कर सकता है, किन्तु वास्तविक और स्थाई परिणाम के लिए प्रत्येक स्तर पर परिवर्तन घटित होना आवश्यक है। इसी भावभूमि पर हम समाज में ‘परिवर्तन के पंचायतन’ को देखें तो यह समझ में आएगा कि आज अपने देश सहित सम्पूर्ण विश्व जिन विभीषिकाओं से जूझ रहा है, उनके समाधान का यही एक सुविचारित और व्यवस्थित कर्तव्य पथ है।
अनियंत्रित उपभोगवाद, शोषण और द्वंद्वात्मक संघर्ष के कारण समाज में पनपे दोषों तथा रंग, वर्ग, जाति, पंथ, क्षेत्र आदि के सामाजिक भेदभाव का स्थाई उपचार केवल उपदेशों, नारों अथवा नेतृत्व परिवर्तन से नहीं होता। यह अकेले किसी सरकार अथवा संस्था अथवा विचारधारा के वश की बात भी नहीं, यह सभी के समेकित प्रयासों से होता है। देश के सर्वांगीण विकास की यह यात्रा सबकी समन्वित चेतना से ही संभव है।
इस विकास यात्रा के क्रमश: पांच स्तर हैं-स्वयं की चेतना, पारिवारिक चेतना, राष्ट्रीय चेतना, सामाजिक चेतना और वैश्विक चेतना। चेतना के इन पांचों सोपानों को पार करने के लिए देश के प्रत्येक नागरिक को जिन पांच व्रतों की पालना करना आवश्यक है, वे इस प्रकार हैं-
- व्यक्ति स्तर पर स्व का बोध।
- पारिवारिक स्तर पर कुटुंब प्रबोधन।
- देश के स्तर पर नागरिक कर्तव्यों की पालना।
- सामाजिक स्तर पर सामाजिक समरसता।
- वैश्विक स्तर पर पर्यावरण अनुकूल जीवन। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस पंच परिवर्तन की प्रासंगिकता हमें जाननी चाहिए।
स्व का जागरण
समाज जीवन में परिवर्तन की प्रक्रिया का पहला सोपान व्यक्ति के स्व का जागरण है। स्व जागरण का भाव केवल सैद्धांतिक अवधारणा के लिए नहीं, अपितु जीवन में व्यावहारिक रूप में उतारना आवश्यक है। अपनी जीवनचर्या में स्वदेशी का भाव विकसित करने के लिए विचार, व्यवस्था, वस्तु और वृत्ति, इन सभी का स्वदेशीकरण आवश्यक है। व्यक्ति चेतना पर पड़े हुए औपनिवेशिक गुलामी के आवरण को स्वदेशी आचरण से ही दूर किया जा सकता है।
कुटुंब प्रबोधन
पारिवारिक स्तर पर चेतना के महत्व की दृष्टि से कुटुंब प्रबोधन एक आवश्यक सोपान है। कुटुंब या परिवार व्यक्ति और समाज के बीच की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है। समाज का लघुतम स्वरूप हम परिवार में अनुभव करते हैं। यह संस्कारों की पहली पाठशाला है, जिसके आचार्य एवं शिक्षक-प्रशिक्षक, माता-पिता और परिवार के बड़े लोग होते हैं। व्यक्ति के समाजगत आचार-विचार-व्यवहार का प्रशिक्षण और प्रबोधन परिवार के ही माध्यम से होता है। बाल्यकाल से ही अनुकूल संस्कारों के आधान और प्रतिकूल संस्कारों के विसर्जन में परिवार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अत: समाजोपयोगी मूल्यों की शिक्षा के लिए परिवार संस्था को सुदृढ़ बनाए रखना सामाजिक प्रबंधन का दूसरा महत्वपूर्ण सोपान है।
नागरिक कर्तव्यों का पालन
मानवीय चेतना का तीसरा घेरा भौगोलिक परिधि में आबद्ध किसी राष्ट्र अथवा राज्य का होता है, जो देश के विधि-विधान के अनुसार मनुष्य के सामुदायिक कर्तव्यों और आचार-व्यवहारों को निर्धारित करता है।
एक अनुशासित और सभ्य समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्यों की पालना सुनिश्चित करे। यही राष्ट्रीय चेतना का मूल हेतु है। अपने-अपने कर्तव्यों के पालन में ही दूसरों के अधिकार संरक्षित होते हैं। राष्ट्र में सद्भावना, शांति और समृद्धि का यही मूलमंत्र है। कर्तव्य पालन से विमुख जन समुदाय कितना ही देशप्रेमी क्यों न हो, सशक्त और समृद्ध राष्ट्र का कारक नहीं बन सकता।
सामाजिक समरसता
व्यक्ति चेतना का यह वलय सम्पूर्ण समाज को एकात्मता के सूत्र में बांधता है। मनुष्य की चेतना स्व, परिवार, राष्ट्र के बाद सम्पूर्ण समाज का अंश होती है। समाज में समता और समानता की बात की जाती है, किन्तु यह एक सीमा तक ही संभव है। मनुष्य मात्र में विविधता प्रकृति प्रदत्त है। देश, काल, प्रकृति, स्वभाव, संस्कार, रुचि, क्षमता आदि की भिन्नता के कारण मनुष्यों के विकास के स्तर में भी भिन्नता अवश्यंभावी है। इन विविधताओं के कारण जो भेद रहता है, उसका स्थाई समाधान समरसता में ही सम्भव है। समाज की विविध विशेषताओं को समानता के नाम पर नष्ट भी नहीं किया जा सकता, अपितु समरसता के सूत्र में इन भिन्नताओं के सामंजस्य के साथ बांधा जा सकता है। समानता का वास्तविक व्यावहारिक रूप समरसता में ही प्राप्त होता है।
सामाजिक समरसता का अर्थ है अपने वर्ग, जाति और समुदाय से भिन्न लोगों के प्रति सहज सम्मानजनक और भेदभाव रहित व्यवहार। ‘अन्य’ के प्रति प्रेम और आत्मीयता पूर्ण व्यवहार ही सामाजिक समरसता की कसौटी है। सामाजिक चेतना के जागरण के लिए सम्पूर्ण समाज का अविभक्त और परस्पर प्रेमपूर्ण होना आवश्यक है। इसका प्रमुख हेतु है सामाजिक समरसता का भाव।
पर्यावरण संरक्षण
मनुष्य की चेतना का पांचवा सोपान वैश्विक स्तर तक व्याप्त होता है। हम इस चराचर जगत का अविभाज्य अंश हैं। हमारा अस्तित्व धरती से लेकर अंतरिक्ष तक सम्पूर्ण सृष्टि से सम्बद्ध और उस पर आद्धृत है। अत: पर्यावरण को बचाना सम्पूर्ण चराचर जगत को बचाना है। अन्तत: स्वयं को बचाना है।
यह कार्य समुदाय, लिंग, जाति, पंथ, राष्ट्र आदि सभी सीमाओं से ऊपर उठकर मानवमात्र का धर्म है। यह कोई सेवा या प्रसिद्धि का कार्य नहीं, वरन् उसी तरह मौलिक उत्तरदायित्व है जिस प्रकार मनुष्य का अपनी संतानों और आश्रितों का पालन करना। अत: मानवमात्र या प्राणिमात्र के प्रति ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण प्रकृति-पर्यावरण के प्रति आत्मीय दृष्टि किसी श्रेष्ठ और उन्नत समाज की पहचान होती है। आज संसार भर में परस्पर संघर्ष और प्रतिशोध की लपटें उठ रही हैं।
जन समूह अलगाव और असमानता के दो पाटों के बीच पिस रहा है। अलगाव है इसलिए शोषण पर कोई लगाम नहीं। असमानता है इसलिए भेदभाव और संघर्ष बढ़ रहा है। ऐसे परिदृश्य में स्व का जागरण, कुटुंब प्रबोधन, सामाजिक समरसता, नागरिक कर्तव्यों का पालन और पर्यावरण संरक्षण, ये ही समग्र सामाजिक विकास के पांच सोपान हैं, जिनको दैनंदिन आचरण और कार्य व्यवहार में उतार कर हम अपने राष्ट्र को परम वैभव की ओर अग्रसर होते देख सकेंगे। तभी अखिल विश्व का नेतृत्व करने की क्षमता भी अर्जित कर सकेंगे।
(लेखक कवि, आलोचक एवं सम्पादक हैं)
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