—राजपाल सिंह राठौर
भारत में पहली बार आधिकारिक रूप से चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार ई.एम.एस. नंबूदरिपाद के नेतृत्व में केरल में सन 1957 में बनी। चूँकि साम्यवाद (कम्युनिज्म), जो कि एकदलीय प्रणाली में विश्वास रखता है, और बहुदलीय लोकतान्त्रिक चुनाव, दोनों विपरीत धारा में बहते हैं इसलिए केरल में कम्युनिस्ट सरकार का निर्वाचित होना यह विश्व में अपने आप में एक अनूठा उदाहरण था जहां किसी देश के केन्द्र में अन्य दल की सत्ता थी वहीं राज्य में कम्युनिस्ट सरकार। परंतु भारत तो दुनिया को हमेशा सकारात्मक रूप में अचंभित करता ही रहा है। इसलिए यहां ऐसे बिरले उदहारण हमेशा मिलते रहे हैं। सन 1957 से लेकर पिछले दशक में आई राष्ट्रीय नवचेतना के कारण उत्तर–पूर्व में वामपंथियों के गढ़ त्रिपुरा के ढहने तक, पंडित दीनदयाल जी के एकात्म विचार ने एक समान गति से समाज के बीच अपनी जगह बनाई है।
कार्ल मार्क्स से लेकर लेनिन फिर स्टालिन और माओ तक साम्यवाद ने दुनिया में सर्वहारा क्रांति के नाम पर बड़े पैमाने पर नरसंहार किया है।
अक्टूम्बर क्रांति से रूस में Dictatorship of the Proletariat की शुरुआत हुई, जो One Party State (एकदलीय देश) की बात करती है, जबकि हमारा जीवंत लोकतंत्र हर छोटे-बड़े दल को महत्व देता है। मार्क्स और लेनिन कहते हैं कि देश में एक ही पार्टी राज करेगी और चुनाव भी उसी पार्टी में से होगा। अत: यह कहना उचित होगा कि साम्यवादी सरकारें मूलत: तानाशाही का ही परिष्कृत रूप हैं।
जब पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय के सर्वसमावेशी विचार, सर्वस्पर्शी भाव और एकात्मता के प्रण को लेकर भाजपा ने लड़ाई लड़ने की कमर कसी और कम्युनिस्ट सरकार में रहने वाले हर घर तक इस विचार को पहुंचाने का बीड़ा कार्यकर्ताओं ने उठाया। त्रिपुरा की जनता ने भी सहयोग किया और अधिकारवादी कम्युनिस्ट सरकार को उखाड़ फेंका। पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट अपनी जमीन पूर्णत: खो चुके हैं और वहां भाजपा दूसरे नंबर पर है तथा केरल जो कि पूरे देश में कम्युनिस्ट विचार का आखरी किला बचा है, वहां भी भाजपा का वोट प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है।
इन सब के पीछे एक मुख्य कारण यह भी रहा है कि भाकपा (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) की राजनीति में भारतीय परिस्थितियों को कम अहमियत दी जाती रही है। सन 1925 से अधिकांश अवसरों पर कम्युनिस्ट इंटरनेशनल या सोवियत संघ के निर्देशों ने भारत में वामपंथियों की रणनीति तय करने का काम किया। इसी कारण भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतरत्न डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर के नेतृत्व में संविधान गठन हेतु बनी संविधान सभा में भी भाग नहीं लिया। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा कभी भी समाज के वंचित वर्ग के उत्थान के लिए गंभीर नहीं रही, अपितु राजनीतिक लाभ के लिए ही वे अनुसूचित जाति और जनजातीय बंधुओं का उत्पीड़न करती रही है।
भारत की भावी पीढ़ी को यह भी बताते चलें कि कम्युनिस्ट दलों ने सन 1962 में हुए भारत चीन युद्ध में भी भारत का साथ न देकर चीन का साथ दिया था। राष्ट्र और राष्ट्रीयत्व का अभाव भी उनके इस राष्ट्रविरोधी निर्णय में स्पष्ट झलकता है।
विश्व को हमेशा शांति का मार्ग दिखाने वाले भारत में एकत्व ही लोगों के बीच अपनी जगह बना सकता है। संघर्ष के सहारे साम्यवाद भारत में लम्बे समय तक अपनी जगह कभी नहीं बना पाया क्योंकि जहां कॉमरेड माओ जेदोंग चीन में अपने विचारों को थोपने के लिए करोड़ों लोगों की जान ले लेता है, वहीं भारत की संसद प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूरे विपक्ष के साथ हर विषय पर समन्वय बनाने का प्रयास करती दिखाई देती है।
दीनदयाल जी समाज के हर पहलू में एकात्मता देखते हैं, वे समरसता के आधार पर भारतीय समाज की उन्नति के पक्षधर हैं। चाहे वे आर्थिक दृष्टिकोण हो या सामाजिक या फिर शैक्षणिक, उनके विचार में हमेशा मूल भाव भारतीय रहा है जो कि सबमें दृष्टिगत होते एक मूल तत्व को दर्शाता है और एकात्म, एकरस होने की बात करता है।
मार्क्सवाद, लेनिनवाद या फिर माओवाद समाज जीवन के हर स्तर पर सशस्त्र संघर्ष को बढ़ावा देते हैं, जबकि एकात्म मानव दर्शन सबको समायोजित कर उन्नति के मार्ग पर शांतिपूर्वक आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करता है।
पिछले दशक के पहले तक जो दल एकात्म मानव दर्शन की स्वीकारोक्ति को ‘काऊ-बेल्ट’ तक सीमित मानते थे, उनको वास्तव में एक बहुत बड़ा झटका इस बात से लगा कि आज पंडित दीनदयाल जी के समावेशी विचार को देश के चुनावी परिप्रेक्ष्य में लगभग 80 प्रतिशत भूभाग पर मान्यता प्राप्त है।
यह सिद्ध बात है कि दीनदयाल जी के विचार उसी शाश्वत सत्य के अंश हैं, जो युगों-युगों से भारत का सत्य रहा है। उनका विचार दर्शन भारत का दर्शन कराता है। उनका विचार हम सबको भारतीयता में एकात्म होकर समरस हो जाने की प्रेरणा देता है।
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