सैन्य शक्ति के सामने न्यायपालिका की शक्ति गौण करने का प्रयास किया जा रहा है। “राष्ट्रीय सुरक्षा” कानूनों के तहत की जाने वाली कार्रवाइयों की जांच करने की न्यायिक शक्ति को छीन लेने के और क्या मायने हैं? यह न्यायपालिका को नियंत्रित करने का प्रयास ही नजर आता है।
क्या पाकिस्तान की संसद अपने सुप्रीम कोर्ट से संविधान की व्याख्या करने की न्यायिक ताकत छीनना चाह रही है? जिन्ना के देश में यह सवाल पिछले कुछ दिनों से विधायिका और न्यायपानिका के गलियारों में उछल रहा है। क्या वहां कोर्ट को सरकार के तहत किसी निकाय के अधीन ला छोड़ा जाएगा?
इन दिनों पड़ोसी इस्लामी देश में 26वें संविधान संशोधन विधेयक का मसौदा चर्चा का विषय बना हुआ है। सवाल है कि क्या सरकार अदालतों के पर कतर कर, उसकी शक्तियां भी सेना के हाथ में देने का मन बना रही है?
उस देश के कुछ समझ रखने वाले इसे ‘देश की आत्मा की हत्या’ करने जैसा मान रहे हैं और मना रहे हैं कि संसद में कोई 8—10 समझ वाले सांसद उठकर इस मसौदे का विरोध करें तो ऐसा होने से बच जाएगा।
पाकिस्तान में पिछले कुछ महीनों से, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल को बढ़ाने, सभी जजों की सेवानिवृत्ति की उम्र, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने के मकसद से एक विधेयक को लाए जाने की बातें सुनने में आती रही थीं। चर्चा यह भी थी कि इसके पीछे मकसद सियासी ही है तो यह काफी बुरा होने जा रहा है।
क्या है इस मसौदे में जिसे लेकर लोगों के मन में सवाल हैं? आइए जानते हैं। 1. इस नए संशोधन के बाद, ऐसे सभी मामले एक नए संवैधानिक न्यायालय में जाएंगे, जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश करेंगे, जिसे प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा। 2.राष्ट्रपति नवनियुक्त मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के बाद संवैधानिक न्यायालय के शेष न्यायाधीशों का भी चयन करेंगे। 3. किसी भी न्यायालय (पुराने या नए) को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ कानूनों के तहत काम करने वाले अधिकारियों के कार्यों की जांच करने का अधिकार नहीं होगा। 4. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों या (संवेदनशील) मामलों को सहमति के बिना एक उच्च न्यायालय से दूसरे में स्थानांतरित किया जा सकता है।
पाकिस्तान के सत्तारूढ़ दलों का इसे पीछे तर्क यह है कि उनके उच्च न्यायालय सियासी तौर पर बहुत ज्यादा पक्षपाती हो गए हैं इसलिए, सुधार आवश्यक है। सवाल है, तो क्या न्यायालयों को सियासत से परे रखने के लिए क्या यही समाधान है कि संवैधानिक मामलों की सुनवाई केवल सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों द्वारा की जाए? मसौदा इसी तरफ इशारा करता है। दूसरा तर्क है कि न्यायिक प्रणाली पर बहुत ज्यादा बोझ है और वादियों को लंबा इंतजार करना पड़ता है।
यह बात सही है। तो क्या समाधान यह है कि न्यायिक पायदानों में एक और पायदान जोड़ दी जाए ताकि वादियों को सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने से पहले, दसियों सान दीवानी और आपराधिक कानून के सभी रास्ते खोज चुके हों, उसके बाद संवैधानिक आधार पर विवाद को संवैधानिक न्यायालय में ले जा सकें?
संदेह यह है कि सैन्य शक्ति के सामने न्यायपालिका की शक्ति गौण करने का प्रयास किया जा रहा है। “राष्ट्रीय सुरक्षा” कानूनों के तहत की जाने वाली कार्रवाइयों की जांच करने की न्यायिक शक्ति को छीन लेने के और क्या मायने हैं? यह न्यायपालिका को नियंत्रित करने का प्रयास ही नजर आता है।
विधेयक के अधिक महत्वपूर्ण प्रावधानों पर बारीक नजर डालें तो संविधान के अनुच्छेद 175-ए में प्रस्तावित संशोधन-जो उच्च न्यायालयों, सर्वोच्च न्यायालय और संघीय शरीयत न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है-प्रभावी रूप से न्यायिक आयोग और संसदीय समिति को मिलाता है जो वर्तमान में न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। 19वें संविधान संशोधन और उसके बाद के सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों ने संसदीय समिति की भूमिका को प्रभावी रूप से निष्प्रभावी कर दिया था। लेकिन फिर, विधेयक में आगे कहा गया है कि नए संवैधानिक न्यायालय के पहले मुख्य न्यायाधीश को प्रधानमंत्री की ही सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा।
संशोधन के बाद, प्रभावी तौर पर न्यायिक आयोग संवैधानिक न्यायालय में बाद की नियुक्तियों में ही भूमिका निभाएगा-प्रथम संवैधानिक न्यायालय के विधिवत रूप से भरे जाने के बाद। इस एकीकृत आयोग में 13 सदस्य होंगे, जिसमें संवैधानिक न्यायालय में नियुक्त छह मौजूदा लोग, संघीय कानून मंत्री और अटॉर्नी जनरल और सत्ता पक्ष के दो सांसद शामिल होंगे।
इसमें संदेह नहीं है कि जिन्ना के देश में कोर्ट के पर कतरने की पूरी तैयारी कर ली गई है। विधेयक के पारित होने पर सेना के पास अपनी मर्जी चलाने और सरकार को शिकंजे में रखने की और सहूलियत मिल जाएगी। पिछले कुछ समय के दौरान सुप्रीम कोर्ट के दिए कुछ फैसले इमरान की धुर विरोधी सेना को निश्चित रूप से चुभे होंगे। संभवत: इसीलिए संशोधन के नाम पर यह कवायद की जा रही है।
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