राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ‘विजयदशमी’ 2025 को अपना ‘शताब्दी वर्ष’ पूर्ण कर रहा है | वर्ष 1925 में नागपुर के मोहिते का बाडा में संघ की पहली शाखा लगी। अपनी स्थापना के पहले दिन से ही संघ के विचार केंद्र में ‘हिंदू समाज’ रहा है। संघ के स्वयंसेवक ‘समाज’ से निकलकर, ‘समाज’ के साथ मिलकर, ‘समाज’ के लिए ही कार्य करते हैं; और संघ जब ‘हिंदू समाज’की बात करता है तो उसका अर्थ ‘सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था’ से है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक ‘समता’, ‘ममता’ व ‘समरसता’ के गुण से परिपूर्ण होते हैं। वे समाज की विभिन्न खूबियों व खामियों से परिचित रहते हैं तथा सदैव संघ के संस्कारों के साथ भारतीय समाज को ‘आदर्श समाज’ के रूप में सम्पूर्ण विश्व के सामने प्रदर्शित करें ऐसा प्रत्येक स्वयंसेवक का प्रयास रहता है।
शताब्दी वर्ष में संघ अपने दो मूल लक्ष्यों की पहचान कर अपने कार्य को गति प्रदान कर रहा है, पहला है – शाखाओं की संख्या बढ़ाना और इसमें की जाने वाली गतिविधियों में गुणात्मक सुधार करना तथा दूसरा है –
सामाजिक दृष्टिकोण से, संघ ने पंच परिवर्तन का विषय सामने रखा है। संघ के उद्देश्यों में बौद्धिक आख्यान (Intellectual Narrative) को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से बदलना और सामाजिक परिवर्तन के लिए ‘सज्जन शक्ति’ को संगठित करना शामिल है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘पंच परिवर्तन’ के विचार में समाज में ‘समरसता’ यानि बंधुत्व के साथ समानता, पर्यावरण के अनुकूल जीवन शैली, पारिवारिकता मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए जागरूकता, जीवन के सभी पहलुओं में ‘भारतीय’ मूल्यों पर आधारित ‘स्व’ की भावना पैदा करना और नागरिक कर्तव्यों के पालन के लिए सामाजिक जागृति पैदा करना शामिल है। समाज के उत्सवों में स्वयंसेवक सहभागी होते हैं।
‘उत्सवों’को संघ ‘जनजागरण’ का एक अवसर मानता है। ऐसे ही उत्सवों में से एक है ‘रक्षाबंधन’।
संघ रक्षाबंधन क्यों मनाता है ? इसका औचित्य क्या है ? ये भी प्रश्न सामान्य जनमानस के मन में रहता है। रक्षाबंधन के पर्व का महत्व भारतीय जनमानस में प्राचीन काल से है। ध्यातव्य है कि पुरातन भारतीय परंपरा के अनुसार समाज का शिक्षक वर्ग ‘रक्षा सूत्र’ के सहारे देश की महान ज्ञान परंपरा की रक्षा का संकल्प शेष समाज से कराता था। अभी भी हम देखते हैं कि किसी भी अनुष्ठान के बाद ‘रक्षा सूत्र’ के माध्यम से उपस्थित सभी लोगों को रक्षा का संकल्प कराया जाता है। इस सबके मूल अध्ययन में यही ध्यान में आता है कि लोग शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार समाज की रक्षा का संकल्प लेते हैं।
संघ के संस्थापक परमपूज्य डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार जी ने हिन्दू समाज में ‘समरसता’ स्थापित करने के उद्देश्य से इस उत्सव को मनाने का निर्णय उन्होंने इस संकल्प के साथ किया कि समस्त हिन्दू समाज मिलकर समस्त हिन्दू समाज का रक्षक बने।
सामान्यतः रक्षा बंधन पर्व के दिन बहनें अपने भाइयों की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधती हैं। किन्तु संघ के उत्सव में इसका विस्तृत अर्थ हुआ जो कि सम्पूर्ण समाज को अपने में समेटता है। पराधीनता के कालखंड में समाज का विघटन हुआ, समाज में दूरियाँ बढीं, समाज का प्रत्येक अंग एक-दूसरे अलग रहकर सुरक्षित अनुभव करने लगा। लेकिन इससे जो नुकसान प्रत्येक वर्ग का हुआ वो अकल्पनीय था। भाषा और क्षेत्र के आधार पर समाज में द्वेष पनपने लगा, और विधर्मी व विदेशी शासकों ने इस समस्या को हल करने के बजाय इस आग में घी डालने का कार्य किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिन्दू समाज की इस दुर्दशा को देखा तो न केवल पीड़ा का अनुभव किया बल्कि इसके स्थायी निवारण का संकल्प भी लिया। रक्षाबंधन का पर्व आपसी विश्वास का पर्व है। इस सक्षम समाज अन्य को विश्वास दिलाते हैं कि वे निर्भय रहें। किसी भी संकट में सक्षम समाज उनके साथ खड़ा रहेगा, संघ ने इसी विश्वास को हजारों स्वयंसेवकों के माध्यम से समाज में पुनर्स्थापित करने का बीड़ा उठाया। रक्षाबंधन के पर्व पर स्वयंसेवक परम पवित्र भगवा ध्वज को रक्षा सूत्र बांधकर उस संकल्प का स्मरण करते हैं, जिसमें कहा गया है कि धर्मो रक्षति रक्षित: अर्थात् हम सब मिलकर धर्म की रक्षा करें। पहले स्वयंसेवक स्नान-ध्यान कर शाखा पर एकत्रित होकर बौद्धिक सुनते इसके पश्चात एक-दूसरे के रक्षासूत्र बाँधकर इस पर्व को मनाते रहे लेकिन विगत कई वर्षों में संघ के इस उत्सव को मनाने का जो मूल स्वरुप है उसके अनुरूप समाज का कोई भी वर्ग अपने को अलग-थलग न महसूस करे इसके लिए संघ के स्वयंसेवक नगर-ग्राम-खंड की पिछड़ी बस्तियों में जाकर वहाँ निवास करने वाले बंधु-बांधवों-भगिनी-माताओं से मिलकर उनके रक्षा सूत्र बाँधकर, उनसे रक्षा सूत्र बँधवाकर उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक रक्षा का संकल्प लेकर ‘रक्षाबंधन’ का पर्व मनाते हैं तथा वर्षभर उनके साथ संपर्क में रहकर उनके सुख-दुःख में खड़े रहकर उन्हें समानता-समरसता का अनुभव कराते हैं।
अब जब संघ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश करने जा रहा है तब ‘रक्षाबंधन’ उत्सव का महत्त्व और भी विशेष हो जाता है चूँकि ‘समरस समाज’ का निर्माण संघ का एक लक्ष्य है, और ‘रक्षाबंधन’ उत्सव प्रत्यक्ष रूप से ऐसा पर्व है जो समाज में ‘समरसता’ यानि बंधुत्व की भावना का विकास करता है।
सशक्त, संस्कारयुक्त, समरस व समतामूलक समाज ही किसी भी ‘आदर्श समाज’ के लक्षण हैं जिसके निर्माण में संघ अनवरत रत है। ‘रक्षाबंधन’ उत्सव इसी दिशा में एक सोपान स्वरुप है जो ‘विश्वगुरु भारत’ का मार्ग प्रशस्त करेगा।
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