मुस्लिम इलाकों से दंगाई भीड़ ‘अल्लाह हो अकबर’ के नारे लगाते आती, लूटपाट करके लौट जाती। मैं किसी तरह ननिहाल गया, नानी-मामा के साथ हम स्टेशन आ गए। ट्रेन से अटारी रेलवे स्टेशन तक आए। रास्ते में चारों तरफ आग, धुएं और लाशों के अलावा कुछ नहीं दिखता था।
बल्देव कपूर
रावलपिंडी (पाकिस्तान)
मैं अविभाजित भारत के रावलपिण्डी शहर में रहता था। विभाजन के समय मेरी उम्र लगभग 19 साल थी। आज 96 साल का हूं, लेकिन देश के बंटवारे का दर्द अब भी सालता है। पिता स्टेशन मास्टर थे।
विभाजन से दो साल पहले उनका देहांत हो गया था तो छोटे भाई-बहनों को पालने-पोसने की जिम्मेदारी मेरी ही थी। शहर के एक छोर पर हमारा घर था तो दूसरे पर ननिहाल। गर्मी की छुट्टियों में हम सब ननिहाल जाते थे। 1947 के अप्रैल में भी हम वहीं थे, तभी दंगे शुरू हो गए। ननिहाल हिंदू इलाके में था, जहां सेना का शिविर था इसलिए इलाका सुरक्षित था।
तब भी मुस्लिम इलाकों से दंगाई भीड़ ‘अल्लाह हो अकबर’ के नारे लगाती आती थी और लूटपाट करके लौट जाती थी। एक रात बाहर शोर मचने लगा, हम छत पर जाकर छुप गए। ननिहाल से दो दिन बाद वापस घर लौटकर देखा कि घर के दरवाजे पर टाट का पर्दा टंगा है। आवाज दी तो एक मुसलमान निकला और पूछा, कौन? मैंने कहा, इस घर का मालिक। वह बोला, कल तक थे, आज हम मालिक हैं।
अचानक वह अंदर से तलवार ले लाया। मैं किसी तरह जान बचाकर भागा, ननिहाल गया, नानी-मामा के साथ हम सब स्टेशन आ गए। ट्रेन से सेना के डिब्बे में बैठकर अटारी रेलवे स्टेशन तक आए। रास्ते में चारों तरफ आग, धुएं और लाशों के अलावा कुछ नहीं दिखता था। वहां से हम अमृतसर पहुंचे। फिर दो दिन बाद बरेली आए और उसके बाद हल्द्वानी।
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