जब तक जग को जीवन देने वाले राम हमारे साथ हैं तब तक हम किसी भी इंदिरा की लंका का नाश कर सकते हैं । भाषण की यह पंक्तियाँ किसी मंजे हुए परिपक्व वक्ता की लग सकती हैं और यह पंक्तियाँ हैं ही ऐसी। पर यह बेहद कम ही लोगों को पता होगा कि ग्वालियर के फूलबाग पर आपतकाल हटने के बाद अटल जी की आम सभा से पहले यह गर्जना एक ऐसे नवयुवक ने की थी जो जनता पार्टी में भी किसी बड़े पद पर नहीं था। यह नवयुवक मुखर्जी भवन पार्टी कार्यालय की साफ़-सफ़ाई भी करता था । पढ़ता भी था और शाम को स्वदेश सहित अन्य समाचार पत्रों में प्रेस विज्ञप्ति भी लगाने जाता था। सामान्य क़द काठी ,अपूर्व उत्साह और परिश्रम की पराकाष्ठा करने वाले इस नवयुवक पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ नेतृत्व की निगाह पड़ी। प्रेस विज्ञप्ति लगाने आने वाले युवक ने स्वदेश के तत्कालीन संपादक श्री राजेंद्र शर्मा के मार्गदर्शन में कलम पकड़ी और उस कलम ने व्यवस्था के ख़िलाफ़ वह आग उगली कि आप उसे ग्वालियर अंचल की आक्रामक पत्रकारिता का ‘एंग्री यंग मैन’ भी कह सकते हैं। लिखने की आवश्यकता नहीं, उस नवयुवक का नाम प्रभात झा था।
प्रभात जी का परिचय भाजपा के सांसद के रूप में भी दिया जाएगा। उनको प्रदेश अध्यक्ष भाजपा के रूप में भी याद किया जाएगा ।राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के रूप में उनके अखिल भारतीय प्रवास के योगदान को रेखांकित किया ही जाएगा। दिग्विजय सिंह के कांग्रेस शासन काल में जब भारतीय जनता पार्टी संघर्ष कर रही थी तब संवाद प्रमुख के पद को अत्यंत महत्व पूर्ण कैसे बनाया जा सकता है, इसकी भी एक कहानी है। और उनके संपादक के कार्यकाल के नाते “कमल संदेश” ने कितने प्रभावी संदेश दिये वह भी एक प्रेरक कहानी है ।
लेकिन प्रभात झा और स्वदेश कैसे एक-दूसरे के पूरक बने, यह कलम के हर एक विद्यार्थी को समझना होगा। प्रभात जी ,1993 में स्वदेश के दायित्व से निवृत्त हुए और भोपाल गये। संगठन की योजना से वह भाजपा में गए। आज इसको तीन दशक से अधिक समय हो गया , पर स्वदेश से उनका संबंध वैसा ही रहा और उन्होंने भी अपना परिचय हमेशा स्वदेश के साथ ही जोड़ कर दिया। वह संपादक कभी नहीं रहे स्वदेश में। पर आज भी प्रभात जी का उल्लेख स्वदेश के साथ आता ही है। मैं अभी अभी रायपुर,बिलासपुर में था। स्वदेश का नाम चले और प्रभात जी का नाम न आए , यह हो ही नहीं सकता था। आया भी। स्वदेश में तो प्रभात जी भी रहे हैं न …एक वरिष्ठ पत्रकार का प्रश्न था। इसलिए बेशक वह 1993 से स्वदेश में किसी दायित्व पर नहीं थे, पर हम को कभी लगा ही नहीं कि प्रभात जी, स्वदेश में नहीं हैं। और आज जब कलम लड़खड़ा रही है यह लिखते हुए कि वह अब इस दुनिया में ही नहीं है तो बिना उनके स्वदेश की कल्पना से ही गला रूँध रहा है।
स्वदेश ,पत्रकारिता की नर्सरी है। वर्ष 1990 घटना है। मैं स्वदेश में प्रशिक्षु था। घर से स्वदेश और स्वदेश से घर यह रूटीन था । प्रभात जी ताड़ गये थे। अवसर की तलाश रही होगी। एक दिन जब मैं घर के लिए निकल रहा था तब स्वदेश के पास एक एंबेसडर गाड़ी थी। प्रभात जी पीछे से निकल रहे थे। पूछा कहाँ जा रहे हो ? मैंने कहा, घर। बैठो ,मैं छोड़ दूँगा। तब हम फाल्के बाज़ार में श्री इन्दपुरकर जी के बाड़े में रहते थे। मैं बैठ गया पर गाड़ी रास्ते के पास से तो गुजरी, लेकिन बाड़े होते हुए थोड़ी ही देर में लक्ष्मी गंज होते हुए आगरा मुंबई राष्ट्रीय राजमार्ग से बातें करने लगी। मैं घबरा गया। मोबाइल उन दिनों थे नहीं और घर पर बताया नहीं था। प्रभात जी ने कहा , हम आगरा चल रहे हैं। सदर्न की बड़ी दुर्घटना है। यह मेरी पहली मैदानी रिपोर्टिंग का अभ्यास भी था और इस पेशे में अनिश्चितता भी है, यह समझाने का एक पाठ्यक्रम भी ।
आज इंटरनेट की दुनिया है। कल्पना करें । वर्ष 1992 में 6 दिसंबर को अयोध्या में ढाँचे को ध्वस्त कर दिया था। कड़ाके की ठंड, सुरक्षा के ख़तरे को पूरी तरह नजरअंदाज करते हुए अयोध्या से ग्वालियर की दूरी सड़क मार्ग से तय करके आना और फ़ोटो देना, यह साहस प्रभात झा ही कर सकते हैं।
कहते हैं ,पत्रकार के संपर्क का दायरा तो होता है। पर प्रेम से नहीं, डर के कारण। ग्वालियर में तब बीच में कुछ समय के लिए प्रदीप पंडित कार्यकारी संपादक थे। प्रभात जी से उन्होंने पूछा। आप रिपोर्टर हो , गाड़ी आपको चलानी चाहिए। प्रभात जी ने कहा ,रिपोर्टर हूँ ,ड्राइवर नहीं। जहां खड़ा होता हूँ, गाड़ी रुक जाती है। भाजपा के बड़े नेता और सांसद के नाते तो यह सुविधा काफ़ी बाद में उनके भविष्य में छिपी थीं। पर मैंने देखा है, लोग अपने गंतव्य की दिशा बदल कर भी उनको उनके गंतव्य तक छोड़ने में ख़ुशी अनुभव करते थे। न केवल ग्वालियर , यह तो उनकी प्रारंभिक कर्म भूमि रही ,पर वह जहाँ भी जाते थे ,पूरे परिवार को अपना बना लेते थे। शाम को उनकी टेबल पर अक्सर इतने घरों से खाने के डिब्बे आते थे कि हम देख कर दंग हो जाते थे ।
पत्रकारिता के सूत्र इस प्रकार की सुई भी गिरती थी तो प्रभात जी को खबर रहती थी। क्या भाजपा, क्या कांग्रेस, क्या वामपंथी, प्रभात जी सबकी खबर ले लेते थे। पर व्यक्तिगत संबंध उतने ही मधुर। वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हों या उसी कार्यालय का भृत्य, प्रभात जी उसके हैं यह विश्वास उन्होंने कमाया। लक्ष्मी पुत्रों से भी उनके संबंध चूल्हे तक थे, पर मजाल प्रभात जी की कलम कभी बिकी हो, इसका आरोप तो दूर किसी ने चर्चा भी की हो। ऐसे थे प्रभात जी, ऐसे थे हम सब के भाईसाहब ।
अभी अभी, लगभग एक माह पहले ही प्रभात जी स्वदेश आये थे। उनका विचार था कि उनके पुराने आलेख, खोजी रपट, साक्षात्कार और विश्लेषण जो स्वदेश में प्रकाशित हुए हैं उनको एक पुस्तक का आकार दिया जाये। उनका यह भी सुझाव था कि आयोजन में प्रधानमन्त्री श्री नरेंद्र मोदी को बुलाएँगे। मैं उत्साहित था। काम भी शुरू किया था। पर अब …?
जहाँ तक भारतीय जनता पार्टी का प्रश्न है। एक बड़ा शून्य वहाँ भी है। व्यक्तिगत संपर्क, आत्मीय रिश्ते, सतत संवाद प्रभात की कि पूँजी थी। आज यह पार्टी के विस्तार के साथ कुछ कम हुआ है। ऐसे में प्रभात जी की अनुपस्थिति एक त्रासदी ही है ।
पुनश्च :एक बात प्रभात जी से ही, भाईसाहब से ही, आप तो संघर्ष के पर्याय थे। हार कैसे गये ? पहले भी आपने मृत्यु को चुनौती दी है। इस बार क्यों कमजोर पड़ गये ? जवाब दो ?
और आख़िर में …
हे विधाता ,समाज में ,लोक जीवन में ‘शुगर ‘ तेज़ी से कम हो रही है। उनके शरीर की शुगर ले लेता और समाज में बाट देता। अब यह दुनिया भी तेरी ही है पर प्रभात के बिना …
यह तेरा निर्णय अभी असमय ही है। जाना सबको है।
पर प्रभात का यह अवसान असमय है।
विनम्र श्रद्धांजलि ।
(अतुल तारे, समूह संपादक, दैनिक स्वदेश)
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