फिलहाल तो संविधान की कथित रक्षा नारों-भाषणों और राजनीतिक रणनीति के केंद्र में रहने वाली है। क्यों? इसलिए कि ‘सेफ्टी वाल्व’ पार्टी ने लोकतांत्रिक राजनीति में उखड़ते पैरों को जमाने के लिए जिन नुस्खों को आजमाया, उनमें एक यह भी था और चूंकि लोकसभा में पार्टी की सीटों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई, तो नुस्खों को भला क्यों बदलें? यह बात और है कि संविधान की दुहाई देना, उसकी कसमें खाना और उसी की आत्मा को आहत करना अंग्रेजों के हितों को साधने के लिए एक अंग्रेज द्वारा स्थापित इस पार्टी की फितरत रही है।
इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर किस तरह लोकतंत्र की हत्या की, सब जानते हैं। आज इंदिरा के काल से थोड़ा पीछे चलते हैं। अचकन में लगे गुलाब को तो सबने देखा, यह भी देखना चाहिए कि इसके कांटे कहां-कहां लगे। अब चर्चा में संविधान है, तो इसी की बात करते हैं।
संविधान निर्माता बाबासाहेब आंबेडकर की बातों को इस देश को हमेशा याद रखना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट रूप से आगाह किया था कि ‘संविधान की सफलता इसे व्यवहार में लाने वालों की नीयत पर निर्भर करती है।’ आंबेडकर की बातें देश के आजाद होने के चंद सालों के भीतर ही सही साबित होने लगीं। इसकी शुरुआत उन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने की जो दुनियाभर में लोकतांत्रिक मूल्यों की कसमें खाते फिरते थे। तब देश का पहला चुनाव भी नहीं हुआ था और अस्थायी संसद चल रही थी। नेहरू का संविधान पर पहला वार हुआ था अनुच्छेद 19(1-ए) में दी गई अभिव्यक्ति की आजादी पर।
इसमें उपखंड-2 जोड़कर सरकार को यह अधिकार दे दिया गया कि वह ‘मानहानि, अदालत की अवमानना, शिष्टता या नैतिकता के उल्लंघन के मामलों में’ आवश्यक कानून बना सके। नेहरू के मुताबिक ‘शिष्टता’और ‘नैतिकता’ भी ऐसे विषय हैं, जिनके बारे में कानून बनाने का काम सरकार का है। लेकिन आज भी कांग्रेस इस बात का रोना रोती है कि ‘मोदी सरकार के दौरान अभिव्यक्ति की आजादी संकट में है!’
1951 में संविधान सभा में जब संसद के प्रारूप पर चर्चा हो रही थी, नेहरू ने दलील दी: ‘भारत में हर चीज को भगवान बना देने की अजीब आदत है… यदि आप इस संविधान की हत्या करना चाहते हैं तो इसे पवित्र और अपरिवर्तनीय बना दीजिए।’ साफ है, नेहरू एक ऐसा संविधान चाहते थे जो लचीला हो, जिसमें आने वाले समय के साथ बदलाव किया जा सके ताकि उसकी प्रासंगिकता बनी रहे।
सुनने में कितना अच्छा! लेकिन उन्होंने किया क्या? 1951 में पहले संशोधन के जरिये संविधान में अनुच्छेद 31 (बी) जोड़ दिया। इसके जरिये संविधान में 9वीं अनुसूची डाली गई जिसके प्रावधानों को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती और इसके लिए मौलिक अधिकारों समेत किसी भी अधिकार के हनन को आधार नहीं बनाया जा सकता। यानी सिद्धांत के तौर पर तो नेहरू ने बात की एक लचीले, समय के साथ बदले जा सकने वाले संविधान की, लेकिन व्यवहार में उसे अपरिवर्तनीय बनाने की व्यवस्था कर दी।
इतना ही नहीं, विरोधाभास देखिए, नौवीं अनुसूची का प्रावधान करते हुए नेहरू ने संसद को सफाई भी दी थी कि ‘इस सूची में खास तरह के कानून (भूमि सुधार संबंधी) हैं और इसमें दूसरी तरह के कानून शामिल नहीं किए जाने चाहिए।’ शुरू में इस अनुसूची में 13 कानूनों को रखा गया था। लेकिन एक बार फिर नेहरू की कथनी और करनी में अंतर रहा। 1955 में नेहरू ने चौथे संविधान संशोधन के जरिये 9वीं अनुसूची में सात और कानूनों को शामिल कर दिया और वे कानून ‘खास’ तरह के ही नहीं थे, बल्कि इनमें बीमा, रेलवे और उद्योगों के नियमन से संबंधित कानून थे। अपने अंतिम दिनों में नेहरू के निशाने पर एक बार फिर वही संविधान था।
इस बार 44 कानूनों को 9वीं अनुसूची में डालने के लिए नेहरू सरकार ने अप्रैल, 1964 में लोकसभा में सातवां संविधान संशोधन पेश किया। तब संविधान के अनुच्छेद-3 में भी बदलाव की कोशिश की गई थी। नेहरू सरकार चाहती थी कि नए राज्य बनाने या वर्तमान राज्यों की सीमाओं को बदलकर उन्हें एक से अधिक राज्यों में बांटने का अधिकार राष्ट्रपति के पास हो और अगर राष्ट्रपति किसी राज्य को विभाजित करें, तो उसमें उस राज्य के चुने हुए प्रतिनिधियों की कोई भूमिका न हो।
तब नेहरू सरकार की संदिग्ध मंशाओं के कारण लोकसभा में इसपर सहमति नहीं बन सकी और यह विधेयक पारित नहीं हो सका। विभिन्न दलों के सांसदों ने इस पर हुई चर्चा के दौरान इसे भारतीय संविधान में निहित ‘संघवाद’ के खिलाफ बताया। संविधान बनाने वालों ने भारत की कल्पना एक ऐसे देश के रूप में की थी जिसमें विभिन्न राज्य कुछ विषयों को छोड़कर अपने सभी निर्णय लेने को स्वतंत्र थे। बहरहाल, इस ‘संघवाद’ शब्द से कुछ याद आया? यही वह शब्द है जिसकी दुहाई आज राहुल गांधी अक्सर दिया करते हैं।
साफ है, संविधान के विरुद्ध काम करना, इसकी आत्मा को आहत करना कांग्रेस की धमनियों में रक्त की तरह बहता है। वह कहेगी कुछ, करेगी कुछ और। विरासत ही ऐसी है!
@hiteshshankar
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