विश्वविख्यात नालंदा विश्वविद्यालय का नवनिर्माण भारतीय शिक्षा-प्रणाली के उत्थान और वैश्विक शिक्षा में भारत की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम है। गत 19 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नालंदा विवि के नवनिर्मित भवनों का उद्घाटन कर अपने भाषण में इस सत्य का उद्घोष इन शब्दों में किया, ‘‘आग की लपटों में पुस्तकें भले जल जाएं, लेकिन आग की लपटें ज्ञान को नहीं मिटा सकतीं। नालंदा के ध्वंस ने भारत को अंधकार से भर दिया था। अब इसकी पुनर्स्थापना भारत के स्वर्णिम युग की शुरुआत करेगी। अपने प्राचीन अवशेषों के समीप नालंदा का नवजागरण, यह नया परिसर, विश्व को भारत की सामर्थ्य का परिचय देगा। नालंदा बताएगा कि जो राष्ट्र मजबूत मानवीय मूल्यों पर खड़े होते हैं, वे इतिहास को पुनर्जीवित करके बेहतर भविष्य की नींव रखना जानते हैं।’’ प्रधानमंत्री मोदी का सपना है कि भारत एक बार फिर उसी प्राचीन गौरव को प्राप्त करे जब न केवल अपने देश के विद्यार्थी अपितु दुनियाभर के विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए भारत में भविष्य देखें।
यह निर्विवाद तथ्य है कि समग्र विश्व में शिक्षा के क्षेत्र में नालंदा महाविहार का स्थान सर्वोपरि था। पटना से लगभग 90 किमी दक्षिण-पूर्व में बड़गांव नामक स्थान के सुविस्तृत क्षेत्र में विद्यमान इसके खंडहरों को देख एक बहुत बड़े किले का आभास होता है। लाल पत्थरों से निर्मित इस आवासीय शिक्षा केंद्र में दस हजार विद्यार्थी रहकर पढ़ते थे और उनके लिए 1,500 शिक्षकों की व्यवस्था थी। 23 हेक्टेयर में फैले इन खंडहरों को 2016 में यूनेस्को ने विश्व-धरोहर-स्थलों में सम्मिलित किया।
नालंदा शब्द की व्युत्पत्ति
‘नालंदा’ शब्द की व्युत्पत्ति के विषय में प्रचलित मान्यता है- नालं ददाती इति नालंदा अथवा न अलं ददाती इति नालंदा। अर्थात् जहां कमल के नाल पाए जाएं अथवा जो प्रचुर कमल दे सके वहां है नालंदा।
प्राचीन बौद्ध तथा जैन-ग्रंथों में नालंदा
दीर्घविकाय से पता चलता है कि मगध की राजधानी राजगृह से एक योजन उत्तर-पश्चिम नालंदा एक ‘समृद्ध, संपन्न तथा बहुजनाकीर्ण’ नगर था। यहीं के एक सेठ-परिवार ने गौतम बुद्ध के निवासस्थान के लिए अपना आम्रवन दान में दे दिया था। पालि-ग्रंथों में अनेक बार भगवान् बुद्ध का राजगृह से नालंदा आने का उल्लेख मिलता है। बुद्ध के प्रधान शिष्य सारिपुत्र का जन्म नालंदा के पास ही नालक नामक ग्राम में हुआ था। इस स्थान पर बौद्ध भिक्षुओं एवं उपासकों के लिए सारिपुत्र की स्मृति में एक चैत्य का निर्माण हुआ।
चीनी-यात्री ह्वेनसांग ने उल्लेख किया है कि मगध के 500 व्यापारियों ने दस कोटि स्वर्णमुद्राओं का दान कर यहां एक विस्तृत भूखंड खरीदा था। तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ (1575-1634) ने लिखा है कि सम्राट अशोक ने यहां आकर सारिपुत्र के चैत्य की पूजा की थी। उससे वहां उनके लिए उसने एक सुंदर मंदिर का निर्माण भी कराया था। इस सारिपुत्र चैत्य के इर्द-गिर्द जो भिक्षु-विहार बने थे, वे ही कालांतर में शिक्षा के केंद्र हो गए। आज भी प्राचीन खंडहर के पास सारिपुत्र का अवशेषस्वरूप ‘सारिचक’ नामक एक ग्राम विद्यमान है।
विश्वविद्यालय के रूप में अस्तित्व
अशोककालीन प्रसिद्ध बौद्ध मठ नालंदा के विश्वविद्यालय-जैसे स्वरूप का निर्माण गुप्त-शासक कुमारगुप्त शक्रादित्य (415-455 ई.) ने करवाया। न केवल निर्माण अपितु पोषण भी राजकीय अनुदानों से ही हुआ। अन्य गुप्त-शासकों, जैसे-बालादित्य, तथागतगुप्त आदि ने भी नालंदा में निर्माण कराया। छठी शताब्दी आते-आते नालंदा एक बहुत बड़े शिक्षा केंद्र के रूप में विकसित हो चुका था। कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन के काल में नालंदा काफी फला-फूला। आठवीं सदी के बाद बंगाल के पाल वंश ने नालंदा की देखरेख की। नालंदा में कन्नौज शासक यशोवर्मन के दान-अभिलेख भी मिले हैं। नालंदा के खर्चों के लिए ह्वेनसांग ने 100 तथा इत्सिंग ने 201 गांवों से मिलने वाले कर की बात की है। साथ ही इसे धर्मनिष्ठ धनी वर्ग से अनुदान भी खूब मिलता था। ह्वेसांग ने लिखा है कि इन गांवों से प्रतिदिन सैकड़ों मन चावल और दूध-माखन बैलगाड़ियों से भरकर आता था।
प्रवेश-परीक्षा
प्राचीन नालंदा महाविहार में प्रवेश पाने के मानदंड बेहद कठिन थे। यहां आने वाला कोई भी विद्यार्थी अपनी जाति, वर्ण या समुदाय से नहीं, बल्कि मौखिक परीक्षा में उत्तीर्ण होकर ही प्रवेश पाता था। ह्वेनसांग के अनुसार प्रवेशार्थियों की परीक्षा ‘द्वारपंडित’ द्वारा ली जाती थी। उसने दस प्रवेशार्थियों में से तीन को ही उत्तीर्ण होते देखा था। नालंदा में एक बार प्रविष्ट भर हो जाना विद्यार्थी की उच्च योग्यता का परिचायक माना जाता था। इसलिए ह्वेनसांग ने लिखा है, ‘चोरी से अपने को नालंदा का स्नातक बताने वाला भी सभी जगह सम्मान पाता था।’
पाठ्यक्रम और वैश्विक ख्याति
नालंदा महाविहार की शिक्षा बौद्ध साहित्य तक ही सीमित न थी, अपितु तत्कालीन सभी विषय उसमें सन्निविष्ट थे। नालंदा का पाठ्यक्रम बहुत विस्तृत था। यहां तीनों वेद, वेदांत, धर्मशास्त्र, पुराण, ज्योतिष, चिकित्सा, सांख्यदर्शन के साथ-साथ अन्य भौतिक विषयों की शिक्षा भी दी जाती थी। ह्वेनसांग ने यहां वेद, हेतुुविद्या, न्यायशास्त्र, भाषाविज्ञान, चिकित्साशास्त्र, ज्योतिष आदि के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था का उल्लेख किया है। तत्कालीन संघस्थविर शीलभद्र, जो योगशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे, ने ह्वेनसांग को दंडनीति तथा पाणिनीय व्याकरण पढ़ाया था। नालंदा मुख्यतया महायान-दर्शन का केंद्र था। नालंदा की सबसे बड़ी देन भारतीय न्यायशास्त्र तथा प्रमाणशास्त्र के विकास के रूप में हुई।
नालंदा महाविहार के धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति, स्थितमति, बुद्धभद्र आदि धुरंधर आचार्यों का उल्लेख ह्वेनसांग ने भी किया है। तिब्बती राजा सांग-स्तंग गम्पो ने अपने मंत्री थान-मि को अध्ययनार्थ नालंदा भेजा था। उसने यहां के प्रकांड विद्वान् आचार्य देवविद के निर्देशन में बौद्ध तथा ब्राह्मण-ग्रंथों का अध्ययन किया था। तिब्बत के एक दूसरे राजा यि-संगस्तन (800-815) ने यहां के कुलपति शांतरक्षित तथा पद्मसंभव को अपने यहां निमंत्रित किया था। इसी राजा ने प्रकांड पंडित शीलभद्र को चीनी पंडितों से शास्त्रार्थ करने के लिए बुलाया था।
नालंदा महाविहार की ख्याति उसकी उच्च शिक्षा के कारण तिब्बत, चीन, जापान, भूटान, कोरिया, मंगोलिया, इंडोनेशिया, पर्शिया, तुर्की, लंका आदि देशों में पहुंच चुकी थी। चीनी-यात्री इत्सिंग जब यहां आया, तो उसे लंका से आए विद्यार्थी मिले थे। उसने चीन, जापान, कोरिया से आए 55 विद्यार्थियों की भी चर्चा की है।
नालंदा महाविहार की भव्यता, उसकी शैक्षिक परंपरा और प्रशासन का सबसे आकर्षक और विस्तृत वर्णन ह्वेनसांग के यात्रा-विवरण ‘सी-यू-की’ से मिलता है। ह्वेनसांग अनेक स्थानों की यात्रा करते हुए 633 ई. के आसपास नालंदा पहुंचा था और यहां उसने लगभग पांच वर्ष का समय बिताया था। नालंदा में ह्वेनसांग को ‘मोक्षदेव’ नाम मिला था। ह्वेनसांग के जाने के बाद नालंदा की ख्याति इस कदर फैली की आगामी तीन दशक में चीन और कोरिया से ग्यारह यात्री यहां आए।
नालंदा का पुस्तकालय
नालंदा महाविहार में 90 लाख हस्तलिखित ग्रंथों वाले पुस्तकालय का एक विशिष्ट क्षेत्र था, जो ‘धर्मगंज’ के नाम से पुकारा जाता था और जिसमें ‘रत्नसागर’, ‘रत्नोदधि’ और ‘रत्नरंजक’ नामक तीन विशाल पुस्तकालय भवन थे। इनमें ‘रत्नसागर’ का भवन नौ-मंजिला था। ह्वेनसांग ने नालंदा के पुस्तकालय का बड़ा गौरवपूर्ण उल्लेख किया है। बख़्तियार खिलजी की सेना द्वारा जलाए जाने पर ये पुस्तकालय भवन लगभग छह महीने तक जलते रहे थे। इन्हीं के साथ यहां ज्ञान का सूर्य लगभग अस्त हो गया और वे अमूल्य ग्रंथरत्न सदा के लिए भस्म हो गए, जिनका उल्लेखमात्र हम तिब्बती और चीनी-ग्रंथों में पाते हैं।
आक्रमणों की शृंखला और पतन
नालंदा महाविहार पर कई आक्रमण हुए और समय-समय पर पुनर्निर्माण भी हुआ। पहला आक्रमण छठी शताब्दी में मिहिरकुल ने किया था जिसे जल्दी ही ठीक कर दिया गया। आठवीं शती में बंगाल के गौड़ शासक के आक्रमण के दौरान भी नालंदा को काफी नुकसान हुआ था। पुरातत्त्वविद् हसमुख धीरजलाल सांकलिया (1908-1989) ने अपनी पुस्तक ‘द यूनिवर्सिटी आफ नालंदा’ में लिखा है, ‘‘किले जैसा परिसर और इसकी संपत्ति को लेकर फैली कहानियों के चलते आक्रमणकारी यहां हमले के लिए आकर्षित हुए होंगे। उत्खनन में अनेक बौद्ध मठों से बहुमूल्य धातुएं, सिक्के और सिक्के बनाने वाले सांचे मिले हैं। वस्तुत: बौद्ध भिक्षु इतने धनी हो गए थे कि कई जगहों पर इनके द्वारा दान लेने के स्थान पर दान देने के अभिलेखीय साक्ष्य मिले हैं।’’
महिपाल प्रथम (999 ई.) के एक शिलालेख पर लिखा है, ‘‘उसके ग्यारहवें शासन वर्ष में आग लगने से नालंदा नष्ट हुआ, जिसकी मरम्मत उसने स्वयं करवाई।’’ नालंदा के पतन पर अधिकांश इतिहासकारों का मत है कि 12वीं शती के अंत में मुहम्मद गोरी के सिपहसालार इख़्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी के नेतृत्व में आक्रमणकारियों की सैन्य टुकड़ी ने इस महान् शिक्षा केंद्र को जलाकर नष्ट कर दिया। नालंदा के विध्वंस के विषय में जानकारी देने वाला पहला स्रोत है 1234-36 ई. के तिब्बती बौद्ध भिक्षु और तीर्थयात्री ‘चाग लो-त्सा-बा चोस-रजे-दपाल’ अर्थात् धर्मस्वामिन् (1197-1264) का जीवनचरित ‘नाम-थार’ अर्थात् ‘जीवन-कथा’। 1234 में धर्मस्वामिन् तिब्बत से भारत आए थे।
इस पुस्तक के अनुसार धर्मस्वामिन् नालंदा से पहले वज्रासन (बोधगया) पहुंचते हैं और वहां का हाल देखकर सन्न रह जाते हैं। तुर्कों के डर से मुख्य बुद्ध मूर्ति को एक दीवार के पीछे छिपा दिया गया है। यहां के राजा बुद्धसेन (प्रसिद्ध सेन वंश से अलग) तुर्कों के डर से जंगल में छिपकर रह रहे हैं। धर्मस्वामिन् बताते हैं कि उदन्तपुरी महाविहार के विध्वंस के बाद तुर्क फौजों ने उसे अपनी छावनी बना लिया है। नालंदा के बारे में धर्मस्वामिन् बताते हैं कि नलेंद्र विहार (नालंदा) की शोभा उजड़ने के बाद अब वहां 90 वर्षीय आचार्य राहुल श्रीभद्र चार अन्य शिक्षकों के साथ लगभग 70 छात्रों को पढ़ाते हैं।
राहुल श्रीभद्र को आर्थिक सहयोग शुरू में राजा बुद्धसेन की ओर से मिलता था, फिर आचार्य के शिष्य, उदन्तपुरी के एक धनी ब्राह्मण जयदेव उनका और शिष्यों का खर्च उठाने लगे। बीच में तुर्क फौज ने जयदेव को गिरफ्तार कर लिया तो जेल से ही उन्होंने आचार्य के पास संदेशा भिजवाया कि नालंदा पर दूसरा हमला होने वाला है, जल्दी वहां से निकल जाएं। राहुल श्रीभद्र ने सारे शिष्यों को बाहर भेज दिया और खुद अपनी अधिक उम्र का हवाला देकर विहार में ही डटे रहे। उन्हें देखकर धर्मस्वामिन् उन्हें साथ लिए बिना नालंदा से हिलने को राजी नहीं हुए। काफी कहने-सुनने पर राहुल श्रीभद्र धर्मस्वामिन् के कंधों पर सवार होकर बाहर निकले और निकलते-निकलते दोनों ने एक जाली से घुड़सवार तुर्क सैनिकों को महाविहार में प्रवेश करते देखा।
दूसरा स्रोत है मिनहाज-ए-सिराज कृत ‘तबकात-ए-नासिरी’। 13वीं शती की इस कृति में तुर्क आक्रांताओं द्वारा नालंदा के विध्वंस का वर्णन मिलता है-वह (बख्तियार खिलजी) उन हिस्सों और उस देश में अपने लूटपाट को तब तक ले जाता रहा जब तक कि उसने बिहार के किलेबंद शहर पर हमला नहीं किया। …उसने दो सौ घुड़सवारों के साथ बिहार के दुर्ग के प्रवेश द्वार पर चढ़ाई की और एकाएक हमला कर दिया। उस स्थान के निवासियों में अधिक संख्या ब्राह्मणों की थी और वे सब मारे गए। वहां बड़ी संख्या में पुस्तकें थीं; और, जब ये सभी पुस्तकें मुसलमानों की निगरानी में आईं, तो उन्होंने हिंदुओं को बुलाया ताकि वे उन्हें उन पुस्तकों के संबंध में जानकारी दे सकें पर सारे हिंदू मारे जा चुके थे।
नालंदा का उत्खनन
बख्तियार खिलजी के आक्रमण के बाद नालंदा धीरे-धीरे गुमनामी में खोता गया। सात शताब्दियों तक यह गहन अंधकार में डूबा रहा और इसके खंडहरों पर मिट्टी का विशाल टीला बन गया। 1811-12 में एक स्कॉटिश शल्य चिकित्सक फ्रांसिस बुकानन-हैमिल्टन ने इस स्थल का सर्वेक्षण किया। हालांकि बुकानन इसे नालंदा के खंडहर के रूप में स्थापित करने में विफल रहे। यह संबंध 1847 में मेजर मार्खम किट्टो ने स्थापित किया था। 1861-62 में सर अलेक्जेंडर कनिंघम के नेतृत्व में नवगठित भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण ने नालंदा का एक आधिकारिक सर्वेक्षण किया। परंतु नालंदा को अपने उद्धार के लिए 1915 तक प्रतीक्षा करनी पड़ी, जो 1937 में समाप्त हुई।
राष्ट्रपति कुलाध्यक्ष
भारत की राष्ट्रपति इस विश्वविद्यालय की कुलाध्यक्ष हैं। विश्वविद्यालय के पहले कुलाधिपति प्रो. अमर्त्य सेन थे, उसके बाद सिंगापुर के पूर्व विदेश मंत्री जॉर्ज यो योंग-बून इस पद पर रहे। तीसरे कुलाधिपति विजय पांडुरंग भटकर थे जिनका कार्यकाल 2017 से 2023 तक रहा। वर्तमान कुलाधिपति अरविंद पनगढ़िया हैं। विश्वविद्यालय के भवन बौद्ध स्तूपों की वास्तुकला के उत्कृष्ट निदर्शक हैं।
नालंदा महाविहार की मुहर
विध्वंस से पूर्व दशम् शताब्दी की नालंदा महाविहार की आधिकारिक मुहर। ऐसी 15 मुहरें ब्रिटिश संग्रहालय में हैं और अपने देश में दो-चार। इन मुहरों में देवनागरी लिपि में ‘श्रीनालंदामहाविहार’ लिखा हुआ है। ऐसी मुद्राएं 1932 में नालंदा की खुदाई में प्राप्त हुई थीं और 1937 में ये ब्रिटिश संग्रहालय पहुंचा दी गईं। जिस समय ऐसी मुहरें मिली थीं, तब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक रायबहादुर दयाराम साहनी थे। उनके बाद जे.एफ. ब्लैकिन्स्टन महानिदेशक हुए, जिन्होंने इन मुहरों को ब्रिटिश संग्रहालय में भिजवाया।
बिहार के मस्तक पर कलंक
नालंदा के ध्वंसक बख़्तियार खिलजी के नाम पर बिहार में ‘बख़्तियारपुर जंक्शन’ तथा ‘सिमरी बख़्तियारपुर’ नाम से दो रेलवे स्टेशन हैं। कह सकते हैं कि ये बिहार के मस्तक पर शर्मनाक कलंक है। अब लोग मांग कर रहे हैं कि इन स्टेशनों के नाम बदले जाएं।
अतीत-गौरव को पुनर्जीवित करने के प्रयास
नालंदा के गौरव को पुनर्स्थापित करने के उद्देश्य से तथा पालि, बौद्ध मत, संस्कृति, इतिहास आदि विषयों के उच्चतम अध्ययन एवं अनुसंधान के लिए बिहार सरकार के सहयोग से 1951 में यहां ‘नवनालंदा महाविहार’ की स्थापना हुई।
28 मार्च, 2006 को तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने नालंदा विश्वविद्यालय के पुनरुद्धार के लिए बिहार विधानमंडल के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए इस विचार का प्रस्ताव रखा। अगले वर्ष बिहार विधानसभा ने एक नए विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए विधेयक पारित किया।
21 अगस्त, 2010 को राज्यसभा में और 26 अगस्त, 2010 को लोकसभा में नालंदा विश्वविद्यालय विधेयक-2010 पारित किया गया। इस विधेयक को 21 सितंबर, 2010 को राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त हुई और इस तरह यह एक अधिनियम बन गया। 25 नवंबर, 2010 को अधिनियम लागू होते ही विश्वविद्यालय अस्तित्व में आ गया। इसे 18 देशों द्वारा समर्थन मिला था जो इसमें निवेश करने के उत्सुक थे।
2014 से नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश प्रारंभ हो चुका है। अपनी पुरानी प्रतिष्ठा तक पहुंचने के लिए नालंदा को अभी लंबा सफर तय करना होगा, लेकिन हम उम्मीद कर सकते हैं कि सरकार का यह प्रयास भारत के शिक्षा क्षेत्र में एक बार फिर विश्वगुरु बनने के दिशा में एक सार्थक कदम है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं इतिहासवेत्ता हैं)
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