जून, 1975 में आपातकाल की घोषणा करने से पूर्व ही देश में उस समय की सरकार व व्यवस्थाओं के विरुद्ध अक्रोश का प्रदर्शन सार्वजनिक हो गया था। विद्यार्थियों ने व्यवस्था परिवर्तन व संपूर्ण क्रांति की मांग को ऊंचे स्वर में मुखर कर दिया था। आग्रह करने पर जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन की बागडोर संभाली थी। 1974 में मैं भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली में शोध सहायक के पद पर कार्यरत था। संस्थान का ‘इकोसिस्टम’ तात्कालीन सरकार के पक्ष में था। संस्थान के अध्यक्ष सूचना व प्रसारण मंत्री थे।
‘टाइम्स आफ इंडिया’ के पूर्व मुख्य संपादक निदेशक थे। लगभग सभी अध्यापक व शोधार्थी व्यवस्था के पक्षवाली विचारधारा से थे। मार्च-अप्रैल, 1974 में गृह मंत्रालय व सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के सुझाव पर तय हुआ कि युवाओं के मन व मत को जानने के लिए शोध आधारित सर्वेक्षण करना चाहिए। गहन विमर्श के बाद तय हुआ कि ‘जेपी आंदोलन के प्रति मनोदृष्टि व राय – बिहार के चार नगरों का सर्वेक्षण’ विषय पर प्रत्यक्ष शोध किया जाए। शोध विभाग के मुखिया प्रोफेसर के नेतृत्व में एक टीम का गठन हुआ। सर्वेक्षण के लिए प्रश्नावली बनी, मंत्रालय से अनुमोदन हुआ और थोड़े संघर्ष के बाद प्रश्नावली का हिंदी अनुवाद हुआ। लगभग एक हजार प्रतियां साक्लोस्टायल हुईं।
7-8 शोधार्थियों की टोली को बिहार रवाना किया गया, रेल के आरक्षण में मंत्रालय ने सहायता की। जून-जुलाई की तपती गर्मी में पटना, मुजफ्फरपुर, मुंगेर व गया में 831 युवाओं से साक्षात्कार करके डाटा एकत्रित किया। मेरा मानवशास्त्र के अध्ययनों का अनुभव होने के कारण आंदोलन में सक्रिय युवा नेतृत्व से प्रत्यक्ष बात करके उनके मन को टटोलने का काम मुझे सौंपा गया। सभी युवा नेता या तो जेल में थे या भूमिगत थे। एक स्थानीय विद्यार्थी नेता, जो बाद में मंत्री बने, से मित्रता की और कुछ भूमिगत युवाओं से साक्षात्कार किए। लालू यादव उस समय अति सक्रिय व मुखर नेता थे। छद्म वेष में एक झोंपड़े में उनसे बात की और पहली बार सत्तू का आनंद लिया। एक अन्य सक्रिय कार्यकर्ता के माध्यम से जेल में जाने का भी तीन बार मौका मिला। कलाई पर मोहर लगवाने से जेल में जाना व आना हो जाता था।
चार नगरों की जेल में 12 युवा नेताओं से बात हुई व कुल मिलाकर 21, जिसमें 9 भूमिगत थे, का डाटा मेरे नोट्स में बना। परंतु इस तरीके को छोड़ना पड़ा जब पता लगा कि स्थानीय पुलिस हम पर नजर रख रही थी और जिस भूमिगत युवा से साक्षात्कार करते थे वह कुछ घंटों में गिरफ्तार हो जाता था। आंदोलनकारियों को मेरे पर खुफिया पुलिस अधिकारी होने का शक हो गया। गया में एक और साक्षात्कार करवाने का झांसा देकर मुझे अकेले रिक्शा में बिठाकर जंगल में स्थित एक कृषि महाविद्यालय में ले गए। बंद कमरे में धमकाने और पूछताछ का सिलसिला चला। कुछ देर के लिए खंबे से भी बांधा, गर्मी बहुत थी, लेकिन पंखा बंद कर दिया था। परंतु शिमला व चंडीगढ़ के विद्यार्थी परिषद के संपर्क देने से सम्मानपूर्वक जहां से उठाया था वहीं छोड़ दिया।
एक दूसरी घटना पुलिस की शैली को समझने के लिए काफी है। मुजफ्फरपुर में एक कॉलेज को पुलिस ने घेर रखा था। अंदर एकत्रित विद्यार्थियों को उकसा कर बाहर निकालना और उनकी अच्छी ठुकाई करने का विचार पुलिस का था। गुप्त सूत्रों से सूचना मिली तो आंदोलन का प्रत्यक्ष अनुभव लेने के लिए हम वहां पहुंच गए। उन दिनों मेरे पास 72 फ्रेम वाला कैमरा था। उससे मैं फोटो ले रहा था। और भी मीडिया के लोग आ गए थे। 4-5 घंटे तक जब विद्यार्थियों ने बाहर आने की गलती नहीं की, तो हमारे सामने दो पुलिसकर्मियों ने वर्दी खोल कर लुंगी पहनी और कॉलेज के बाहर से ही पुलिस पर पत्थर फेंके। इसको यह बता कर कि अंदर से आंदोलनकारियों ने हिंसा प्रारंभ की है, पुलिस दरवाजे तोड़कर अंदर घुस गई और गुस्से में विद्यार्थियों की जम कर ठुकाई कर दी। मुझे कुछ फोटो लेने का मौका मिल गया। पुलिस के एक अधिकारी ने शायद यह सब देख लिया और हम तीन लोगों को पुलिस की गाड़ी में बैठने को कहा।
मेरा कैमरा छीन लिया और उसको खोल कर रील को एक्सपोज करने का प्रयास किया, परंतु जापानी कैमरा था, उससे खुला ही नहीं। तब तक स्थानीय खुफिया तंत्र ने उन्हें बताया कि हम केंद्र से शोध करने के लिए आए हैं। हमें छोड़ दिया पर इससे विद्यार्थियों के मन में हमारे विषय में शक और बढ़ गया। अन्य रोमांचकारी क्षण तब के हैं जब मेडिकल कॉलेज में जेपी के भाषण के समय पुलिस ने गोली चलाई। मैं मंच पर नए खरीदे टेप रिकॉर्डर पर भाषण को रिकॉर्ड कर रहा था। परिसर से भागते हुए दीवार पर लगे शीशे से बाईं जांघ में घाव हुआ था। शोध करते-करते आंदोलन में इतने रम गए कि वापस जाने का मन नहीं हुआ और कदमकुआं में जेपी के निवास पर रहना शुरू कर दिया। परंतु दबाव पड़ रहा था कि जल्दी से लौट कर रिपोर्ट बनानी है। सर्वे शोध में एक प्रक्रिया होती है कोडिंग की।
हमारी टीम में कोडिंग केवल मैं कर सकता था, यह मैंने एक अमेरिकी प्रोफेसर से सीखा था, जो भारत में काम करता था। खैर, मैं वापस दिल्ली गया और 20-25 दिन में रिपोर्ट बन गई। पांच कॉपी साक्लोस्टायल हुईं, हमारे ड्राफ्ट व नोट्स वगैरह सब ले लिए गए। सारी रिपोर्ट में यह उभर कर आया कि बिहार का युवा वर्ग सरकार के प्रति पूरी तरह से नकारात्मक सोच रखता है। विद्यार्थियों का यह आंदोलन सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए संकल्पित है।
रिपोर्ट जमा कराने के बाद हम सब दूसरे काम में लग गए, परंतु कुछ ही दिनों में रिपोर्ट पर गजब की प्रतिक्रिया हुई। किसी तरह से रिपोर्ट की प्रति विपक्ष के नेताओं के हाथ लग गई। राज नारायण, रवि रे और शायद कर्पूरी ठाकुर ने रिपोर्ट के आंकड़े देते हुए संसद में इस विषय को उठाया। भारतीय जनसंचार संस्थान के शोध विभाग द्वारा किया गया शोध गर्म चर्चा का विषय बन गया। तत्कालीन सूचना व प्रसारण मंत्री ने आंकड़ों के साथ सरकारी पक्ष को रखने का प्रयास किया। हमारे शोध की एक जानकारी यह थी कि 91 प्रतिशत बिहार के युवा आकाशवाणी के समाचारों में दी गई जानकारी पर बिल्कुल विश्वास नहीं करते थे।
हम पर दबाव डाला गया कि हम बयान दें कि भूलवश 91 प्रतिशत लिखा गया, जबकि वास्तव में 19 प्रतिशत ही आकाशवाणी के समाचारों पर विश्वास नहीं करते। टीम के किसी सदस्य ने ऐसा नहीं किया और धीरे-धीरे अन्य राजनीतिक मामलों ने इस विषय को पीछे धकेल दिया। इस घटनाक्रम के बाद और जनता सरकार के आने तक मुझे शैडो किया गया पर आपातकाल में खुले में रहते हुए कुछ काम किया। एक पुलिस इंस्पेक्टर के सरकारी मकान में सबलेटिंग में रहता था, शायद इसलिए पकड़ा नहीं। तीन बार उस इंस्पेक्टर ने मुझे गायब होने के लिए कहा और इसकी व्यवस्था भी की।
‘उस तानाशाही से न्यायालय भी नहीं बचे थे’
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