चुनाव था, परिणाम भी आए, मगर चुनाव गुजर चुका है। कुछ लोग चुनाव में इतने खो गए कि अब तक उससे आगे नहीं सोच पा रहे हैं। उनके आकलन, उनकी कल्पनाएं-आशाएं उनका पूरा दृष्टिकोण मानो चुनाव और परिणाम से बिंध और बंध गया है।
विचारवान नागरिक होने के नाते यह सबकी जिम्मेदारी है कि चुनाव के बाद चीजों को बड़े फलक पर, राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखने का अभ्यास डालें, न कि चुनाव की खुमारी में ही डूबे रहें।
दूसरी बात, चुनाव युद्ध नहीं है।
चुनाव के बीच एक उफान और पालेबंदी होती है, हार से बचने के हर तरह के प्रयत्न होते हैं और जीतने के लिए हर तरह की तैयारी भी होती है। इन सबके बावजूद यह स्पर्धा ही है, कोई युद्ध नहीं है। अगर हम इसे स्थायी युद्ध मान लेंगे तो समाज के तौर पर बंट जाएंगे। चुनाव के मुद्दे कितने वास्तविक और कितने चुनावी हैं, इसकी छान-फटक जरूरी है।
उदाहरण के लिए, सत्ता पक्ष के सामने एकजुट विपक्षी दलों का जोर लालच देतीं पैसा बांटने की योजनाओं, ईवीएम-चुनाव आयोग पर दोषारोपण, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, मत और भाषा के आधार पर सामाजिक विभेद पैदा करने जैसे मुद्दों पर रहा। प्रश्न है-क्या ये मुद्दे तार्किक और कसौटी पर कसे जाने योग्य थे? क्या ये मुद्दे देश को मजबूत करने वाले थे? क्या ये मुद्दे आगे चलने-बढ़ाने लायक हैं?
इसलिए केवल राजनीति नहीं, बल्कि प्रयास यह होना चाहिए कि सामाजिक विमर्श के माध्यम से राजनीति में तार्किक मुद्दों और आज के प्रश्नों को जगह दी जाए। सोशल मीडिया के दौर में यह हम सब की भूमिका है।
राजनीति ऐसी ही है, किसी के लिए कभी खट्टी, तो किसी के लिए कभी मीठी। मगर अच्छा होगा कि राजनीति स्वयं को सुधारते हुए हो, पिछली चीजों से सबक लेते हुए हो।
जाति या पांथिक पहचान के आधार पर बांटना, लोगों को लड़ाना, यह राजनीति तो ब्रिटिश राज से चल ही रही थी, किंतु इस समाजघाती संकीर्ण राजनीति के सामने विकास की राजनीति का दूसरा ‘मॉडल’ पिछले एक दशक में बहुत अच्छे से सामने आया। आंकड़ों, तथ्यों और परिवर्तन की स्पष्ट तस्वीर के साथ आया।
अच्छी बात यह है कि युवाओं ने विकास की राजनीति को पसंद किया और इससे जुड़े भी। किन्तु विकास के मुद्दे का भी इस आधार पर परिमार्जन करना पड़ेगा कि विकास की भारतीय अवधारणा क्या है। शासन और समाज चिंतन के विविध आयामों में ‘स्व’ कहां है। हम परतंत्रता की बेड़ियां तोड़ कर आगे बढ़े हैं। परकीयता का तंत्र हमारे मन-मस्तिष्क, राजनीतिक दलों के सोच-विचार आदि पर बहुत बड़ा बोझ रहा है। इसलिए बार-बार इन चीजों का परिमार्जन कर इस कसौटी पर कसना पड़ेगा कि इसमें स्वदेशी, ‘स्व’ का गौरव, ‘स्व’ का बोध कहां है।
संघ की रीति—नीति से परिचित हुए बिना संघ के कार्य व्यवहार को जानने का दम भरते हैं, जबकि यह आधारभूत बात भी वे नहीं जानते कि संघ कभी किसी राजनीतिक दल के पक्ष-विपक्ष में काम नहीं करता। संघ लोकमत परिष्कार के लिए काम अवश्य करता है। यह सोच—विचार नीतिगत काम है और इस बार भी संघ ने वैसा ही किया, जैसा हर बार करता है।
ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि बहुधा हम सारी अपेक्षाएं राजनीति से करने लगते हैं, समाज के तौर पर यह ठीक नहीं है। राजनीति अपनी गति से काम करती है। अधिकार और कर्तव्य की बात होती है, तो हम केवल अधिकारों पर जोर देते हैं, समाज और राजनीति में केवल राजनीति पर जोर देते हैं। इससे हासिल कुछ नहीं होता। इससे छटपटाहट और आक्रोश बढ़ता है और यह भाव घटता है कि अपना भी कुछ दायित्व है। इससे निकलना है तो समाज को सारी अपेक्षाएं राजनीति से नहीं रखनी होंगी। समाज बड़ा है, इसलिए इसका आकलन सामाजिक-राष्ट्रीय मुद्दों पर होना चाहिए। लेकिन वे मुद्दे कैसे हों, राष्ट्र के नाते हमारी वैश्विक पहचान कैसे हो, इस पर भी विचार करना होगा।
इन सभी बातों के बीच कुछ लोगों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसकी भूमिका को लेकर भ्रम खड़ा करने की कोशिश की। यह समाचार-पत्र में भाजपा के एक बड़े नेता के साक्षात्कार से आरम्भ हुआ, फिर शरारतपूर्ण ढंग से उसे सरसंघचालक जी के उस वक्तव्य से जोड़ने की कोशिश हुई, जो नागपुर में कार्यकर्ता विकास वर्ग में दिया गया था। किंतु इसमें तारतम्यता नहीं थी, यह सहज बुद्धि से समझने वाली बात है।
जिन्होंने भी उक्त साक्षात्कार पढ़ा होगा या सम्बंधित उद्बोधन का पूरा वीडियो देखा—सुना होगा उन्हें अनुभव हुआ होगा कि खबरों की मारामारी में पूरे प्रकरण के किसी खास हिस्से को चलाने, बताने और प्रचारित करने की विचित्र जिद थी।
वैसे, संघ को लेकर वर्ष में कम से कम दो ऐसे अवसर अवश्य आते हैं, जिन पर समूचे समाज की नजर रहती है। इनमें से एक है विजयादशमी का उद्बोधन, और दूसरा, यह शिविर भाषण। संयोग से इस वर्ष यह चुनाव के बाद का उद्बोधन था, इसलिए केवल राजनीतिक दृष्टि से सभी प्रश्न विचार करने वालों ने यहां भी केवल राजनीति तलाशने की कोशिश की।
कुछ सेकुलर किस्म के लोग कह रहे हैं कि इन चुनावों में संघ ने भाजपा का साथ नहीं दिया। ये लोग संघ की रीति—नीति से परिचित हुए बिना संघ के कार्य व्यवहार को जानने का दम भरते हैं, जबकि यह आधारभूत बात भी वे नहीं जानते कि संघ कभी किसी राजनीतिक दल के पक्ष-विपक्ष में काम नहीं करता। संघ लोकमत परिष्कार के लिए काम अवश्य करता है। यह सोच—विचार नीतिगत काम है और इस बार भी संघ ने वैसा ही किया, जैसा हर बार करता है।
ध्यान रहे, संघ स्वयंसेवकों के लिए ही नहीं, शोधार्थियों और आलोचकों के लिए भी उतना ही खुला है। सरसंघचालक जी के उद्बोधन को समग्रता में सामने रखती इस बार की आवरण कथा शायद संघ के विचार को स्पष्टता से समझने में अधिक सहयोगी हो सकती है।
@hiteshshankar
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