पिछले दिनों कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दो बातें कहीं। पहली, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी की तुलना करते हुए उन्होंने कहा कि ‘न्यायपालिका दलित और आदिवासी समुदाय के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त है।’ दूसरी, वह जब से पैदा हुए हैं, तब से ‘सिस्टम’ में बैठे हुए हैं। उनकी बातों को अधिक महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि राहुल गांधी ‘अनपढ़’ हैं और उनके कथन का कोई आधार नहीं है। उन्हें जो बताया जाता है, जो सलाह दी जाती है, वही बोलते हैं। उसके लिए वे कोई ‘होमवर्क’ नहीं करते।
राहुल गांधी ने जो कहा है, उससे कुछ प्रश्न खड़े होते हैं। पहला, यह बात उन्होंने पहले क्यों नहीं उठाई? दूसरा, न्यायपालिका को सिरे से पक्षपाती बताकर वह न्यायपालिका का अपमान कर रहे हैं। न्यायपालिका के बारे में राहुल गांधी का जो दृष्टिकोण है, वह उनके खून में है। कैसे? इसे दो उदाहरणों से समझें। कांग्रेस के नेता रट लगा रहे हैं कि संविधान खतरे में है। लेकिन संविधान को खतरे में किसने डाला? सबसे पहले जवाहर लाल नेहरू ने और बाद में इंदिरा गांधी ने संविधान को खतरे में डाला। हालांकि लोग बहुत-सी बातें भूल गए हैं, लेकिन आपातकाल को अभी तक याद रखा है कि किस तरह इंदिरा गांधी ने लोगों से जीने का अधिकार भी छीन लिया था। न्यायपालिका के प्रति इंदिरा गांधी के बदले का जो रवैया था, उसका प्रतिनिधित्व आज राहुल गांधी कर रहे हैं।
बदले की भावना
आपातकाल के बाद केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी। उस समय देशभर में जगह-जगह इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध मुकदमे दर्ज किए गए। आंध्र प्रदेश के पी. शिवशंकर, जो पेशे से वकील भी थे, देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर इंदिरा गांधी के मुकदमे लड़ते थे। 1980 में इंदिरा गांधी जब दोबारा सत्ता में आर्इं, तो उन्होंने पी. शिवशंकर को कानून मंत्री बनाया। उनकी नजर में जिन न्यायाधीशों ने कांग्रेस के आदेशों को नहीं माना था और कुछ हद तक विपरीत निर्णय दिए थे, उनके विरुद्ध बदले की कार्रवाई की गई और न्यायाधीशों को डराने के लिए 1981 में उनके स्थानांतरण के आदेश जारी किए गए। हालांकि वह निर्णय इंदिरा गांधी का था, जिसे कानून मंत्री होने के नाते पी. शिवशंकर ने जारी किया था। न्यायाधीशों के स्थानांतरण मनमाने तरीके से किए गए। जैसे-मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को जम्मू और जम्मू के न्यायाधीश को इलाहाबाद भेज दिया गया था। यही नहीं, उस आदेश में देशभर के सभी उच्च न्यायालयों से स्थानांतरित किए गए एक तिहाई न्यायाधीशों को तय समय सीमा के अंदर काम पर पहुंचने को कहा गया था। सरकार के इस फरमान को न्यायाधीशों ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी और शीर्ष अदालत ने सरकार के आदेश को रद्द कर दिया। यह पहला ‘जजेज केस’ कहलाता है। यह था कांग्रेस की बदले की कार्रवाई का पहला उदाहरण।
आज राहुल गांधी न्यायपालिका पर टिप्पणी कर रहे हैं, तो वह इस मुगालते में हैं कि वे सत्ता में आएंगे और न्यायिक प्रक्रिया को ‘दुरुस्त’ करेंगे। यानी न्यायाधीशों को सजा देंगे। वास्तव में इनकी मानसिकता ही न्यायपालिका को डरा कर और दबाव डालकर अपने पक्ष में निर्णय देने के लिए बाध्य करने की रही है। नेहरू के दौर में भी यह सब हुआ है। देश के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश के बेटे अभिनव चंद्रचूड़, जो मुंबई के बड़े अधिवक्ता हैं, ने एक पुस्तक लिखी है- ‘सुप्रीम व्हीस्पर्स’। इस पुस्तक में, देश के पहले मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति हरिलाल जे. कनिया से लेकर हाल तक में न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे होती रही है और उन्हें डराकर कांग्रेस किस तरह अपना काम कराती रही है, इसकी पूरी कहानी है। राहुल गांधी ने न्यायपालिका के बारे में जो कुछ कहा है, दरअसल वह गांधी-नेहरू खानदान की परंपरागत रूप से न्यायाधीशों को डराकर अपने पक्ष में निर्णय करवाने की प्रवृत्ति का ही द्योतक है।
इसके ठीक विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का उदाहरण है। 11 अगस्त, 2014 को तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने संसद में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक प्रस्तुत किया, जिसे दोनों सदनों ने सर्वसम्मति से पारित कर दिया। इस विधेयक को 31 दिसंबर, 2014 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने मंजूरी भी दे दी थी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने 16 अक्तूबर, 2015 को इसे रद्द कर दिया। इसके बावजूद भाजपा या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्याय व्यवस्था को लेकर ऐसी कोई टिप्पणी नहीं की, जिसे नागवार कहा जा सके। हालांकि बाद में जब जगदीप धनखड़ उपराष्ट्रपति बने, तब उन्होंने इस मुद्दे को फिर से उठाया और कहा कि उपरोक्त विधेयक पर फिर से चर्चा होनी चाहिए। बहरहाल, न्याय प्रणाली में सुधार की दिशा में यह एक सराहनीय प्रयास था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के इनकार के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने इसे मुद्दा नहीं बनाया। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता की पक्षधरता का एक उदाहरण है।
कांग्रेस में वंचितों का सम्मान नहीं
इसी तरह, एससी-एसटी मामले में दो-तीन बातें ध्यान में रखने की जरूरत है। जब मैं विश्वनाथ प्रताप सिंह की जीवनी लिख रहा था, तब उन दिनों उनसे मेरी प्रतिदिन तीन-चार घंटे बात होती थी, सप्ताह में तीन दिन छोड़कर, क्योंकि उनका डायलिसिस होता था। एक दिन मैंने उनसे पूछा, एससी-एसटी समुदाय कांग्रेस से क्यों दूर हो गया? इस पर उन्होंने कहा था कि कांग्रेस को जो सामाजिक संतुलन बनाए रखना चाहिए था, उसने उसका ध्यान नहीं रखा। 1947-48 में सत्ता में आने से पहले कांग्रेस विभिन्न समुदायों के लोगों का ध्यान रखती थी, लेकिन सत्ता में आने के बाद पार्टी में जब सवर्ण वर्चस्व बढ़ा तो एससी-एसटी समुदाय का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस से दूर होता चला गया। हालांकि कांग्रेस को कई अवसर मिले, जब वह उनकी नाराजगी को दूर कर सकती थी। जैसे- जगजीवन राम जनता पार्टी छोड़कर कांग्रेस में आए, लेकिन उन्हें वह सम्मान नहीं मिला। इससे उन्हें बहुत दुख पहुंचा था। कांग्रेस छोड़ने के बाद अपने अंतिम दिनों में उन्हें उपेक्षित जीवन जीना पड़ा।
अभी कांग्रेस में एससी-एसटी समुदाय से ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो यह कह सके कि उसे पार्टी में सम्मान मिला है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के नेता कहते कुछ हैं, लेकिन इनकी मंशा कुछ और ही है। कांग्रेस पार्टी के नेता एससी-एसटी के हितों की बात कर रहे हैं, लेकिन इनकी मंशा इस समुदाय के लोगों को डराना है और यह संदेश देना है कि नौकरियों और अन्य जगहों पर आरक्षण का लाभ हम मुसलमानों को देंगे। इसका प्रमाण यह है कि इन्होंने 2005 में सच्चर कमेटी गठित की थी। फिर रंगनाथ मिश्र आयोग बनाया, जिसने नवंबर 2006 में बाकायदा मुसलमानों को 15 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश की थी। लेकिन रिपोर्ट पर आशा दास, जो उस समय आयोग की सचिव थीं, की टिप्पणी के कारण इनकी मंशा पूरी नहीं हुई। इसके बाद कांग्रेस ने अपने शासन वाले राज्यों के माध्यम से इस सिफारिश को लागू कराना शुरू किया। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस से चार गारंटी मांगी हैं। उसे लिखित में यह गारंटी देने को कहा है कि मजहब के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जाएगा, क्योंकि इस पर संविधान सभा में लंबी बहस हो चुकी है।
पश्चिम के कुछ समाजशास्त्री कहते हैं कि हिंदू समाज सोपान क्रम में बंटा हुआ है, यानी समाज निम्न वर्ग से उच्च वर्ग तक सीढ़ी के क्रम में बंटा हुआ है। हालांकि हम इसे नहीं मानते, परंतु यह स्थापित है। इसलिए यदि यह मान भी लें कि समाज में सोपान क्रम है, तो वह हिंदू समाज की अपनी समस्या है। मुस्लिमों और ईसाइयों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। हिंदुओं के जो कन्वर्जन हुए हैं, इसी वादे के तहत हुए हैं कि उनके यहां समाज में जाति व्यवस्था, असमानता और भेदभाव नहीं है। इस पर सोच-विचार के बाद ही संविधान सभा ने तय किया था कि केवल एंग्लो इंडियन समुदाय को ही आरक्षण दिया जाएगा, वह भी नॉमिनेशन के जरिए। एससी-एसटी और ओबीसी को आरक्षण देने संबंधी प्रावधान को तो संविधान में बाद में जोड़ा गया।
अब बात राहुल गांधी के ‘सिस्टम’ में रहने और उसे जानने की, जिसका दावा उन्होंने किया है। तो यह सत्य से परे है। इस पर प्रश्न उठाया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें ‘शहजादे’ कहते हैं। शहजादा होना एक बात है और व्यवस्था के अंदर रहना बिल्कुल अलग बात है। कहने का मतलब यह है कि वह नेहरू वंश में पैदा हुए हैं, वहीं पले-बढ़े और सांसद भी बन गए। यहां तक तो ठीक है, लेकिन वह किस रूप में ‘सिस्टम’ का हिस्सा हैं, यह उनसे पूछा जाना चाहिए। ‘सिस्टम’ का हिस्सा कौन होता है? जो सरकार के अंदर हो। वह अधिकारी के रूप में सचिव होता है और राजनीतिक व्यवस्था में मंत्री के रूप में राजनेता होता है। जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तब वह चाहते थे कि राहुल गांधी मंत्री पद की जिम्मेदारी लें। अगर वह मंत्री पद ले लेते और चाहे जितने दिन रहते, तब ‘सिस्टम’ में रहने के उनके दावे पर कहा जा सकता था कि वे ‘सिस्टम’ को जानते हैं। लेकिन उन्होंने जिम्मेदारी नहीं ली। उसी तरह से उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी ली, लेकिन चुनाव में पराजय के बाद उसे छोड़ दिया। मतलब, वह न तो पार्टी के ‘सिस्टम’ में हैं और न ही सरकार के ‘सिस्टम’ में हैं।
राहुल गांधी चाहते तो अपनी दादी से सबक सीख सकते थे। जवाहर लाल के निधन के बाद जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इंदिरा को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय दिया था। इस स्थिति में इंदिरा गांधी कह सकती थीं कि उन्हें ‘सिस्टम’ का अनुभव है। लेकिन राहुल गांधी सरकार में पद लेने से पीछे हट गए, फिर पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ दिया और यह भी कहा कि आगे वह कोई पद नहीं लेंगे। वास्तविकता यह है कि राहुल गांधी जिम्मदारियों से भागते हैं। कुल मिलाकर उनके पास ‘सिस्टम’ में रहने का कोई अनुभव नहीं है।
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