इन दिनोें प्राय: हर चुनावी सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार कह रहे हैं कि कथित इंडी गठबंधन की जहां भी सरकारें हैं, वे पिछड़े वर्ग के आरक्षण को बांट कर उसे मुसलमानों को दे रही हैं। उनकी इस बात पर न्यायालय भी अपनी मुहर लगाता दिख रहा है। विशेषज्ञ 22 मई को कोलकाता उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए उस निर्णय को इसी रूप में देख रहे हैं, जिसमें पश्चिम बंगाल में 2010 के बाद जारी ओबीसी प्रमाणपत्रों को रद्द कर दिया गया है। अनुमान है कि इस निर्णय से लगभग 5,00,000 लोगों का ओबीसी प्रमाणपत्र अमान्य हो गया है। अब ये लोग इस प्रमाणपत्र के आधार पर कहीं आरक्षण का लाभ नहीं ले सकते।
न्यायमूर्ति तपब्रत चक्रवर्ती और न्यायमूर्ति राजशेखर मंथा की पीठ ने कहा, ‘‘राजनीतिक उद्देश्य के लिए मुसलमानों की कुछ जातियों को ओबीसी में शामिल कर उन्हें आरक्षण दिया गया, जो लोकतंत्र और पूरे समुदाय का अपमान है।’’ पीठ ने यह भी टिप्पणी की कि जल्दबाजी में कुछ जातियों को ओबीसी आरक्षण दिया गया, क्योंकि यह ममता बनर्जी का चुनावी वादा था और सत्ता प्राप्त करते ही इसे पूरा करने के लिए असंवैधानिक तरीका अपनाया गया। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि जिन जातियों का ओबीसी दर्जा समाप्त किया गया है, उसके सदस्य पहले से ही किसी सेवा में हैं, या आरक्षण ले चुके हैं या फिर राज्य की किसी सेवा के लिए चल रही चयन प्रक्रिया में शामिल हैं, तो उन पर यह आदेश लागू नहीं होगा।
जैसे ही यह निर्णय आया, पूरे देश में राजनीतिक भूचाल आ गया। द्वारका (दिल्ली) में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘‘कोलकाता उच्च न्यायालय ने ओबीसी प्रमाणपत्रों को रद्द कर इंडी गठबंधन के गाल पर करारा तमाचा जड़ा है।’’ वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बड़ी बेशर्मी के साथ कहा, ‘‘मैं उच्च न्यायालय के निर्णय को नहीं मानूंगी। इसे चुनौती दी जाएगी।’’ उन्होंने इसे न्यायालय का निर्णय नहीं, बल्कि भाजपा का निर्णय करार देते हुए कहा, ‘‘हम भाजपा के आदेश को स्वीकार नहीं करेंगे। ओबीसी आरक्षण जारी रहेगा।’’
ममता भले कुछ कहें, लेकिन उच्च न्यायालय के निर्णय से एक बात तो साफ हो गई कि इंडी गठबंधन के नेताओं के तुष्टीकरण की राजनीति की पोल एक बार फिर से खुल गई है। बता दें कि 2011 में ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की अनेक जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में शामिल कर उन्हें हिंदू पिछड़ी जातियों के हिस्से का आरक्षण दिया गया। ममता से पहले वाममोर्चा सरकार ने 2010 में पश्चिम बंगाल में पिछड़े वर्ग के आरक्षण को सात प्रतिशत से बढ़ाकर 17 प्रतिशत कर दिया था। बढ़ाए गए 10 प्रतिशत में केवल मुसलमानों को शामिल किया गया था। इसके लिए ओबीसी की दो श्रेणियां बनाई गई थीं-ओबीसी-ए और ओबीसी-बी। ओबीसी-ए में सिर्फ मुसलमानों को रखा गया है। यानी वाममोर्चा सरकार ने मुसलमानों को मजहब के आधार पर आरक्षण दे दिया था।
2010 तक पश्चिम बंगाल में 108 जातियां पिछड़े वर्ग में शामिल थीं। इनमें 55 हिंदू और 53 मुसलमान जातियां थीं। 2011 में अचानक 71 अन्य जातियों को भी पिछड़े वर्ग की सूची में शामिल किया गया। इनमें 65 जातियां मुस्लिम थीं और मात्र छह जातियां हिंदू। इस तरह 2011 तक कुल 179 जातियों को पिछड़े वर्ग में रखा गया। इनमें 118 मुसलमान और 61 हिंदू जातियां हैं।
उल्लेखनीय है कि 2010 तक पश्चिम बंगाल में 108 जातियां पिछड़े वर्ग में शामिल थीं। इनमें 55 हिंदू और 53 मुसलमान जातियां थीं। 2011 में अचानक 71 अन्य जातियों को भी पिछड़े वर्ग की सूची में शामिल किया गया। इनमें 65 जातियां मुस्लिम थीं और मात्र छह जातियां हिंदू। इस तरह 2011 तक कुल 179 जातियों को पिछड़े वर्ग में रखा गया। इनमें 118 मुसलमान और 61 हिंदू जातियां हैं। यानी वोट बैंक की राजनीति करने वालों ने हिंदुओं के अधिकारों पर डाका डालने के लिए उस इस्लाम में जातियां पैदा कर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दे दिया, जिसमें जाति की कोई अवधारणा ही नहीं है।
इसे देखते हुए ही 2011 के बाद कोलकाता उच्च न्यायालय में कुछ ही समय में पांच जनहित याचिकाएं दायर हुई। अलग-अलग लोगों द्वारा दायर इन याचिकाओं में दावा गया था कि 2010 के बाद राज्य में जितने भी ओबीसी प्रमाणपत्र दिए गए हैं, वे सब पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग आयोग के नियमों की अनदेखी कर दिए गए हैं। यह भी कहा गया था कि जो लोग वास्तव में पिछड़े हैं, उन्हें ओबीसी प्रमाणपत्र से वंचित रखा गया है।
इन याचिकाओं पर लगभग 13 वर्ष तक सुनवाई हुई। ममता सरकार ने इन याचिकाओं का विरोध किया और सरकार की नीतियों को सही ठहराने की कोशिश की, लेकिन न्यायालय में उसकी दलीलें टिकी नहीं। एक याचिकाकर्ता के वकील लोकनाथ चटर्जी कहते हैं, ‘‘राज्य सरकारों ने नियमों की अनदेखी कर मुसलमानों को ओबीसी में शामिल कर आरक्षण दिया था। अब न्यायालय के निर्णय से साबित हुआ है कि मजहब के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता है।’’
पिछले दिनों जब न्यायालय में ओबीसी की सूची पर बहस हो रही थी, उन्हीं दिनों ममता बनर्जी सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एन.सी.बी.सी.) को 83 पिछड़ी जातियों की एक सूची भेज कर कहा था कि इसे राष्ट्रीय सूची में शामिल करें। इसमें 73 मुस्लिम जातियां और केवल 10 हिंदू जातियां थीं। इस सूची का विरोध करते हुए एन.सी.बी.सी. के अध्यक्ष हंसराज अहीर ने कहा था कि इन 83 जातियों को पिछड़े वर्ग में शामिल करना संभव नहीं है, क्योंकि इनके बारे में राज्य सरकार ने आवश्यक जानकारी उपलब्ध नहीं कराई है। उन्होंने यह भी कहा था कि आयोग ने राज्य के मुख्य सचिव को चार बार बुलाया, लेकिन वे नहीं आए और न ही इसके बारे में कोई जानकारी दी। इसलिए इस सूची को मान्यता नहीं दी जा सकती।
बता दें कि इस समय राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की सूची में पश्चिम बंगाल की 98 जातियां शामिल हैं, जबकि पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग आयोग की सूची में कुल 179 जातियां हैं। इनमें से 61 हिंदू और 118 मुस्लिम जातियां हैं। आंकड़ों के अनुसार पश्चिम बंगाल में लगभग 71 प्रतिशत हिंदू और करीब 27 प्रतिशत मुसलमान हैं। इस अनुपात से राज्य के पिछड़े वर्ग की सूची में हिंदू जातियां अधिक होनी चाहिए थीं, लेकिन वोट बैंक की राजनीति करने वाले नेताओं ने ऐसा हिसाब लगाया कि अब पश्चिम बंगाल में हिंदू पिछड़ी जातियों से अधिक मुस्लिम पिछड़ी जातियां हो गई हैं।
एक जानकारी के अनुसार जिन 73 मुस्लिम जातियों को पिछड़े वर्ग में शामिल कराने की कोशिश की जा रही है, उनमें से कई बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिए हैं। सबको पता है कि पश्चिम बंगाल में भोटिया मुसलमान कहां से आए हैं। दरअसल, ये लोग बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं और इन्हें राज्य सरकार ने पिछड़े वर्ग में शामिल कर लिया है। इस कारण राज्य मेें बड़ी संख्या में मुस्लिम घुसपैठिए भी सरकारी नौकरी कर रहे हैं।
यही कारण है कि उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद पश्चिम बंगाल के अधिकांश हिंदू खुश हैं। उन्हें लग रहा है कि अब राज्य में मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति बंद हो सकती है।
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