फिल्म केरल स्टोरी को लेकर एक बार फिर से अभिव्यक्ति की आजादी का मामला उभरा हुआ है। यह मामला इस समय इसलिए गंभीर है क्योंकि इसे चुनावों के साथ जोड़कर देखा जा रहा है। इस फिल्म में केरल से गायब हुई ऐसी लड़कियों की कहानियां हैं, जो धर्मपरिवर्तन के संगठित जाल का शिकार होती हैं और एक लड़की को आईएसआईएस की गिरफ्त में फंसते हुए दिखाया है।
अदा शर्मा अभिनीत यह फिल्म दरअसल उस कड़वे सत्य को दिखाती है जो एक विशेष तरह का एजेंडा चला रहे कामरेड नहीं देखना चाहते हैं। मगर इस बात से परे कि कामरेड या कांग्रेस किसे देखना चाहती है और किसे नहीं, इस पर बात होनी चाहिए कि क्या कामरेड और कांग्रेस अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में हैं या नहीं?
इस फिल्म को लेकर केरल की सरकार और कांग्रेस दोनों ही एक मंच पर थीं कि इस फिल्म का प्रसारण दूरदर्शन पर नहीं करना चाहिए। दूरदर्शन को भाजपा की प्रचार मशीन नहीं बनने देंगे। इसके साथ ही कांग्रेस ने भी इस फिल्म की स्क्रीनिंग को लेकर चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटाया था, मगर देरी से संभवतया कदम उठाने पर गत 5 अप्रेल को इस फिल्म को दूरदर्शन पर दिखाया गया। कांग्रेस का कहना यह था कि यह सत्तारूढ़ भाजपा की धार्मिक आधार पर समाज को विभाजित करने का एक मौन कोशिश है। पार्टी चुनावी दृष्टिकोण से ऐसा कर रही है’।“
इस फिल्म की आलोचना पहले भी हुई और यह कहा गया कि यह एजेंडा फिल्म है और यह विशेष रूप से उस एजेंडे को स्थापित करने के लिए बनाई गयी है, जिसे कथित रूप से संघ परिवार स्थापित करने का प्रयास कर रहा है। इस पर हालांकि भारतीय जनता पार्टी की ओर से यह कहा गया है कि यह अभिव्यक्ति की आजादी है।
पिछले दिनों कई लेख ऐसे प्रकाशित हुए, जिनमें उन फिल्मों की आलोचना की गयी, जो उन मुद्दों पर बनाई गयी है, जो मुद्दे भारतीय जनता पार्टी उठाती है या कहें वे विषय जो कम्युनिस्ट और कांग्रेस के एजेंडे के विपरीत हैं। इन विषयों पर बनी फ़िल्में कश्मीर फाइल्स, केरल स्टोरी, मैं अटल हूँ, स्वातंत्र वीर सावरकर, धारा 370, बस्तर : द नक्सल स्टोरी’, एवं हाल ही में रिलीज होने जा रही रजाकार जैसी फिल्मे हैं। कई पोर्टल्स का यह कहना है कि ये राजनीतिक एजेंडे के कारण बनाई जा रही हैं और इनमें एकतरफा दिखाया जाता है, जैसा केरल स्टोरी को लेकर कहा गया और कश्मीर फाइल्स को लेकर कहा गया एवं सावरकर को लेकर भी यही कहा गया कि इसमें तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की गयी है।
यह भी कहा जा रहा है कि ये फ़िल्में बहुसंख्यकवाद की राजनीति और हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा की बहुलता के कारण बनाई जा रही है और अब फ़िल्में एक विशेष नैरेटिव को लेकर केवल सरकार को खुश करने के लिए बनाई जा रही हैं। यह आरोप लगाए जा रहे हैं कि हिन्दू राष्ट्रवादी प्रतीकों का महिमामंडन किया जा रहा है और ऐसी विभाजक राजनीति का निर्माण किया जा रहा है, जो अल्पसंख्यक विरोधी है।
केरल स्टोरी एवं कश्मीर फाइल्स को लेकर यह भी कम्युनिस्ट लेखकों का रोना है कि ये फ़िल्में “इस्लामोफोबिया” को बढ़ावा देती हैं। स्वातंत्र वीर सावरकर पर बनी फिल्म को यह वर्ग पूरी तरह से नकार कर यह कह रहा है कि यह फिल्म दरअसल कल्पना को हकीकत के रूप में प्रस्तुत करती है।
कश्मीर फाइल्स हो या केरल स्टोरी या फिर स्वातंत्रय वीर सावरकर, या फिर बस्तर, ये सभी फ़िल्में उन स्थापित एजेंडे के विपरीत बनी गयी फिल्म्स हैं, जिन्हें अभी तक फिल्मों के माध्यम से दिखाया जाता रहा था। एकतरफा फ़िल्में या एजेंडा फिल्म कहने वाले लोग वही हैं जो फिल्म जवान देखकर भारतीय जनता पार्टी को कोसने के लिए कदम बढ़ा देते हैं। भारत के विपक्षी दल, जिन्हें सत्यता पर आधारित फ़िल्में एजेंडा और काल्पनिक लगती हैं, वे सभी कई कारणों से शाहरुख खान की फिल्म जवान को लेकर उत्साहित हो गए थे और यहाँ तक कहा जाने लगा कि शाहरुख की यह फिल्म कांग्रेस को वोट देने का संकेत करती है। इस फिल्म की रिलीज को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के साथ जोड़ा गया।
Subtle hint by SRK in his #Jawan movie to vote for Congress ✋#JawanReview pic.twitter.com/v7S0FYyDIQ
— Spirit of Congress✋ (@SpiritOfCongres) September 7, 2023
जो लोग एजेंडा वाली फिल्मों की बात करते हैं, उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि फिल्मों के माध्यम से एजेंडा फैलाने का कार्य कम्युनिस्ट एवं कांग्रेसियों ने कितनी शातिरता से किया है। कश्मीर पर बनी आतंकवाद की फिल्मों के माध्यम से भारत की सेना को खलनायक बनाने का काम किन्होनें किया? कश्मीर फाइल्स से पहले कश्मीरी पंडितों के पलायन पर किसने फ़िल्में बनाई थीं?
प्रखर हिन्दू या भारतीयता की बात करने वाले लोगों को निरंतर खलनायक बनाकर प्रस्तुत किया जाता रहा! तेज़ाब से जलाने को लेकर एक सत्य घटना पर बनी फिल्म आई थी, जिसमें दीपिका पादुकोण ने तेज़ाब से पीड़ित होने वाली लड़की की भूमिका निभाई थी। लक्ष्मी अग्रवाल पर तेज़ाब फेंका गया था और फेंका था नदीम नामक व्यक्ति ने, मगर जब छपाक फिल्म बनी तो एजेंडे के अंतर्गत तेज़ाब फेंकने वाले का नाम राजेश कर दिया गया, और इस फिल्म को लेकर विवाद और गहरा हुआ था, जब इसकी रिलीज से पहले दीपिका पादुकोण जेएनयू पहुँची थीं और उन्होंने जेएनयू छात्रसंघ की अध्यक्ष आइशी घोष से मुलाक़ात की थी, जिन्हें कथित रूप से नक़ाबपोशों के हमले में चोटें आई थीं.
हिन्दुओं को अपमानित करने का एजेंडा फिल्मों के माध्यम से लगातार खेला जा रहा है और अभी तक खेला जाता रहा है, और इसके चलते युवाओं के मन में भी देश एवं धर्म के प्रति अविश्वास उत्पन्न हुआ! प्रश्न तो उठेगा ही कि क्यों फिल्मों के माध्यम से नक्सलियों का महिमामंडन किया जाता रहा और उन्हें हमेशा शोषण के खिलाफ लड़ने वाला बताया जाता रहा, जबकि वे लोग भारत भूमि का सीना छलनी करते रहे। गुजरात दंगों पर बनी फिल्म परजानिया में किस प्रकार हिन्दू समुदाय को कठघरे में खड़ा किया गया था? गुजरात दंगों पर बनी फिल्म में हिन्दुओं को ही पूरी तरह से अपराधी दिखाया था, और गोधरा में किस प्रकार ट्रेन जलाई गयी और कैसे कारसेवकों को जिंदा जलाया गया, इस पर कोई भी प्रश्न नहीं था।
इसी प्रकार वर्ष 2016 में पंजाब चुनावों से एक वर्ष पहले पंजाब में नशे की समस्या पर एक फिल्म बनी थी उड़ता पंजाब! इस फिल्म की टाइमिंग को लेकर कई प्रश्न उठे थे क्योंकि इस विषय पर लगातार आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल सहित कई नेता बोल रहे थे या कहें कि यह उनका चुनावी मुद्दा ही था। जब यह फिल्म रिलीज हुई तो अकाली और भाजपा की सरकार पंजाब में थी।
वर्ष 2017 में पंजाब में चुनाव थे और अनुराग कश्यप की इस फिल्म का प्रचार आम आदमी पार्टी ने यह कहते हुए किया था कि लोगों को पंजाब का सच जानना चाहिए और जब इस फिल्म का विरोध हुआ था तो यह कहा गया था कि क्या खानापीना और फ़िल्में देखना भी आरएसएस और मोदी जी तय करेंगे।
So many tweets on a third class movie 'Udta Punjab'@arvindkejriwal is this not film promotion…? pic.twitter.com/dxPyMdRj6L
— AParajit Bharat 🇮🇳 (@AparBharat) March 25, 2022
वर्ष 2017 में कांग्रेस सत्ता में आई और वर्ष 2022 में आम आदमी पार्टी, मगर पंजाब में नशे की हालत क्या है, और कैसी है, इस पर अब फिल्म नहीं बनी!
हिन्दी फिल्मों में हिन्दू देवी देवताओं के प्रति अपमानजनक बातें बहुत आम हुआ करती थीं, परन्तु पहले लोग मात्र विरोध करके रह जाते थे, अब विरोध और मुखर हुआ है, एवं अब भारतीय मानस उन फिल्मों को देखना पसंद करने लगा है, जिन विषयों पर कम्युनिस्ट और कांग्रेसी इकोसिस्टम बात करना पसंद नहीं करता था, फिर चाहे वह कश्मीर फाइल्स के माध्यम से कश्मीरी पंडितों की पीड़ा हो या फिर जबरन मतांतरण का शिकार बन रही गैर मुस्लिम लड़कियों की पीड़ा!
और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो सभी के लिए है न कामरेड?
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