भारतीय परंपरा का सर्वोपरि आनंदोत्सव है होली। यह उत्सव हमारी सनातन संस्कृति के तीन महानायकों राम, कृष्ण और शिव के जीवन से बेहद गहराई से संबद्ध है। हरिहर पुराण की कथा बताती है कि सृष्टि की पहली होली भोले शंकर ने मां गौरी के साथ खेली थी। कथा के अनुसार तारकासुर के वध के लिए महादेव का समाधि से जागना जरूरी था। देवों के कहने पर कामदेव और रति ने शिव का ध्यान भंग करने के लिए नृत्य गायन किया। इससे भगवान शिव का ध्यान भंग हुआ तो उन्होंने गुस्से में अपना तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को भस्म कर डाला।
रति के करुण विलाप से भोलेनाथ को उस पर दया आयी और उन्होंने कामदेव को अमरता का वरदान देते हुए कहा कि वे प्रत्येक प्राणी की आत्मा में भाव रूप में सदा जीवित रहेंगे। इस खुशी में फाल्गुन पूर्णिमा के दिन सभी देवी-देवताओं ने रंगोत्सव मनाया। रति ने मस्तक पर पति की चिता की राख का टीका लगाया। इस उत्सव में भगवान् शिव ने डमरू, भगवान् विष्णु ने बांसुरी तथा देवी सरस्वती ने वीणा बजायी और मां पार्वती ने गीत गाये। कहते हैं कि तभी से हर साल फाल्गुन पूर्णिमा पर गीत, संगीत और रंगों के साथ होली मनाने की परंपरा शुरू हो गई।
एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार, रंगभरी एकादशी के दिन भगवान् शिव मां पार्वती का गौना कराने के बाद उन्हें काशी लेकर आए थे। इस खुशी में उनके गणों ने उनके साथ चिता भस्म के साथ होली खेली थी। काशी के महाश्मशान पर चिता भस्म से खेली जाने वाली यह होली मनुष्य को जीवन की क्षणभंगुरता का बोध कराने का दिव्य तत्व संजोए हुए है। इसमें लोग डमरुओं की गूंज और ‘हर हर महादेव’ के जयघोष के साथ एक-दूसरे को भस्म लगाते हैं। होली का यह सिलसिला बुढ़वा मंगल तक चलता है। इस मौके पर ‘खेलैं मसाने में होरी दिगंबर, खेले मसाने में होरी’ जैसे गीतों के बीच भांग की मस्ती में डूबी शिवनगरी की रौनक देखते ही बनती है।
ब्रज की होली
काशी की तरह ब्रज की होली भी पूरी दुनिया में आकर्षण का केंद्रबिंदु है। कहते हैं कि ब्रजधरा की होली के उल्लास के सामने स्वर्ग का आनंद भी फीका लगता है। अनुराग, उल्लास, हास-परिहास से आपूरित कृष्ण की इस धरती पर होली का त्योहार वसंत पंचमी से चैत्र कृष्ण पंचमी तक मनाया जाता है। बरसाने की लठमार होली तो जग प्रसिद्ध है। वस्तुत: ब्रज की होरी तथा रसिया कृष्ण के मध्य एक अद्वैत संबंध माना जाता है। रसिया अर्थात् वह जो जीवन में चारों ओर अनुराग का उल्लास उत्पन्न कर दे। ‘आज बिरज में होरी रे रसिया, होरी रे रसिया, बरजोरी रे रसिया। उड़त गुलाल लाल भए बदरा, केसर रंग में बोरी रे रसिया’ जैसे गीतों के साथ मनभावन नृत्य और अबीर, रंग व गुलाल की होली के रंग सहज ही मन मोह लेते हैं। इसी कारण होली के अवसर पर राधा-कृष्ण समूची ब्रज भूमि के घर-घर में विशेष वंदनीय हो जाते हैं। इस दौरान मथुरा के द्वारकाधीश मंदिर, जन्मभूमि मंदिर, वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर और इस्कॉन आदि मंदिरों में फूलों की होली की छटा देखने लायक होती है।
अयोध्या की छटा निराली
वृंदावन व बरसाना के जैसे ही भगवान राम की नगरी अयोध्या में भी होली खासी मनमोहक होती है। अयोध्या के होली उत्सव में साधु-महात्मा और अवधवासियों का विशाल जुलूस निकलता है। यह जत्था पहले हनुमानगढ़ी जाता है तथा वहां हनुमान जी की छड़ी और पवित्र निशान की पूजा-वंदना की जाती है फिर सभी उसी प्रांगण में जम कर होली खेलते हैं। तत्पश्चात पवित्र निशान और छड़ी के साथ पंचकोसी परिक्रमा की जाती है। इस परिक्रमा के दौरान श्रद्धालु झूमते गाते, रंग उड़ाते एक-दूसरे को गुलाल लगाते भगवान् श्रीराम को रंग खेलने का न्योता देते हैं। इसके बाद चार दिन तक सब लोग खूब होली खेलते हैं। इस अवसर पर ‘जोगीरा सारा..रा…रा..रा…’ तथा ‘होली खेलें रघुवीरा अवध में होली खेलें…’ जैसे फागुन गीत की मस्ती देखने वाली होती है। मान्यता है कि त्रेतायुग में 14 वर्ष के वनवास के बाद श्रीराम जब अयोध्या के राजा बने तो उनके शासनकाल में मनाए गए पहले होली उत्सव में सभी देवी-देवताओं को शामिल होने का निमंत्रण स्वयं हनुमान जी ने दिया था। इसीलिए आज भी अयोध्या का होली पर्व बजरंग बली की प्रधान पीठ हनुमानगढ़ी से शुरू होता है।
मलिनता का दहन
समता, एकता, भाईचारे एवं हर्षोल्लास से परिपूर्ण स्वस्थ एवं ग्रंथिमुक्त सामाजिक जनजीवन के विकास के लिए इस आनंदोत्सव का शुभारंभ वैदिक युग में हुआ था। सत्याग्रही भक्त प्रहलाद के आह्वान पर भगवान नृसिंह के प्रकटीकरण और वरदानी होलिका के अग्नि में जलकर नष्ट हो जाने का होलिकोत्सव से जुड़ा पौराणिक कथानक बताता है कि यदि उद्देश्य व भावनाएं कलुषित हों तो ईश्वरीय वरदान भी निष्फल हो जाते हैं। गायत्री महाविद्या के सिद्ध साधक पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य लिखते हैं, ‘‘होली वस्तुत: मलिनताओं के दहन का महानुष्ठान है। वरदान रूप में अग्नि सुरक्षा का कवच धारण करने वाली ‘होलिका’ अग्नि के प्रकोप से बच नहीं पाई, क्यों? विचारणीय बिंदु है। वस्तुत: पाप वृत्तियां तथा अनाचार-भ्रष्टाचार सत्य व लोकमंगल के विरुद्ध चाहे कितने भी सुरक्षा प्रबंध कर लें, अंतत: उनका विनाश होकर ही रहता है।’’
होली का तत्वदर्शन असाधारण है। वैदिक चिंतन कहता है कि जिन पंचभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) से प्रकृति का निर्माण हुआ है, उन्हीं पंचतत्वों से मानवी काया का भी सृजन हुआ है। यह बात अब आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार चुका है। यही कारण है कि प्रकृति का यह बदलाव मानव मन की प्रवृत्ति को भी बदल देता है। हिंदू तिथि पंचांग के अनुसार शीत ऋतु के अंत और ग्रीष्म के आगमन की संधि वेला में फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाए जाने वाले इस पर्व का स्वागत मां प्रकृति पूर्ण उल्लास के साथ करती है।
फागुनी बयार में आम के बौर और कोयल की कूक के बीच टेसू, सेमल, गुलमोहर, पलाश और खेतों में सजी सरसों के मनमोहक फूलों की पीली चूनर से सजी धरती जब अपने बहुरंगी सौंदर्य की छटा चहुंओर बिखेरती है तो प्रकृति व मनुष्य दोनों का आंतरिक आहलाद पूरे चरम पर पहुंच जाता है। इस पर्व पर परमात्मा भी बहुरंगी पुष्पों के रूप में अपना सारा प्रेम पृथ्वी माता पर उड़ेल हम मनुष्यों को प्रेरणा देता है कि हम नई उमंगों और उल्लास से जीवन को पुन: संवारें।
रोग मुक्ति की युक्ति
जहां एक ओर यह पर्व फसलों की कटाई के साथ अन्नदाताओं को उनके श्रम का उपहार सौंपता है, वहीं दूसरी ओर अन्न को संस्कारित करके ग्रहण करने का महान दर्शन भी स्वयं में समेटे है। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। इस पर्व में ऋतु चक्र की वैज्ञानिकता समाहित है। मौसम बदलने के कारण इस पर्व के दौरान चेचक, हैजा, खसरा आदि संक्रामक रोगों की आशंका बढ़ जाती है। यह तथ्य हमारे वैज्ञानिक मनीषियों को सदियों पूर्व ज्ञात था; इसीलिए उन्होंने होलिका दहन की सामग्री में टेसू, केसर व मजीठ जैसे औषधीय फूलों का उपयोग किए जाने के साथ अलगे दिन इन्हीं फूलों से निर्मित कुदरती रंगों से जल क्रीड़ा की परंपरा डाली थी, ताकि वायु में मौजूद रोग के कीटाणु नष्ट हो जाएं।
नैचुरोपैथी विशेषज्ञ एस. एन. पांडेय बताते हैं, ‘‘देशभर में वृहद् स्तर पर होलिका जलाने से वायुमंडल में व्याप्त रोगों के कीटाणु जलकर भस्म हो जाते हैं। साथ ही जलती होलिका की प्रदक्षिणा करने से हमारे शरीर में कम से कम 140 फारेनहाइट डिग्री गर्मी प्रविष्ट होती है जिससे हम पर अनेक प्रकार के कीटाणुओं का प्रभाव नहीं होता है। हमारे शरीर की ऊष्णता से वे स्वयं नष्ट हो जाते हैं।’’
‘हर्ष चरित’ में उल्लेख है कि प्राचीनकाल में आयुर्वेद शास्त्रियों ने होली में पलाश (ढाक, टेसू) के फूल के अर्क को निकालकर उससे रंग खेलने और रंग के बाद सरसों व तिल के तेल के उबटन से शरीर को मालिश करने की परंपरा विकसित की थी।
आधुनिकता की काली छाया
चार-पांच दशक पूर्व तक होली का पर्व इसी स्वरूप में मनाया जाता था। वसंत पंचमी को होलिका का डंडा गाड़ने के बाद से होली की तैयारियां शुरू हो जाती थीं और महाशिवरात्रि से गांव के गांव फागुनी गीतों की मस्ती में डूबने लगते थे। कुछ दशक पूर्व तक पहले होली पर घर-घर चिप्स-पापड़ बनते थे। गुझिया की महक आती थी।
खेद का विषय है कि बाजारीकरण के वर्तमान दौर में प्राकृतिक रंगों की जगह रासायनिक रंगों ने ले ली है और धरों में पकवान बनाने की परंपरा भी क्षीण होती जा रही है। दूसरे, नशे में धुत मनचले होली की आड़ में असामाजिक हरकतें करते हैं। निर्मल हास-परिहास व हंसी-ठिठोली के इस महापर्व पर बढ़ती अपसंस्कृति इस पावन पर्व का अपमान है।
हम इक्कीसवीं सदी के तकनीकी युग में जी रहे हैं। आज हमने अपनी सुख-सुविधाओं में तो विस्तार कर लिया है मगर भीतर आनंद एकांगी होता जा रहा है। हमें यह भूल सुधारनी होगी। समझना होगा कि होली हमारी राष्ट्रभक्ति है। पर्यावरण की सुरक्षा का भाव है। मातृभूमि के प्रति प्रेम है। समाज के बनते-बिगड़ते रिश्तों को सुलझाने का मूलमंत्र है।
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