मुंबई के खारघर (नवी मुंबई) के सेंट्रल पार्क में 21 से चल रहे गायत्री परिवार के 47 वें अश्वमेध महायज्ञ के आयोजन का आज अंतिम दिन है। इस यज्ञ को राष्ट्र के आध्यात्मिक नवजागरण के महापुरुषार्थ की संज्ञा दी जानी चाहिए। अखिल विश्व गायत्री परिवार के युवा प्रतिनिधि तथा देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के उपकुलपति डा. चिन्मय पंड्या बताते हैं कि यह महायज्ञ राष्ट्र की युवा पीढ़ी; खासकर महाराष्ट्र और मायानगरी मुंबई की प्रतिभाओं के परिष्कार तथा राष्ट्रोत्थान में नियोजन के साथ नशा मुक्ति को भी समर्पित है। इससे भारतभूमि को वह ऊर्जा प्राप्त होगी जिससे रामराज्य के जीवन मूल्य समाज में पुनः स्थापित हो सकेंगे।
बताते चलें कि लगभग 140 एकड़ के विराट मैदान में आयोजित होने वाले इस दिव्य आयोजन में लाखों गायत्री परिजनों के साथ बड़ी संख्या में जन सामान्य यज्ञ की भव्य मंगल-कलश यात्रा, 1008 कुंडीय अश्वमेध महायज्ञ, विराट दीपयज्ञ जैसे कार्यक्रमों में प्रतिभाग करेंगे। यही नहीं, इस पांच दिवसीय समारोह में युग निर्माण पोस्टर प्रदर्शनी, विशाल पुस्तक मेला, रक्तदान व व्यसन मुक्ति शिविर के आयोजन के साथ एक लाख वृक्षारोपण का संकल्प भी समाहित है। बताते चलें कि व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के उत्थान में प्राणपण से संलग्न अखिल विश्व गायत्री परिवार द्वारा मुंबई के वर्तमान अश्वमेध महायज्ञ से पूर्व वर्ष 1992 से अब तक 46 अश्वमेध यज्ञों का सफल आयोजन देश-दुनिया में किया जा चुका है। डॉ. चिन्मय बताते हैं कि जिस भी भूमि पर अश्वमेध यज्ञों के आयोजन किये जाते हैं, उस भूमि की ऊर्जा को जागृत करने के लिए नैष्ठिक गायत्री साधकों के द्वारा लाखों-करोड़ों की संख्या में गायत्री जप करके वृहद स्तर पर सूक्ष्म आध्यात्मिक ऊर्जा उत्पन्न की जाती है।
इसका नियमन माँ गायत्री के सिद्ध साधक और गायत्री परिवार के संस्थापक व संरक्षक परमपूज्य गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य और माता भगवती देवी स्वयं करती हैं। आज के समय में विकृत चिंतन और आचरण कलियुगी प्रभाव में बढ़ा हुआ है, इसके शमन हेतु गायत्री परिवार ने मुंबई में 47वें अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया है। यह यज्ञ अनुष्ठान देशवासियों में आध्यात्मिकता की भावना को बढ़ावा देने के साथ विभिन्न समाजों को एक साथ लाने और सामूहिक सोच को प्रोत्साहित कर भारत के चहुंमुखी उत्कर्ष के लिए किया गया है। अश्वमेध यज्ञ एक शास्त्रोक्त आध्यात्मिक वैज्ञानिक प्रयोग है जिसका उद्देश्य आदिकाल से भारतीय संस्कृति के दिव्य व आध्यात्मिक यज्ञीय ज्ञान से राष्ट्र को सबल व सशक्त करने के लिए चक्रवर्ती सम्राटों द्वारा किया जाता रहा है। शांतिकुंज के युवा प्रतिनिधि एवं देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति डॉ. चिन्मय पण्ड्या बताते हैं कि अश्वमेध यज्ञ के मूल में सांस्कृतिक दिग्विजय का ही विधान है। प्राचीन काल में राज्य को विकसित करने के लिए राजसूय यज्ञ, पुत्र प्राप्ति हेतु पुत्रेष्टि यज्ञ तथा राष्ट्र की चहुंमुखी विकास के लिए अश्वमेध महायज्ञ किये जाने के प्रचुर प्रमाण हमारे धर्मग्रंथों में वर्णित हैं।
अश्वमेध महायज्ञ के शास्त्रीय उद्धरण
स्कंदपुराण के काशीखण्ड (अध्याय-4) में वर्णित प्रसंग के अनुसार काश मुनि द्वारा स्थापित और साक्षात् शिव-पार्वती का निवास स्थल कही जाने वाली दुनिया की प्राचीनतम नगरी काशी में स्थित रुद्रसर नामक स्थल पर जग रचयिता ब्रह्मा जी ने स्वयं शास्त्रोक्त विधि से दस अश्वमेध यज्ञ संपन्न किये थे। काशी का दशाश्वमेघ घाट आज भी उस युग प्राचीन घटना का साक्षी बना हुआ है। वहीं वाल्मीकि रामायण के अनुसार त्रेता युग में जब राक्षसराज रावण ने समूचे समाज में असुरता का वातावरण उत्पन्न कर दिया था तब रावण वध के बाद श्रीरामचन्द्र जी ने रावण द्वारा बनाये असुरता के वातावरण को नष्ट करने और देवत्व के वातारण को विनिर्मित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ किया था। उस यज्ञ के बाद ही त्रेतायुग में रामराज्य स्थापित हुआ था। इसी तरह ‘गर्ग संहिता’ के अश्वमेधखण्ड (10/7) में भगवान् कृष्ण द्वारा उग्रसेन से अश्वमेध सम्पन्न कराने का वृत्तांत मिलता है। उन्हीं की प्रेरणा व महामुनि व्यास के परामर्श से सम्राट युधिष्ठिर द्वारा अश्वमेध सम्पन्न किए जाने के विवरण महाभारत के अश्वमेधिक पर्व (71/14) में मिलता है।
गायत्री महाविद्या के महामनीषी के पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के ग्रन्थ ‘यज्ञ का ज्ञान विज्ञान’में उल्लेख मिलता है कि महाभारत काल में युधिष्ठिर की इस महान परम्परा का निर्वाह उनके उत्तराधिकारी परीक्षित और जनमेजय ने भी किया था किन्तु उनके बाद काल के प्रभाव में अश्वमेध यज्ञों की यह परम्परा धीरे धीरे क्षीण होती गयी और अखंड आर्यावर्त में राजनीतिक विश्रृंखलता, समृद्धि ह्रास, जीवन मूल्यों का होने लगा। तब ईसा से 185 ई. पूर्व पुष्यमित्र शुंग नामक भारतीय राजा ने पुनः अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान कर राष्ट्र को नए सिरे से समर्थ व सशक्त बनाया। इस यज्ञ का वर्णन ‘इपीग्राफिया इण्डिका’ में विस्तार से मिलता है। पुष्यमित्र के बाद भारत की यह सुदृढ़ता अग्निमित्र वसुमित्र तक बनी रही। बाद में कालप्रवाह में इस यज्ञीय पुरुषार्थ की बिखरी कड़ियों को पुनः संजोने व संवारने का अश्वमेध पराक्रम सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम के पुत्र तथा गुप्त वंश के द्वितीय सम्राट समुद्रगुप्त ने किया। उन्होंने अश्वमेध अनुष्ठान के द्वारा समतट, डुवाक, कामरुप, नेपाल, कर्तपुर, पूर्वी एवं मध्य पंजाब, मालवा तथा पश्चिमी भारत के गणराज्यों, कुषाणों और शकों को एक सूत्र में बाँधा था। उनके उस यज्ञीय पुरुषार्थ के कारण उनका शासनकाल आज भी भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग के रूप में विख्यात है।
अद्भुत है यज्ञ का सूक्ष्म ज्ञान-विज्ञान
भारतीय मनीषियों की मानें तो प्राचीन भारत के स्वस्थ, सुखी व समुन्नत समाज का मूल आधार इसी यज्ञ-विद्या का विस्तार था। आर्ययुगीन सनातन धर्मियों का सुदृढ़ विश्वास था कि यज्ञ चिकित्सा में वे सभी तत्व मौजूद हैं जो न सिर्फ आध्यात्मिक वरन शारीरिक व मानसिक आधि-व्याधियों का सफल उपचार करने में सक्षम हैं। वैदिक वांग्मय के उल्लेख बताते हैं कि यज्ञ की इसी सर्वोपयोगी मान्यता के कारण आर्यकालीन भारत में घर-घर प्रतिदिन अग्निहोत्र हुआ करता था। हमारे वैदिक मनीषियों ने मानवीय स्वास्थ्य, पर्यावरण शुद्धि व सृष्टि के पंचतत्वों के संतुलन के सर्वाधिक प्रभावी उपाय के रूप में जिस यज्ञ विज्ञान को सदियों पूर्व समूचे आर्यावर्त में लोकप्रिय बनाया था; वह कोरोना जैसी भयावह महामारी के दौर में यज्ञोपैथी के रूप में खूब लोकप्रिय हुई थी। गायत्री परिवार के ‘गृहे गृहे गायत्री यज्ञ व उपासना’, आर्यसमाज के ‘कोरोना से युद्ध, वातावरण करो शुद्ध’ जैसे राष्ट्रव्यापी अभियानों से जुड़ कर लाखों लोगों ने न सिर्फ उस आपदा से स्वयं का बचाव किया था वरन यज्ञ के द्वारा पर्यावरण को भी शुद्ध बनाया था। भारत ही नहीं अपितु अमेरिका, कनाडा, साउथ एशिया सहित अनेक देशों में लाखों लोग सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए औषधियुक्त हवन सामग्री के साथ गायत्री महामंत्र, महामृत्यंजय मंत्र एवं सूर्य व रुद्र गायत्री की आहुतियों के साथ नियमित हवन कर कोरोना से सुरक्षित बने रहे थे।
यज्ञोपैथी पर शोध के लिये देश-दुनिया में विख्यात हरिद्वार स्थित गायत्री तीर्थ शांतिकुंज से सम्बद्ध ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान से निदेशक और देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति डा. प्रणव पण्ड्या कहते हैं कि यज्ञ का सूक्ष्म विज्ञान किसी भी अणु, परमाणु और विराट के रहस्यों से कम आश्चर्यजनक नहीं है। यज्ञ चिकित्सा का मूल आधार है रोग की जड़ तक औषधियों की पहुंच। आधुनिक ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में यद्यपि दवा की टिकिया देकर रोग निदान का प्रतिशत सर्वाधिक है मगर रक्त में सीधी औषधि पहुंचाने की इंजेक्शन प्रणाली को ज्यादा प्रभावशाली माना जाता है। मगर यदि कोई ऐसी पद्धति हो जो स्नायु संस्थान को सीधे प्रभावित कर सकती हो तो उसे इंजेक्शन चिकित्सा से भी अधिक कारगर होना चाहिए। धन्वन्तरि, चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट आदि महान भारतीय आयुर्वेदाचार्यों ने ‘यज्ञ चिकित्सा’ को इसी कोटि का माना है। वे कहते हैं कि यज्ञ चिकित्सा एक ऐसी अनूठी चिकित्सा पद्धति है जिसमें रोग-विशेष से सम्बद्ध जड़ी-बूटियों को यज्ञाग्नि में समर्पित कर उससे उत्पन्न यज्ञधूम्र को श्वास के द्वारा शरीर में ग्रहण किया जाता है।
राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान, लखनऊ के निदेशक सी.एस.नौटियाल व उनकी टीम ने वायु में यज्ञ धूम्र के प्रभाव को वैज्ञानिक रूप से सत्यापित करने के लिए वायु प्रतिचयन यंत्र का प्रयोग किया था। उन्होंने आम की लकड़ी व हवन सामग्री से यज्ञ से पूर्व वायु का नमूना लिया तथा यज्ञ के उपरान्त एक निश्चित अन्तराल में 24 घंटे तक वायु के नमूना लिये और इस परीक्षण के आधार पर निष्कर्ष दिया कि यज्ञ के औषधीय धुएं से 60 मिनट में ही वायु में उपस्थित 94 प्रतिशत जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। साथ ही सुगन्धित और औषधीय धुएं से अनेक पौधों के रोग जनक जीवाणु को नष्ट किया जा सकता है। श्री नौटियाल का कहना है कि इस यज्ञ से ऑक्सीजन, इथोलिन ऑक्साइड, प्रोपाइलिन ऑक्साइड और फार्मेल्डिहाइड उत्पन्न होते हैं। फार्मेल्डिहाइड जीवाणुओं के खिलाफ तीव्र प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सहायक होता है, जबकि प्रोपाइलिन ऑक्साइड के बढ़ने से वर्षा की संभावना बढ़ जाती है। बताते चलें कि डा. नौटियाल का यह शोध अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘सन डायरेक्ट’ में प्रकाशित हुआ था। इसी क्रम में मध्यप्रदेश में महेश्वर के पास नर्मदा किनारे स्थित होम थैरेपी गौशाला में भी 2014-15 में जर्मन वैज्ञानिक अलरिच बर्क और धामनोद स्थित AIMS कॉलेज के प्रिसिंपल शैलेंद्र शर्मा द्वारा अग्निहोत्र पर किये गये प्रयोग में जल में बैक्टीरिया की मात्रा व पानी की कठोरता में खासी कमी पायी गयी।
ज्ञात हो कि वैश्विक स्तर पर अग्निहोत्र की प्रामाणिकता को परखने के लिए ऐसा ही एक वृहद प्रयोग जापान के पर्यावरणविद् मासारू इमोटो और भारतीय विद्वान वसंत परांजपे ने साथ मिलकर वर्ष 2007 में जर्मनी के बेनखोलजेन, वेनेजुएला के काराकस, ऑस्ट्रेलिया के सेसनॉक, स्पेन के एल पोर्टो डे सांता मारिया, बिट्रेन के लंदन, अमेरिका के ग्रीन एकर्स, मेडिसन वर्जीनिया और टिंबरलेक प्लेस, यूक्रेन के कीव, पेरू के लीमा, ऑस्ट्रेलिया के मिलीफिल्ड, हंगरी के ऑप्टिजा और इटली के स्टाबेन शहर में वृहद परीक्षण किये थे। परीक्षण के दौरान जब उन्होंने यज्ञ से प्रभावित पानी की बर्फ की क्रिस्टल आकृति का अध्ययन किया हैरान रह गये। यह पानी पहले से कई गुना शुद्ध था। बताते चलें कि बीती सदी में हुए भीषण भोपाल गैस कांड में सिर्फ दो परिवार-कुशवाहा और प्रजापति के सुरक्षित बचे थे, जबकि वे गैस लीक वाली जगह के निकट ही रहते थे। इस बाबत जब वैज्ञानिकों ने अनुसंधान किया तो पता लगा कि उन्होंने अपना घर देसी गाय के गोबर से लीप रखा था और वो रोज देसी गाय के घी और हवन सामग्री से यज्ञ करते थे, जिसके कारण रेडियोएक्टिव उत्सर्जन की विषाक्तता से बचे रहे। यह समाचार उस समय के एक लोकप्रिय दैनिक समाचर पत्र में प्रमुखता से छपा था।
देवसंस्कृति विश्वविद्यालय में ‘यज्ञ विज्ञान’ पर पीएचडी
जानना दिलचस्प हो कि देवसंस्कृति विश्वविद्यालय में ‘यज्ञ विज्ञान’ पर अब तक अनेक शोधार्थियों ने डॉ. पण्ड्या के निर्देशन में पीएचडी की है। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय से ‘यज्ञ के पर्यावरणीय प्रभाव’ पर पीएचडी करने वाली भारत सरकार के कृषि मंत्रालय में बतौर वरिष्ठ सलाहकार कार्यरत डा. ममता सक्सेना ने यज्ञ की वैज्ञानिकता को परखने लिए केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के साथ मिल कर अपना पहला प्रयोग दिल्ली के इंडिया गेट के पास कस्तूरबा गांधी मार्ग पर खुली हवा में एक पांच कुंडीय यज्ञ द्वारा वर्ष 2004 में किया था। उस परीक्षण में उन्होंने पाया कि यज्ञ वाले दिन वायुमंडल में NO2 का स्तर एक दिन पहले के तुलना में 47.3% कम हो गया और अगले दिन यह 60% कम हो गया। जबकि यज्ञ के दिन पहले की तुलना में SO2 का स्तर 86.4% कम हुआ और अगले दिन उसका स्तर डिटेक्शन लेवल से भी नीचे अर्थात 96% से भी कम हो गया।
इन नतीजों से उत्साहित होकर डा. ममता ने अपने घर के अंदर वायु में व्याप्त बैक्टीरिया के कीटाणुओं पर यज्ञ का प्रभाव को जांचने के लिए दिल्ली के सेंट्रल पोल्लुशन कंट्रोल बोर्ड (सीपीसीबी) के साथ मिलकर वर्ष 2007 में अनेक प्रयोग किये। पाया गया कि सिर्फ 75 ग्राम हवन सामग्री जलाने से यज्ञ से पहले की तुलना में यज्ञ वाले दिन कीटाणुओं की संख्या में 70% की कमी आ गयी थी। उनके अनुभवों को ध्यान में रखते हुए बीते दिनों देवसंस्कृति विश्वविद्यालय में ‘याग्वलक्य अनुसंधान केन्द्र’ का शुभारंभ किया गया था। इस केन्द्र में पर्यावरण, कृषि, पुरातन वैदिक विज्ञान के विशेषज्ञों द्वारा यहां यज्ञ चिकित्सा पर शोधकार्य किया जा रहा है।
इस प्रयोगशाला में अत्याधुनिक उपकरणों से यज्ञीय धूम्र का रोगकारक बैक्टीरिया, मानव कोशिकाओं व शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर होने वाले परिवर्तन तथा प्रदूषित हवा, पानी, एवं मिट्टी पर पड़ने वाले प्रभाव को मापने की व्यवस्था की गयी है। डॉ. पण्ड्या बताते हैं कि पिछले कुछ दशकों में ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में 400 से ज्यादा जड़ी बूटियों और 80 से ज्यादा रोगनिवारक हवन सामग्रियों के निर्माण की विधि का अनुसंधान किया गया है जिनके आधार पर देव संस्कृति विश्वविद्यालय में विभिन्न रोगियों पर यज्ञ चिकित्सा के परीक्षण किये जा रहे हैं। इन यज्ञ अनुसंधानों को इंटरडिसिप्लिनरी जर्नल ऑफ यज्ञ रिसर्च (आई.जे.वाय.आर.) नामक शोध पत्रिका में ऑनलाइन पढ़ा भी जा सकता है।
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