भारतीय ज्ञानपीठ न्यास द्वारा भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है ज्ञानपीठ पुरस्कार, जो वर्ष 2023 के लिए देश के जाने-माने शायर, मशहूर गीतकार और फिल्म निर्देशक गुलजार तथा संस्कृत के प्रकांड विद्वान और तुलसी पीठ के संस्थापक रामभद्राचार्य को दिया जाएगा। उनके नाम का चयन भारतीय साहित्य में उनके उत्कृष्ट योगदान के आधार पर किया गया है। किसी भी लेखक को साहित्य की आजीवन सेवा और साहित्य जगत में उसके महान् योगदान के लिए यह पुरस्कर दिया जाता है। 1961 में स्थापित यह पुरस्कार भारत का सबसे पुराना और सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार है, जो किसी भी लेखक को मरणोपरांत नहीं दिया जाता। भारत का कोई भी नागरिक, जो आठवीं अनुसूची में बताई गई 22 भाषाओं में से किसी भी भाषा में लेखन करता हो, इस पुरस्कार के योग्य है। इस पुरस्कार की शुरुआत वर्ष 1961 में भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक साहू शांति प्रसाद जैन के 50वें जन्मदिवस के अवसर पर हुई थी और वर्ष 1965 से लेखकों को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने का सिलसिला शुरू हुआ।
वर्तमान में ज्ञानपीठ पुरस्कार में 11 लाख रुपये की धनराशि, प्रशस्ति पत्र और वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा प्रदान की जाती है। इस पुरस्कार के तहत प्रतीक स्वरूप दी जाने वाली वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा मूलतः धार, मालवा के सरस्वती मंदिर में स्थित प्रतिमा की अनुकृति है। इस मंदिर की स्थापना विद्याव्यसनी राजा भोज द्वारा वर्ष 1035 में की गई थी। मौजूदा समय में यह प्रतिमा लंदन के ब्रिटिश संग्रहालय में है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा साहित्य पुरस्कार के प्रतीक के रूप में इसे ग्रहण करते समय शिरोभाग के पार्श्व में प्रभामंडल सम्मिलित किया गया है, जिसमें तीन रश्मिपुंज हैं, जो भारत के प्राचीनतम जैन तोरण द्वार (कंकाली टीला, मथुरा) के रत्नत्रय को निरूपित करते हैं। हाथ में कमंडल, पुस्तक, कमल और अक्षमाला ज्ञान तथा आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि के प्रतीक हैं।
ज्ञानपीठ पुरस्कार के चयन की प्रक्रिया काफी जटिल है, जो कई महीनों तक चलती है। विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों, शिक्षकों, समालोचकों, प्रबुद्ध पाठकों, विश्वविद्यालयों, साहित्यिक तथा भाषायी संस्थाओं से प्रस्ताव भेजने के साथ इस प्रक्रिया की शुरुआत होती है। प्राप्त प्रस्ताव संबंधित ‘भाषा परामर्श समिति’ द्वारा जांचे जाते हैं और इन समितियों पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है कि वे अपना विचार-विमर्श प्राप्त प्रस्तावों तक ही सीमित रखें बल्कि उन्हें किसी भी लेखक के नाम पर विचार करने की स्वतंत्रता है। हालांकि इन भाषा परामर्श समिति से भारतीय ज्ञानपीठ की यही अपेक्षा रहती है कि संबद्ध भाषा का कोई भी पुरस्कार योग्य साहित्यकार विचार परिधि से बाहर नहीं रह जाए। किसी साहित्यकार पर विचार करते समय भाषा-समिति को उसके सम्पूर्ण कृतित्व का मूल्यांकन तो करना ही होता है, साथ ही समसामयिक भारतीय साहित्य की पृष्ठभूमि में भी उसे परखना होता है।
ज्ञानपीठ पुरस्कार की शुरुआत के कुछ वर्षों बाद पुरस्कार के नियमों में किए गए संशोधन के अनुसार, पुरस्कार वर्ष को छोड़कर पिछले 20 वर्षों की अवधि में प्रकाशित कृतियों के आधार पर लेखक का मूल्यांकन किया जाता है। दरअसल वर्ष 1982 तक यह पुरस्कार लेखक की एकल कृति के लिए दिया जाता था लेकिन उसके बाद से यह लेखक के भारतीय साहित्य में सम्पूर्ण योगदान के लिए दिया जाने लगा।
भारत में साहित्य संबंधी गतिविधियों के संवर्धन और संरक्षण के लिए कार्यरत ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ देश का प्रतिष्ठित और प्रमुख संस्थान है। इस संस्थान की स्थापना भारत के जाने-माने उद्योगपति साहू शांति प्रसाद जैन तथा उनकी पत्नी रामा जैन ने की थी। भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक और बेनेट कोलमैन एंड कम्पनी (बीसीसीएल) के अध्यक्ष रहे साहू शांति प्रसाद जैन 50वें जन्म दिवस के अवसर पर 22 मई 1961 को परिवार के सदस्यों के मन में विचार आया था कि साहित्यिक या सांस्कृतिक क्षेत्र में कोई ऐसा महत्वपूर्ण कार्य किया जाए, जो राष्ट्रीय गौरव तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रतिमान के अनुरूप हो। इसी विचार के अंतर्गत 16 सितंबर 1961 को भारतीय ज्ञानपीठ की संस्थापक अध्यक्ष रामा जैन ने न्यास की एक गोष्ठी में इस पुरस्कार का प्रस्ताव रखा। उसके बाद ज्ञानपीठ पुरस्कार के स्वरूप का निर्धारण करने के लिए गोष्ठियां होती रहीं और आखिरकार 1965 में पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने का निर्णय लिया गया।
साहू शांति प्रसाद जैन तथा रामा जैन द्वारा संस्थापित ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ संस्थान ज्ञानपीठ पुरस्कार और मूर्तिदेवी पुरस्कार जैसे साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार प्रदान करने के अलावा उच्च कोटि की साहित्यिक पुस्तकें भी प्रकाशित करता है। वर्ष 1965 में एक लाख रुपये की पुरस्कार राशि से प्रारंभ हुए ज्ञानपीठ पुरस्कार की राशि को 2005 में बढ़ाकर 7 लाख रुपये कर दिया गया था, जो वर्तमान में 11 लाख रुपये हो चुका है। 1965 में प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार मलयालम लेखक जी. शंकर कुरुप को प्रदान किया गया था। ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम हिन्दी लेखक सुमित्रानंदन पंत थे, जिन्हें हिन्दी साहित्य के छायावादी कवियों में श्रेष्ठ माना जाता रहा है। उन्हें वर्ष 1968 में उनकी कृति ‘चिदम्बरा’ के लिए भारतीय साहित्य के इस सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
1965 से लेकर अभी तक हिन्दी और कन्नड़ भाषा के लेखक सर्वाधिक बार यह पुरस्कार पा चुके हैं। हिन्दी के लेखकों को 10 बार जबकि कन्नड़ भाषी लेखकों को अब तक कुल 7 बार यह पुरस्कार मिला है। हिन्दी और कन्नड़ के अलावा बांग्ला को 5 बार, उर्दू और मलयालम को 4 बार, उड़िया, असमिया और गुजराती को तीन-तीन बार, मराठी, तेलुगू, पंजाबी और तमिल को दो-दो बार तथा संस्कृत को इस बार ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है। हिन्दी के लेखकों में 1968 में सुमित्रानंदन पंत, 1972 में रामधारी सिंह दिनकर, 1978 में अज्ञेय, 1982 में महादेवी वर्मा, 1992 में नरेश मेहता, 1999 में निर्मल वर्मा, 2005 में कुंवर नारायण, 2009 में अमरकान्त व श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रूप से, 2013 में केदारनाथ सिंह तथा 2017 में कृणा सोबती को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
कन्नड़ भाषा में यह पुरस्कार 1973 में दत्तात्रेय रामचंद्र बेन्द्रे, 1977 में के. शिवराम कारंत, 1983 में मस्ती वेंकटेश अयंगार, 1990 में वी.के. गोकक, 1994 में यू.आर. अनंतमूर्ति, 1998 में गिरीश कर्नाड तथा 2010 में चन्द्रशेखर कम्बार को मिल चुका है। वर्ष 2019 में 55वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रख्यात मलयाली कवि अक्कीतम अच्युतन नंबूदिरी को प्रदान किया गया, जबकि 2021 के लिए 56वां ज्ञानपीठ पुरस्कार 88 वर्षीय नीलमणि फूकन जूनियर को तथा 2022 के लिए 57वां ज्ञानपीठ पुरस्कार 77 वर्षीय दामोदर मौउजो को दिया गया। बहरहाल, 58वें ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए दोनों महान् साहित्यकारों गुलजार और रामभद्राचार्य को बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
58वां ज्ञानपीठ पुरस्कार देश के जाने-माने शायर, मशहूर गीतकार, पटकथा लेखक, फिल्म निर्देशक और उर्दू के साहित्यकार गुलजार को उर्दू तथा तुलसी पीठ के संस्थापक और संस्कृत के प्रकांड विद्वान रामभद्राचार्य को संस्कृत साहित्य के लिए दिया जाएगा। 2023 के ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चयनित गुलजार वर्तमान समय के बेहतरीन उर्दू कवियों में शामिल ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने अपने गीतों के माध्यम से लोगों के दिलों में खास जगह बनाई और आम बोलचाल की भाषा को अपनी शायरी की जुबान बनाकर हिन्दी और उर्दू के बीच के फर्क को मिटाने में उल्लेखनीय योगदान दिया है। झेलम जिले के दीना में 18 अगस्त 1936 को जन्मे गुलजार का परिवार विभाजन के बाद भारत आकर बस गया था। लेखन और संगीत में गुलजार की रूचि बचपन से ही थी लेकिन परिवार के लोग इसे समय की बर्बादी मानते हुए उनके इस शौक के खिलाफ थे। इसी विरोध के कारण वे परिवार से छुपकर पड़ोसी के घर जाकर लिखने का अभ्यास किया करते थे। लेखन और संगीत का यही जुनून उन्हें मायानगरी मुम्बई तक ले गया, जहां उन्हें अपने सपनों को पूरा करने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ा।
मुम्बई जैसे शहर में टिके रहने के लिए उन्होंने कई छोटी-मोटी नौकरियां की और अपने गुजारे के लिए मैकेनिक का भी कार्य किया। उसी दौरान उनकी मुलाकात प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन के लेखकों से होने लगी, वहीं से उनके कैरियर को दिशा मिलनी शुरू हुई और उन्हें ऋषिकेश मुखर्जी, बिमल रॉय, संगीत निर्देशक हेमंत कुमार इत्यादि के सहायक के रूप में काम करने का अवसर मिला। बिमल रॉय ने उन्हें 1963 में आई फिल्म ‘बंदिनी’ के लिए ‘मोरा गोरा अंग लै ले’ गाना लिखने का पहला अवसर प्रदान किया था। हालांकि उन्हें पहचान मिली 1969 में आई फिल्म ‘खामोशी’ में उनके गीत ‘हमने देखी है उन आंखों की महकती खुशबू’ से, जिसके बाद गुलजार ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
गुलजार की प्रतिभा से प्रभावित होकर बिमल रॉय ने उन्हें सहायक निर्देशक के तौर काम करने का भी मौका दिया और वहीं से गुलजार के निर्देशक करने का मार्ग भी प्रशस्त हुआ। उन्होंने अपने निर्देशन कैरियर की शुरआत ‘मेरे अपने’ फिल्म से की और उसके बाद ‘परिचय’, ‘कोशिश’, ‘अचानक’, ‘आंधी’, ‘अंगूर’, ‘माचिस’, ‘हूतूतू’, ‘लिबास’, ‘मौसम’ इत्यादि कई बेहतरीन फिल्मों का निर्देशन किया। निर्देशन के साथ-साथ गुलजार ने गीतकार के रूप में भी खूब वाहवाही बटोरी। ‘ऐ जिंदगी गले लगा ले’, ‘मुसाफिर हूं यारों’, ‘तेरे बिना जिंदगी से’, ‘आने वाला पल जाने वाला है’, ‘हमने देखी हैं आंखों से’, ‘तुझसे नाराज नहीं जिंदगी’, ‘हजार राहें मुड़ के देखी’ इत्यादि उनके अनेक गीत आज भी लोगों की जुबां पर हैं। वर्ष 2007 में आई फिल्म ‘स्लमडॉग मिलिनेयर’ में उनके लिखे गीत ‘जय हो’ के लिए उन्हें ‘ऑस्कर’ पुरस्कार भी मिल चुका है। उन्होंने कई प्रमुख कृतियों की भी रचना की, जिनमें पुखराज, एक बूंद चांद, चौरस रात, रात पश्मीने की, रवि पार, कुछ और नज्में, यार जुलाहे, पंद्रह पांच पचहत्तर इत्यादि शामिल हैं। उन्होंने आनंद, गुड्डी, बावर्ची, नमक हराम, दो दूनी चार, खामोशी, सफर की कहानी लिखी।
गुलजार को कला और फिल्मों में उनके योगदान के लिए अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। फिल्म ‘कोशिश’, ‘मौसम’ और ‘इजाजत’ के लिए उन्हें 3 राष्ट्रीय और 47 फिल्मफेयर पुरस्कार अवार्ड मिले। ‘आनंद’, ‘नमक हराम’ और ‘माचिस’ फिल्म के बेहतरीन संवाद के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ डायलॉग राइटर का फिल्मफेयर मिला जबकि ‘मौसम’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर पुरस्कार प्रदान किया गया। फिल्मों में अलग-अलग कार्यों के लिए उन्हें कुल पांच राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिल चुके है। इसके अलावा उन्हें उर्दू में काम के लिए 2002 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 2004 में कला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण’ सम्मान, 2013 में हिंदी सिनेमा में विशेष योगदान के लिए ‘दादा साहेब फाल्के पुरस्कार’ जैसे प्रतिष्ठित सम्मान भी मिल चुके हैं।
2023 के ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चयनित चित्रकूट में तुलसी पीठ के संस्थापक और संस्कृत भाषा के जाने-माने विद्वान रामभद्राचार्य 22 से अधिक भाषाओं के ज्ञाता हैं। 14 जनवरी 1950 को उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में जन्मे प्रख्यात विद्वान, शिक्षाविद्, बहुभाषाविद्, रचनाकार, प्रवचनकार, दार्शनिक और हिन्दू धर्मगुरु रामभद्राचार्य रामानन्द सम्प्रदाय के वर्तमान चार जगद्गुरु रामानन्दाचार्यों में से एक हैं और 1988 से ही इस पद पर प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने चित्रकूट में विश्व का पहला दिव्यांग विश्वविद्यालय ‘जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय’ स्थापित किया, जिसे राज्य सरकार ने अपने अधीन कर लिया है लेकिन वह इसके आजीवन कुलाधिपति हैं। यह विश्वविद्यालय केवल चतुर्विध विकलांग विद्यार्थियों को स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम और डिग्री प्रदान करता है।
जगतगुरु रामभद्राचार्य महज दो महीने के ही थे, जब आंखों में ट्रेकोमा संक्रमण के कारण उनकी आंखों की रोशनी हमेशा के लिए चली गई थी लेकिन नेत्रहीन होते हुए भी उन्होंने कई भविष्यवाणियां की, जो सत्य साबित हुई। हैरानी की बात है कि अध्ययन अथवा रचनाओं के लेखन के लिए उन्होंने कभी भी ब्रेल लिपि का प्रयोग नहीं किया और फिर भी उन्होंने संस्कृत और हिन्दी के चार महाकाव्यों, रामचरितमानस पर हिन्दी टीका, अष्टाध्यायी पर काव्यात्मक संस्कृत टीका, प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और प्रधान उपनिषदों) पर संस्कृत भाष्य सहित सौ से भी अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना कर डाली। बाल्यकाल में ही वेद कंठस्थ करने और अब तक 100 से भी ज्यादा पुस्तकें लिख चुके स्वामी रामभद्राचार्य संस्कृत, हिंदी, अवधी, मैथिली तथा कई अन्य भाषाओं में भी लिखते हैं।
रामभद्राचार्य की चर्चित रचनाओं में अष्टावक्र, आजादचन्द्रशेखरचरितम्, लघुरघुवरम्, सरयूलहरी, भृंगदूतम्, कुब्जापत्रम् इत्यादि प्रमुख हैं। उन्होंने भार्गवराघवीयम् और गीतरामायणम् सरीखे उत्कृष्ट महाकाव्यों की रचना की है। स्वामी रामभद्राचार्य की गिनती तुलसीदास पर भारत के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों में होती है। राम जन्मभूमि मामले में उन्होंने वेद-पुराणों और शास्त्रों के उद्धरण के उदाहरणों के साथ अयोध्या के विवादित स्थल में श्रीराम जन्मभूमि के साक्ष्य देकर फैसले का रुख मोड़ दिया था। सुप्रीम कोर्ट में उनकी गवाही सुर्खियां बनी थी और सुनवाई करने वाले जज ने इसे भारतीय प्रज्ञा का चमत्कार माना था। एक ऐसा व्यक्ति, जो देख नहीं सकता, वह कैसे वेदों और शास्त्रों से विशाल संसार से उदाहरण दे सकते हैं, इसे ईश्वरीय शक्ति ही माना जाता है। दिव्यांग राज्य विश्वविद्यालय, तुलसी पीठ, नेत्र दिव्यांगजन के लिए तुलसी प्रज्ञाचक्षु विद्यालय, जगदगुरु रामभद्राचार्य विकलांग सेवा संघ व कांच मंदिर की स्थापना कर चुके स्वामी रामभद्राचार्य को 2003 में राजशेखर सम्मान, 2004 में बादरायण पुरस्कार, 2005 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 2011 में देवभूमि पुरस्कार तथा 2015 में भारत सरकार द्वारा पद्म विभूषण सम्मान से नवाजा जा चुका है।
विशेष : कब किसे मिला ज्ञानपीठ पुरस्कार ?
वर्ष नाम भाषा
1965 जी शंकर कुरुप मलयालम
1966 ताराशंकर बंधोपाध्याय बांग्ला
1967 के.वी. पुत्तपा कन्नड़
1967 उमाशंकर जोशी गुजराती
1968 सुमित्रानंदन पंत हिन्दी
1969 फिराक गोरखपुरी उर्दू
1970 विश्वनाथ सत्यनारायण तेलुगु
1971 विष्णु डे बांग्ला
1972 रामधारी सिंह दिनकर हिन्दी
1973 दत्तात्रेय रामचंद्र बेन्द्रे कन्नड़
1973 गोपीनाथ महान्ती उडि़या
1974 विष्णु सखाराम खांडेकर मराठी
1975 पी.वी. अकिलानंदम तमिल
1976 आशापूर्णा देवी बांग्ला
1977 के. शिवराम कारंत कन्नड़
1978 अज्ञेय हिन्दी
1979 बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य असमिया
1980 एस. के. पोट्टेक्काट मलयालम
1981 अमृता प्रीतम पंजाबी
1982 महादेवी वर्मा हिन्दी
1983 मस्ती वेंकटेश अयंगार कन्नड़
1984 तकाजी शिवशंकरा पिल्लै मलयालम
1985 पन्नालाल पटेल गुजराती
1986 सच्चिदानंद राउतराय उडि़या
1987 विष्णु वामन शिरवाडकर कुसुमाग्रज मराठी
1988 सी. नारायण रेड्डी तेलुगु
1989 कुर्तुलएन हैदर उर्दू
1990 वी.के.गोकक कन्नड़
1991 सुभाष मुखोपाध्याय बांग्ला
1992 नरेश मेहता हिन्दी
1993 सीताकांत महापात्र उडि़या
1994 यू.आर. अनंतमूर्ति कन्नड़
1995 एम.टी. वासुदेव नायर मलयालम
1996 महाश्वेता देवी बांग्ला
1997 अली सरदार जाफरी उर्दू
1998 गिरीश कर्नाड कन्नड़
1999 निर्मल वर्मा हिन्दी
1999 गुरदयाल सिंह पंजाबी
2000 इंदिरा गोस्वामी असमिया
2001 राजेन्द्र केशवलाल शाह गुजराती
2002 दण्डपाणी जयकान्तन तमिल
2003 विंदा करंदीकर मराठी
2004 रहमान राही कश्मीरी
2005 कुंवर नारायण हिन्दी
2006 रवीन्द्र केलकर कोंकणी
2006 सत्यव्रत शास्त्री संस्कृत
2007 ओ.एन.वी. कुरुप मलयालम
2008 अखलाक मुहम्मद खान शहरयार उर्दू
2009 अमरकान्त व श्रीलाल शुक्ल हिन्दी
2010 चन्द्रशेखर कम्बार कन्नड
2011 प्रतिभा राय उडि़या
2012 रावुरी भारद्वाज तेलुगू
2013 केदारनाथ सिंह हिन्दी
2014 भालचंद्र नेमाडे मराठी
2015 रघुवीर चौधरी गुजराती
2016 शंख घोष बांग्ला
2017 कृष्णा सोबती हिन्दी
2018 अमिताव घोष अंग्रेजी
2019 अक्कित्तम अच्युतन नंबूदिरी मलयालम
2021 नीलमणि फूकन असम
2022 दामोदर मौउजो कोंकणी
2023 गुलजार उर्दू
2023 रामभद्राचार्य संस्कृत
(लेखक 34 वर्षों से साहित्य एवं पत्रकारिता में निरंतर सक्रिय हैं)
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