रामहिं केवल प्रेम पियारा
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होम भारत

रामहिं केवल प्रेम पियारा

by पूनम नेगी
Jan 11, 2025, 09:10 am IST
in भारत, संस्कृति
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भगवान राम का अवतार मानवीय जीवन का आदर्श समाज के सामने रखने के लिए ही हुआ था। वे समाज को यह शिक्षा देने के लिए पृथ्वी पर आए थे कि मनुष्य में मानवता का गुण सर्वोपरि होता है

देवत्व से बड़ी है देवत्व की साधना और इस देवत्व की साधना के सर्वोच्च प्रतिमान हैं मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम; जो अपने मानवी स्वरूप में जीवन को उच्च से उच्चतम स्तर तक उठाकर दिव्य से दिव्यतम बनाते हैं। अपने समय की राक्षसी व नकारात्मक शक्तियों के उन्मूलन के लिए अवतरित प्रभु राम का समूचा जीवन कर्म, त्याग और भक्ति की अनूठी त्रिवेणी है। सनातन संस्कृति के पुनरोदय की इस 21वीं सदी में राष्ट्र के संस्कृति पुरुष के रूप में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा निश्चित रूप से देश दुनिया के हर सनातन हिन्दू धर्मावलम्बी के लिए असीम हर्ष व गर्व का विषय है। अपरिमित आनंद के इस मंगल अवसर पर प्रभु श्रीराम को अपना आराध्य मानने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त सहज ही याद आ जाते हैं; जिनकी दिव्य चेतना आज परलोक से अपने आराध्य प्रभु श्रीराम के इस प्राण प्रतिष्ठा महा महोत्सव को देख असीम आनंद का अनुभव कर रही होगी।

उल्लेखनीय है कि वर्तमान से एक शताब्दी पूर्व विदेशी दासता के शासनकाल में जब भगवान राम को कपोल कल्पना बताकर सनातन गौरव को नष्ट करने का षड्यंत्र रचा जा रहा था, इस परम वैष्णव राष्ट्रभक्त कवि की आकुल आत्मा व्याकुल होकर महाकाव्य ‘‘साकेत’’ में पुकार उठी थी-
हो गया निर्गुण सगुण साकार है।
ले लिया अखिलेश ने अवतार है।।
पथ दिखलाने के लिए संसार को।
दूर करने के लिए भू-भार को।।
पापियों का जान लो अब अंत है।
भूमि पर प्रगटा अनादि अनंत है।।

भगवान राम को परम ब्रह्म के रूप में चित्रित कर उनके सगुण और निर्गुण दोनों रूपों के प्रति पूर्ण आस्था रखने वाले गुप्त जी लिखते हैं कि भगवान राम सर्वशक्तिमान हैं। जिन पर राम की कृपा होती है, संसार में उनका बाल का बांका भी नहीं हो सकता। प्रभु राम के संकेत से ही जगत के समस्त कार्यों का संचालन होता है। जब राम किसी के प्रतिकूल हो जाते हैं तो फिर अन्य किसी की आशा नहीं करनी चाहिए।

राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। आदर्श राजा हैं। आदर्श पुत्र हैं। आदर्श पति हैं। आदर्श भाई हैं। आदर्श मित्र हैं। आदर्श संगठक हैं। सामाजिक समरसता के आदर्श सेतु हैं। इसी कारण वे युगों युगों से सनातनी हिन्दुओं की एकता, अखंडता और संस्कृति के सर्वोच्च प्रतिमान बने हुए हैं। प्रभु श्रीराम के इसी मर्यादित व्यक्तित्व से आकृष्ट हो गुप्त जी लिखते हैं –
निज मर्यादा पुरुषोत्तम ही मानव का आदर्श।
नहीं और कोई कर पाता मेरा हृदय स्पर्श।।

गुप्त जी की राम नाम में गहरी श्रद्धा थी और वे राम नाम की महिमा से भी भलीभांति परिचित थे। वे कहते थे कि उपासना और पूजा वास्तविक अर्थ है उपास्य के पास पहुंचाना और उसके गुण तथा स्वभाव को अपने आचरण में ग्रहण करना। इसी कारण गुप्त जी के राम अपने श्रीमुख से स्पष्ट कहते हैं कि मेरा नाम स्मरण करने वाले सहज ही इस संसार सागर से तर जाएंगे किन्तु जो मेरे गुण कर्म और स्वभाव को अपने आचरण में उतार लेंगे वे न केवल स्वयं अपितु अन्य व्यक्तियों को भी इस संसार सागर से पार उतार देंगे-
जो नाम मात्र ही स्मरण मदीय करेंगे।
वे भी भवसागर बिना प्रयास तरेंगे।।
पर जो मेरा गुण कर्म स्वभाव धरेंगे।
वे औरों को भी तार पार उतरेंगे।।

रामराज्य के आदर्शों से अनुप्राणित गुप्त जी सदाचार को मुक्ति का द्वार और कदाचार को रौरव नरक बताते हुए कहते हैं कि मनुष्य अपने अच्छे कर्मों से जहां चाहे वहां स्वर्ग जैसी शांति का वातावरण बना सकता है। आनंद प्राप्ति को अपने सत्कर्मों के अधीन सिद्ध करते हुए वे कहते हैं-
आनंद हमारे ही अधीन रहता है।
तब भी विषाद नर लोक व्यर्थ सहता है।।
करके अपना कर्तव्य रहो संतोषी।
फिर सफल हो कि तुम विफल न होगे दोषी।।

ज्ञातव्य है कि गुप्त जी ने अपनी रामभक्ति केवल कर्मकांड के सींखचों तक सीमित नहीं की, अपितु लोकोपकार और मानवता की सेवा के रूप में प्रस्तुत की है। वे कहते हैं कि भक्ति के लोकमंगलकारी स्वरूप को अपनाने से ही सच्चे सुख और संतोष की अनुभूति मनुष्य को हो सकती है-
करते हैं जब उपकार किसी का हम कुछ।
होता है तब संतोष हमें क्या कम कुछ।।
निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी।
हम हों समष्टि के लिए व्यष्टि बलिदानी।।

गुप्त जी की मान्यता थी कि भक्ति की एक सामाजिक उपयोगिता होती है। जिस समाज में सदाचारी भक्त रहते हैं वहां के लोगों को सब प्रकार से शांति और सुख का अनुभव होता है। जिस तरह गोस्वामी तुलसीदास रामराज्य का चित्रण करते हुए लिखते हैं कि वहां सभी व्यक्ति बैर भाव को त्याग कर आपस में प्रेम से रहते हैं और इस आदर्श समाज में मानव की श्रेष्ठता कुल से नहीं वरन् शील और चरित्र से होती है। ठीक वैसे ही गुप्त जी के ‘‘साकेत’’ के आदर्श समाज में भी सभी मनुष्य इसी प्रकार प्रेम से मिलकर रहते हैं जैसे किसी वृक्ष पर सैकड़ों पुष्प बिना किसी ईर्ष्या-द्वेष के खिलते हैं-
एक तरु के विविध सुमनों से खिले।
पौरजन रहते परस्पर हैं मिले।।

गुप्त जी के अनुसार भगवान राम का अवतार आर्यों का आदर्श समाज के सामने रखने के लिए ही हुआ था। वे समाज को यह शिक्षा देने के लिए पृथ्वी पर आए थे कि मनुष्य में मानवता का गुण सर्वोपरि होना चाहिए। समाज में सुख और शांति की स्थापना के लिए वे एक क्रांति का संदेश लेकर पृथ्वी पर आए थे। जिन मनुष्यों को भगवान की सत्ता में विश्वास होता है, उनके विश्वास की रक्षा के लिए भगवान राम ने इस पृथ्वी पर अवतार लिया था।

अपनी प्रखर लेखनी के माध्यम से जन सामान्य में रामराज्य के जीवनमूल्यों का उद्घोष करने वाला यह परम वैष्णव कवि कहता है कि रामकथा में सत्य से बढ़कर दूसरा कोई अन्य मत नहीं बताया गया है। सभी पुण्यों का मूल कारण मात्र सत्य ही है और परोपकार से बढ़कर कोई कोई धर्म नहीं। भेदभाव, अन्याय असत्य का विरोध करने के कारण ही राम भारत के कण-कण में रचे-बसे हैं। सद्गुणों के कारण वह नरोत्तम हैं। अनेक कष्ट उठाते हुए श्रीराम शील, प्रेम, नैतिकता, करुणा और क्षमा के प्रतिमान हैं। साकेत महाकाव्य में अपने जीवन का उद्देश्य श्री राम इस प्रकार स्पष्ट करते हैं-
निज रक्षा का अधिकार रहे जन जन को,
सबकी सुविधा का भार किन्तु शासन को।
मैं आर्यों का आदर्श बताने आया,
जन-सम्मुख धन को तुच्छ जताने आया।
सुख-शान्ति-हेतु मैं क्रान्ति मचाने आया,
विश्वासी का विश्वास बचाने आया।
मैं आया उनके हेतु कि जो तापित हैं,
जो विवश, विकल, बल-हीन, दीन, शापित हैं।
हो जांय अभय वे जिन्हें कि भय भासित हैं,
जो कौणप-कुल से मूक-सदृश शासित हैं।
मैं आया, जिसमें बनी रहे मर्यादा,
सुख देने आया, दु:ख झेलने आया;
मैं मनुष्यत्व का नाट्य खेलने आया।
मैं यहां एक अवलम्ब छोड़ने आया,
गढ़ने आया हूं, नहीं तोड़ने आया।
मैं यहां जोड़ने नहीं, बांटने आया,
जगदुपवन के झंखाड़ छांटने आया।
मैं राज्य भोगने नहीं, भुगाने आया,
हंसों को मुक्ता-मुक्ति चुगाने आया।
भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया,
नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया!
सन्देश यहां मैं नहीं स्वर्ग का लाया,
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।
अथवा आकर्षण पुण्यभूमि का ऐसा
अवतरित हुआ मैं, आप उच्च फल जैसा।

भले ही ‘साकेत’ में गुप्त जी ने उर्मिला की व्यथा को प्रमुखता से चित्रित किया है किन्तु राम के आदि दैविक रूप की ही झांकी इस महाकाव्य की मूल प्रेरणा है। गुप्त जी की इस प्रणम्य राम भक्ति में मानवता का अमर संदेश निहित है। प्रभु श्रीराम को नमन करते हुए कविवर मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं-
किसलिए यह खेल प्रभु ने है किया ।
मनुज बनकर मानवी का पय पिया ॥
भक्त वत्सलता इसी का नाम है।
और वह लोकेश लीला धाम है ।
राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है।
कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है॥ 

Topics: dignityसनातन संस्कृतिPurushottam Lord Shri RamSanatan culturecultural man of the nationmanasnational poet Maithili Sharan Guptनैतिकताcompassionरामलला की प्राण प्रतिष्ठाlife prestige of Ramlala.मर्यादामानस के मोतीप्रेमपुरुषोत्तम प्रभु श्रीरामराष्ट्र के संस्कृति पुरुषश्रीराम शील
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