22 जनवरी को जब पूरा देश ही नहीं, बल्कि समूचा विश्व आह्लादित हो रहा था। जो भी इस स्थान की महत्ता और इस मंदिर के सांस्कृतिक महत्व को समझता है, वह हर व्यक्ति एवं देश इस मंदिर के समर्थन में लिख रहा था और समझ रहा था कि आराध्य के जन्मस्थान को वापस पाने की प्रसन्नता क्या है। परन्तु उस समय भारत में बैठ कर एक वर्ग हमेशा के अनुसार हिन्दू संस्कृति के प्रति अपनी घृणा फैला रहा था।
यह गैंग हमेशा ही भारत और हिन्दू भारत के विरुद्ध विषवमन करता रहा है और इस बार इसकी घृणा बहुत तेज है। इस बार इसकी कुंठा अपनी हर सीमा पार करने को उतारू है, इस बार यह वर्ग जोर-जोर रो रहा है, इस बार यह वर्ग अपनी घृणा को संविधान के पीछे छिपा रहा है, मगर इसके बाद भी इसका असली चेहरा सामने आ रहा है। इसकी गुलामी मानसिकता एक बार फिर बाहर आई है। इस समूह में कम्युनिस्ट नेता आशी से लेकर कम्युनिस्ट प्रोपोगैंडा वेबसाईट की कथित पत्रकार आरफा शामिल हैं।
आरफा के दुःख का पारावार नहीं है। यह याद रखना चाहिए कि यह वही आरफा खानम शेरवानी हैं, जो खुद को बाबर की पहचान से जोड़कर रखना चाहती हैं और भारत की पहचान से बचतीं हैं और भारत से इस सीमा तक घृणा है कि भारतीय मूल के पसमांदा मुस्लिमों के हितों की बात पर जब बहस होती है तो वह बीच बहस से भाग जाती हैं। आरफा के लिए 22 जनवरी 2024 का दिन बहुत दुःख लेकर आया, क्योंकि उन्होंने कहा कि हम जिस भारत की कल्पना करते हैं, जिस भारत को कई सदियों से जानते आए थे, वह अब मर गया है।
https://twitter.com/khanumarfa/status/1749330731682374067?
ये कैसे लोग हैं? कहाँ से आते हैं जो भारत के सांस्कृतिक उत्थान वाले दिन को भारत के मरने की बात कह रहे हैं? ये लोग बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं कि आज भारत ने फिर से सांस्कृतिक अंगड़ाई ली है। आरफा ने और कई और कथित लिबरल पत्रकारों ने 22 जनवरी को अपनी-अपनी सोशल मीडिया वाल पर भारत के संविधान की प्रति चिपकाई।
यह सत्य है कि एक लोकतांत्रिक देश में संविधान ही सर्वोपरि होता है, परन्तु आरफा जैसे लोग संविधान की उस प्रति से भी आकंठ घृणा से भरे हैं, जो मूल प्रति थी। उन्हें भारत के संविधान की तब तो याद आती है जब समाजवाद, पंथनिरपेक्ष जैसे शब्दों से भरी हुई प्रस्तावना उन्हें लोगों को बतानी होती है, परन्तु उन्हें भारत के संविधान की वह मूल प्रति याद नहीं आती है जिसमें प्रभु श्रीराम माता जानकी के साथ विद्यमान है। भारत की तो पहचान ही प्रभु श्रीराम हैं।
मगर आरफा जैसे लोगों को भारत के इस संविधान की सांस्कृतिक पहचान से घृणा है, तभी वह भारत के संविधान की बात तो करती हैं परन्तु उन शब्दों के साथ, जिन्हें आपातकाल के दौरान कांग्रेस की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सम्मिलित कर दिया था। परन्तु भारत का आम नागरिक संविधान का आदर करता है। भारत का हिन्दू संविधान का आदर करता है, तभी उसने पांच सौ वर्षों के संघर्ष को भारत का संविधान लागू होने के बाद संवैधानिक तरीके से जीता है। भारत की न्यायपालिका से उसने यह संघर्ष जीता है।
क्या भारत के हिन्दुओं को अपनी इस सांस्कृतिक जीत का उत्सव मनाने का भी अधिकार नहीं है? क्या पांच सौ वर्षों एवं असंख्य बलिदानों के बाद बने इस मंदिर के प्रति आदर व्यक्त करने का भी अधिकार हिन्दुओं को नहीं है? क्या भारत के हिन्दू अपनी उस पीड़ा को बहने भी नहीं दे सकते हैं जो उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी झेली है? यह पीड़ा चेतना की पीड़ा है, जिसे आरफा जैसे लोग नहीं समझ सकते क्योंकि भारत पुनर्जन्म की भूमि है। जहां जन्म लेने के लिए देवताओं में होड़ लगी रहती है, जहां स्वयं प्रभु अवतार लेते हैं। यह जन्मों के संचित पुण्यों की भूमि है और इन पुण्यों के महत्व को वही समझ सकता है जिसकी पहचान इस भूमि की हो, जो पसमांदा मुस्लिमों की अर्थात भारतीय मुस्लिमों की पीड़ा को ही समझने से इंकार कर दे, वह कभी भी चेतना की पीड़ा को नहीं समझ पाएगा क्योंकि उसके पास चेतना होगी ही नहीं!
आरफा को यह तकलीफ है कि टीवी समाचार पत्रों के एंकर्स तिलक क्यों लगाए हैं? बिंदी क्यों लगाए हैं? भगवा कुरते क्यों पहने हुए हैं आदि आदि! उनका कहना है कि उन्हें यह देखकर पीड़ा हो रही है, उनका दम जैसा घुट रहा है कि आखिर क्यों ऐसा लोग कर रहे हैं? उनका कहना है कि हिन्दी मीडिया तो हिन्दू मीडिया बन गया है। मगर यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह वही आरफा है जिन्हें कभी भी इस बात पर आपत्ति नहीं हुई कि आखिर मुस्लिम लड़कियां स्कूल में बुर्के आदि की लड़ाई क्यों लड़ रही हैं? वह आम मुस्लिम लड़कियों के लिए हिजाब, बुर्के को चॉइस बता सकती हैं, परन्तु श्रीराम मंदिर की कवरेज के लिए गयी महिला एंकर्स यदि अयोध्या की भूमि पर वहां की संस्कृति का पालन कर रही हैं तो आरफा जैसों को समस्या है।
आरफा अकेली नहीं है! आरफा जैसे कई हैं। आरफा जैसी कम्युनिस्ट आशी है जिसने लिखा कि 22 जनवरी, एक सेक्युलर देश का पतन! याद रखा जाएगा! सच में! याद सब रखा जाएगा! यह याद रखा जाएगा कि जब भारत अपने सांस्कृतिक जागरण के सबसे महत्वपूर्ण पायदान पर था, उस समय आरफा जैसे लोग भारत के मरने की बात कर रहे हैं, वैसे एक बात सत्य है कि औरंगजेब जैसों की पहचान वाला भारत कभी नहीं रहा था। बाबर की पहचान वाला भारत कभी नहीं रहा था क्योंकि उनके लिए यह भूमि भारत नहीं थी। उनके लिए यह भूमि हिन्दुस्तान थी। देश की सांस्कृतिक पहचान मिटाने वालों को इस भूमि ने स्वीकार नहीं किया है।
यह याद रखा जाएगा कि जब पूरा देस अपने आराध्य का उन क़दमों का पालन करने के बाद स्वागत कर रहा था, जो उसने संविधान का पालन करने के बाद प्राप्त हुए थे, तो आरफा जैसे गुलाम मानसिकता वाले लोग सहिष्णु भारत के उस अतिसहिष्णु वर्ग को उसी संविधान की दुहाई दे रहे थे! परन्तु संविधान में तो स्वयं वही प्रभु श्रीराम हैं, जिनके मंदिर का स्वागत 22 जनवरी 2024 को इस देश ने नम आँखों और रुंधे गले से किया था!
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