राम मंदिर की स्वप्नपूर्ति की इस घड़ी में एक आकलन यह भी कि संघ ने किया क्या? और यह भी की संघ न होता तो क्या-क्या न होता
राष्ट्रीय आकांक्षा के प्रतीक श्रीराम जन्मस्थान पर श्री रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का पल अनमोल है। हर भारतीय प्रसन्न है। विश्व के सभी हिन्दू तथा भारत प्रेमी लोगों में एक अनोखा उत्साह, उत्सव और एक दीर्घकालीन संकल्प की पूर्ति के आनंद की अनुभूति दिख रही है। यह असंभव सा परंतु आवश्यक कार्य कैसे संभव हुआ, इसका विस्मय भी लोगों में है.. और लोग संघ की ओर देखते हैं।
एक बार एक व्यक्ति ने मुझे पूछा कि स्वतंत्रता के बाद भारत के लिए संघ का क्या योगदान है? मैंने कहा, संघ ने तय किया है कि हम केवल व्यक्ति निर्माण, समाज संगठन और राष्ट्रीय चेतना का जागरण करेंगे। राष्ट्रीय दृष्टि से जाग्रत ऐसे लोग समाज के समर्थन से वह सब कुछ करेंगे जो आवश्यक है, करणीय है, अपेक्षित है। बाकी संघ कुछ नहीं करेगा। इसलिए संघ ने क्या किया इसका उत्तर है – समाज जागरण और संगठन के सिवा कुछ नहीं किया। पर यदि संघ नहीं होता तो भारत में क्या-क्या नहीं होता, इसकी लंबी सूची बन सकती है।
हिन्दुत्व विचार के पुरोधा और हिन्दुत्व को सागर पार अमेरिका में प्रतिष्ठा प्राप्त कराने वाले स्वामी विवेकानंद जी की जन्मशताब्दी 1963 में शुरू होनी थी। अमेरिका जाने से पहले स्वामी जी ने दो वर्ष भारत भ्रमण किया और अंत में 25 दिसंबर, 1892 को कन्याकुमारी में समुद्र में स्थित श्रीपादशिला पर तैरकर पहुँचे। वहां तीन दिन-रात ध्यानस्थ होने के बाद उन्हें अपने जीवन का उद्देश्य और दिशा का दर्शन हुआ। बाद में वे अमेरिका गए। इसलिए 1962 में तत्कालीन तमिलनाडु सरकार ने स्वामी विवेकानंद जी की जन्मशती के निमित्त उस शिला पर स्वामी जी के स्मारक के रूप में उनकी भव्य मूर्ति प्रतिष्ठित करने का विचार किया। परंतु ईसाइयों द्वारा उस शिला पर क़ब्ज़ा जमाकर एक ईसाई संत झेवियर के स्मारक की योजना घोषित कर दी गई। इस विवाद के पचड़े से बचने हेतु तमिलनाडु सरकार ने स्वामी विवेकानंद के स्मारक की योजना छोड़ दी। तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह एकनाथ जी रानडे को यह कार्य पूर्ण करने का दायित्व सौंपा। संघ के स्वयंसेवकों ने उस शिला पर ईसाइयों के क़ब्ज़े को हटाकर वहाँ स्वामी विवेकानंद स्मारक बनाने की योजना बनाई। इस स्मारक हेतु सामान्य लोगों से 1, 2 या 5 रुपये केवल प्रतीक रूप में लेने का संकल्प लिया। इसके बाद संपूर्ण भारत के 30,00,000 लोगों से 80,00,000 रुपए एकत्र किए गए। यही नहीं, उस समय की सभी राज्य सरकारों से (1963 में अधिकतर राज्यों में कांग्रेस शासित सरकारें थीं) प्रतीकात्मक आर्थिक सहायता करने का वचन लिया गया। आश्चर्य है कि केरल और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सभी राज्य सरकारों ने आर्थिक सहायता भी की। इस निमित्त प्रांत-भाषा-उपासना की विविधता से ऊपर उठकर हिन्दुत्व का जागरण सभी राज्यों के ग्राम-ग्राम में हुआ। आज सुदूर दक्षिण में सागर में स्थित स्वामी विवेकानंद शीला स्मारक संपूर्ण भारत के जन-जन की आस्था का आकर्षण केंद्र बना है। यह हिन्दू समाज ने ही किया है, यह बात निर्विवाद है। पर संघ था इसलिए यह संभव हुआ, यह भी सच है।
हिन्दू समाज में मोक्ष प्राप्ति के लिए अनेकविध आध्यात्मिक उपासना-आराधना-साधना की प्राचीन परंपरा चलती आई है। इसमें नए उपासना मार्ग जुड़ भी रहे हैं, और जुड़ते रहेंगे, यह हिन्दू चिंतन की विशेषता है। ऐसे साधु, संत, मठाधीश आदि सभी को एकत्र बैठाकर हिन्दू समाज की वर्तमान स्थिति और भविष्य की योजना पर विचार करने हेतु एक मंच की आवश्यकता अनुभूत हुई। इस हेतु तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी के प्रयास से 1964 में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना की गई। इसकी पहली बैठक में जैन, सिक्ख, बौद्ध सहित हिन्दू समाज के सभी प्रमुख अखाड़े, उपासना, परंपरा के प्रमुख संत उपस्थित हुए थे। विश्व हिन्दू परिषद का पहला धर्म सम्मेलन 1966 में तीर्थराज प्रयाग में संपन्न हुआ, जिसमें सैकड़ों वर्षों के बाद पहली बार चारों शंकराचार्य पीठ के शंकराचार्य और सभी प्रमुख मठाधीश और धर्माचार्य उपस्थित हुए। हिन्दू समाज की दुर्बलता के कारण ज़बरदस्ती से कन्वर्ट हुए अनेक हिन्दू अपनी मूल परंपरा में वापस आना चाहते थे। परंतु कन्वर्जन के बाद वे पतित (मलेच्छ) हो गए, ऐसा मानने की रूढ़ि चल पड़ी थी। हिन्दू समाज उनकी रक्षा करने के लिए सक्षम नहीं था। इसलिए उन्हें मजबूरी में कन्वर्ट होना पड़ा था। अब उन्हें वापस लेने की हमारी ज़िम्मेदारी है, उनका हम स्वागत करेंगे यह प्रस्ताव इस धर्म सम्मेलन में सर्वानुमति से पारित किया गया।
हिन्दू कभी पतित नहीं हो सकता।
‘न हिन्दू पतितो भवेत’ यह सूत्र घोषणा बन गई।
इसी तरह विश्व हिन्दू परिषद का दूसरा धर्माचार्य सम्मेलन कर्नाटक के उडुपी में 1969 में संपन्न हुआ। सभी हिन्दू एक ही ईश्वर की संतान हैं, सभी में एक ही ईश का अंश है, ऐसा मानने वाले हिन्दू समाज में दुर्दैव से जातिगत ऊँच-नीच का भाव, अस्पृश्यता जैसे दोष निर्माण हुए थे। इस सम्मेलन में सभी धर्माचार्यों द्वारा सर्वानुमति से यह प्रस्ताव पारित हुआ कि अस्पृश्यता जैसे ग़लत रूढ़ि को धर्म का आधार नहीं है। इस कार्य को संघ ने नहीं किया, परंतु संघ के कारण यह संभव हुआ, यह भी सत्य है।
सभी हिन्दू सहोदर हैं, भाई-भाई हैं।
‘हिन्दव: सोदरा सर्वे, न हिन्दू पतितो भवेत।।।’ यह नया सूत्र बना।
1981 में तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में अनुसूचित जाति के लोगों द्वारा इस्लाम में सामूहिक कन्वर्जन की घटना हुई। इसने सारे भारत के जनमानस को झकझोर डाला। विश्व हिन्दू परिषद के माध्यम से ऐसे कन्वर्जन रोकने की दृष्टि से विभिन्न योजनाएँ बनीं और कन्वर्जन से प्रभावित होने वाले अशिक्षित, शोषित, निरीह पिछड़े समाज को सामाजिक न्याय और सम्मान दिलाने के साथ-साथ उनमें जागरूकता लाने, उन्हें शिक्षित बनाने और उनमें सामाजिक चेतना जगाने की दृष्टि से सेवा प्रकल्पों की योजना बनी। इस उद्देश्य से ‘संस्कृति रक्षा निधि’ एकत्र करने के लिए संपूर्ण देश में 5500 गांवों में जनजागरण हुआ। इसी समय पहले की घोषणा में एक सूत्र और जुड़ गया –
हिन्दव: सोदरा सर्वे, न हिन्दू पतितो भवेत।।
हिन्दू रक्षा मम दीक्षा, मम मंत्र समानता।।
सुदूर तमिलनाडु के एक छोटे से गाँव में हुए इस सामूहिक कन्वर्जन की एक समान प्रतिक्रिया भारत में सभी राजनीतिक दलों के लोगों द्वारा हुई और सारे देश ने एक समान संवेदना का परिचय कराया, अनुभव कराया।
इससे प्रेरित होकर सारे देश में एकता और एकात्मता का भाव जागरण अनुभव कराने की दृष्टि से विश्व हिन्दू परिषद द्वारा भारत माता की प्रतिमा और गंगा जल का कलश लेकर संपूर्ण भारत को जोड़ने वाली तीन प्रमुख यात्राएँ निकालने की योजना बनीं। एकात्मता यज्ञ यात्रा के नाम से काठमांडू से रामेश्वरम (पशुपति रथ), हरिद्वार से कन्याकुमारी (महादेव रथ) और गंगासागर से सोमनाथ (कपिल रथ)। इन तीन मुख्य यात्राओं के साथ 300 से अधिक उप-यात्राएं हुईं, जिन्होंने 1000 दिन में सारे भारत के अधिकाधिक स्थानों को आपस में जोड़ा। इन यात्राओं में लोग अपने-अपने स्थान से पवित्र जल के कलश लेकर शामिल हुए थे। कुल 38,526 स्थानों से 77,440 कलश पूजन के लिए आए। इसमें भारत के कुल 5,64,342 स्थानों (बस्ती सहित) में से 1,84,592 स्थानों के 7,28,05,520 लोगों का सहभाग था, जिनमें 49 प्रतिशत महिलाएँ थीं। लोगों ने अनुभव किया कि जाति, प्रांत, भाषा, उपासना आदि की विविधता से ऊपर उठकर समूचे हिन्दू समाज में एकता का भाव जागृत हो रहा है।
इसी दौरान उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास मुजफ्फरनगर में आयोजित एक धर्मसभा में तत्कालीन उत्तर प्रदेश शासन में मंत्री दाऊदयाल खन्ना ने ध्यान दिलाया कि अयोध्या स्थित श्री रामलला के मंदिर पर ताला लगा है और पुजारी के सिवाय अन्य किसी रामभक्त को दर्शन हेतु अंदर जाने की अनुमति नहीं है।
भारत के ‘स्व’ का आधार भारत का अध्यात्म है, जिसके एक प्रतीक श्रीराम हैं। कोरोना की भीषण, जानलेवा, संक्रामक बीमारी दुनिया के अनेक देशों में थी। केवल भारत में ही इस बीमारी के समय सरकारी तंत्र के साथ संघ के 5.5 लाख स्वयंसेवक और समाज का बहुत बड़ा वर्ग लोगों की सहायता करने के लिए सक्रिय था। यह भारत के सामान्य समाज की आध्यात्मिक अभिव्यक्ति ही थी, जो इस संक्रामक संकट काल में प्रकट हुई। भारत के ‘स्व’ का दूसरा आधार समाज (राष्ट्र) की अधिकतर व्यवस्थाएँ राज्यधारित न रहकर समाजाधारित अपनी व्यवस्था रहना, यह है। इसका अनुभव इस कोरोना काल में हुआ।
मुग़ल आक्रामक बाबर ने आक्रामण की धौंस दिखाने के लिए ही श्रीरामलला का मंदिर तोड़कर उसी स्थान पर मस्जिद बनाने का अपराध किया था। वैसे इस्लाम के विद्वान यह कहते हैं कि ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा किए ज़मीन या भवन में की गई नमाज़ अल्लाह क़बूल नहीं करता है। फिर भी यह गैर-इस्लामिक कृत्य हिन्दू समाज को अपमानित करने के लिए ही किया गया। इसके बाद वहाँ फिर से मंदिर की स्थापना के लिए लगातार सतत संघर्ष चलता रहा। ब्रिटिश शासन में 1938 में न्यायालय के आदेश से इस विवादित स्थान के 100 मीटर के भीतर मुस्लिम समाज के आने पर प्रतिबंध लगाया गया। 1949 में वहाँ रामलला प्रकट हुए। तब से मंदिर पर ताला लगा दिया गया और रामलला की नियमित पूजा होती रही। केवल पुजारी को ताला खोलकर पूजा के लिए मंदिर में जाने की अनुमति थी।
इसलिए विश्व हिन्दू परिषद ने रामलला के मंदिर का ताला खुलवाने के लिए जन जागृति के कार्यक्रम किए। फरवरी, 1986 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश से मंदिर का ताला खुल गया और रामभक्तों के लिए मंदिर के अंदर दर्शन के लिए जाना सुलभ हुआ। इस विजय से हिन्दू समाज का मनोबल बढ़ा और आक्रमण के प्रतीक विवादित ढाँचे के स्थान पर श्री रामलला का भव्य मंदिर बनाने की योजना बनी। इस हेतु जनजागरण करने के लिए देशभर के स्थान-स्थान से रामशिला पूजन के कार्यक्रम आयोजित हुए और समारोहपूर्वक ये रामशिलाएँ अयोध्या आने लगीं। सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के समान ही अयोध्या में श्री रामलला का भव्य मंदिर बनाना, यह इस्लाम या मस्जिद का विरोध नहीं, बल्कि भारत के गौरव की पुनर्स्थापना का कार्य है।
इस कारण संपूर्ण भारत में एक अभूतपूर्व जनजागरण हुआ। गाँवों से ‘श्रीराम’ नाम लिखी हुई ईंट, श्री रामशिला का पूजन कर उसे राम मंदिर के निर्माण हेतु अयोध्या भेजने की योजना बनी। एक व्यापक जनसंपर्क और जनजागरण संपूर्ण भारत में हुआ। 2,75,000 ग्रामों में 6 करोड़ लोगों ने रामशिला का पूजन किया। सारा देश राममय होता दिख रहा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संगठनात्मक शक्ति या नेटवर्क से यह कई गुना अधिक था। इसलिए यह संघ ने किया, ऐसा कहना धृष्टता होगी। यह सारा भारत की जनता ने, राम के भक्तों ने किया। इसमें संघ साथ था। संघ नहीं होता तो यह इतना व्यापक, सुचारु जनसंपर्क और जनजागरण शायद नहीं होता। जैसे किसी भवन को खड़ा करते समय उसका सारा लोड (भार) वहन करने के लिए मज़बूत पिलर्स का आधार रहता है। इस पिलर को खड़ा होने में एक लोहे की सरिया का ‘पंजर सहायक होता है। इस ‘पंजर की भवन का भार वहन करने की क्षमता नहीं होती है। परंतु उस RCC के पिलर में यह भार वहन करने की क्षमता इस लोहे के पंजर से आती है, जो बाहर से दिखता नहीं है। संघ संपूर्ण समाज का संगठन कर ऐसी रचना समाज में निर्माण करना चाहता है कि समाज के हित में चलने वाले प्रत्येक कार्य में यह ‘पंजर शक्ति प्रदान करे। कार्य तो जागृत समाज ही करेगा।
इस सारी जागृति की परिणति 6 दिसंबर, 1992 की कारसेवा में हुई। न्यायालय में सारी प्रक्रिया पूर्ण होने बाद भी न्याय मिलने में, निर्णय आने में अकारण अनावश्यक विलंब होता देख कारसेवा के लिए आए 2,50,000 से अधिक कारसेवक बेक़ाबू हुए। केवल 5 घंटे में इतने मजबूत ढांचे का जमींदोज होना, ढह जाना अकल्पनीय, असंभव बात थी। परंतु यह सारा जमावड़ा बेक़ाबू होने के बाद भी उनका अपने आप पर क़ाबू था। There was an order in the disorder। इसलिए उस सारे घमासान में रामलला की मूर्ति को सुरक्षित हटाना और फिर से एक अस्थाई शेड बनाकर उसमें उसकी प्राण प्रतिष्ठा होना संभव बना।
इसके साथ ही 55,000 की आबादी की अयोध्या में 10 प्रतिशत मुस्लिम समाज रहता है। वहां क़रीब 15 मस्जिदें हैं। उन मस्जिदों में से किसी एक पर भी इन लाखों कारसेवकों द्वारा एक भी पत्थर नहीं उछाला गया। न ही किसी मुस्लिम के साथ कोई ग़लत व्यवहार हुआ। वामपंथियों के (कम संख्या में भी) आंदोलनों में उनका हिंसक होना, आसपास के निरीह लोगों के मकान, दुकान, वाहन आदि की तोड़फोड़ करना, उन्हें जलाना यह आम अनुभव है। परंतु यहाँ क़रीब 2,50,000 कारसेवक, पूरे भारत से आए थे। परंतु इस असंयमित स्थिति में भी उनके द्वारा यह संयम रखना आश्चर्यजनक है। क्योंकि यह जागरण अभियान, मस्जिद के विरुद्ध या मुस्लिम समाज के विरुद्ध नहीं था, यह एक बात थी। और पिलर्स का ‘पंजर’ संघ का था, जिसके कारण उस भीड़ में शक्ति भी थी और संयम भी।
जीवन के सभी क्षेत्र जैसे छात्र, किसान, मज़दूर, वैज्ञानिक, कलाकार, अधिवक्ता आदि की भारत के ‘स्व’ के प्रकाश में पुनर्रचना और विकास हो ऐसा सोचने वाले, करने वाले लोग तैयार करना यह मूलभूत कार्य, व्यक्ति निर्माण का कार्य संघ करेगा। संघ इसके सिवा और कुछ नहीं करेगा। ऐसे राष्ट्रीय विचार से जाग्रत व्यक्ति समाज की सहायता और समर्थन से नई रचना व्यवस्थाएँ खड़ी करेंगे, यह कल्पना है। राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने के लिए संघ प्रतिबद्ध है और स्वयंसेवक कटिबद्ध हैं। इसलिए भारतीय मूल्यों पर आधारित शिक्षा के सफल प्रयोग 12,000 विद्यालयों और 84,000 एकल विद्यालयों के माध्यम से समाज में चल रहे हैं। अपने सामूहिक प्रयास से, सरकार पर आधारित न रहकर 2,000 ग्रामों में विकास और 8,000 नगरीय बस्तियों में बस्ती विकास की पहल समाज कर रहा है। सामाजिक विषमता के व्यवहार को समाप्त कर समरस, एकात्म समाज निर्मिति के प्रयास संपूर्ण भारत में चल रहे हैं। नौकरी माँगने के स्थान पर स्वावलंबन हेतु स्वयं रोज़गार की दृष्टि से प्रेरणा, प्रशिक्षण और सहायता करने जैसे अनेक कार्य समाज सक्रियतापूर्वक कर रहा है। ऐसे समाज को खड़ा करते हुए इन सभी कार्यों में उनके साथ स्वयंसेवक सक्रिय हैं।
भारत के ‘स्व’ का आधार भारत का अध्यात्म है, जिसके एक प्रतीक श्रीराम हैं। कोरोना की भीषण, जानलेवा, संक्रामक बीमारी दुनिया के अनेक देशों में थी। केवल भारत में ही इस बीमारी के समय सरकारी तंत्र के साथ संघ के 5।5 लाख स्वयंसेवक और समाज का बहुत बड़ा वर्ग लोगों की सहायता करने के लिए सक्रिय था। यह भारत के सामान्य समाज की आध्यात्मिक अभिव्यक्ति ही थी, जो इस संक्रामक संकट काल में प्रकट हुई। भारत के ‘स्व’ का दूसरा आधार समाज (राष्ट्र) की अधिकतर व्यवस्थाएँ राज्य आधारित न रहकर समाज की समाजाधारित अपनी व्यवस्था रहना, यह है। इसका अनुभव इस कोरोना काल में हुआ।
एक संघ गीत में कहा है –
केवल सत्ता से मत करना परिवर्तन की आस।
जाग्रत जनता के केंद्रों से होगा अमर समाज ।।
संघ जनता के जागरण के ऐसे केंद्र (शाखा) चलाता है। ऐसे जाग्रत स्वयंसेवक समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में एक रचना (पंजर) खड़ी करेंगे। बाक़ी सारा कार्य समाज करेगा, उसे शक्ति और दिशा देने का कार्य ऐसे केंद्र करेंगे। आरसीसी के पिलर के बीच का भार वहन क्षमता बढ़ाने वाला ‘पंजर तो निर्जीव लोहे का होता है, परंतु जाग्रत समाज के ऐसे कार्य और आंदोलन में यह न दिखने वाला, परंतु सन्नद्ध ‘पंजर जीवंत मनुष्यों का होता है जो जीवन भर अविचल खड़ा, अड़ा और गड़ा रहता है। इसके लिए आवश्यक ऐसे आत्मविलोपी, निष्ठावान, समर्पित और प्रतिबद्ध कार्यकर्ता संघ तैयार करता है, करता आ रहा है। Rome was not built in a day, ऐसा कहते हैं। उसी तरह यह राष्ट्रीय चेतना का जागरण एक दिन में नहीं, लगातार सातत्य से चलते प्रयास और समाज के सतत बढ़ते समर्थन के कारण ही यह संभव हुआ है।
2014 में लोकसभा चुनाव के परिणाम 16 मई को आए थे। ब्रिटेन से प्रकाशित दैनिक ‘द गार्डियन (18 मई, 2014 ) के संपादकीय की शुरुआत ऐसी है – “Today, May, २०१४ may well go down in history as the day when Britain finally left India”।
इसी में ‘द गार्डियन आगे लिखता है – “It should be obvious that underlying changes in Indian society have brought us Mr। Modi and not the other way around”।
यह राष्ट्रीय जागरण चल पड़ा है, चलता रहेगा।
श्रीराम जी की भक्ति के कारण यह आसान हुआ।
यह करना पड़ेगा, करते रहना पड़ेगा।
चलना पड़ेगा, चलते रहना पड़ेगा।
चरैवेति, चरैवेति।
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