‘सब के राम’ – इन शब्दों का अर्थ अपनी-अपनी भावना के अनुसार अलग-अलग समझा जा सकता है, पर सभी का सार यही है कि राम सब के हैं। श्रीराम इस सनातन भारत भूमि के पूज्य तो हैं ही, श्रीराम सम्पूर्ण विश्व के हैं, इस पावन वसुंधरा के हर प्राणी के हैं राम। सत्य ये भी है कि इस विश्व की हर समस्या का समाधान भी हैं श्रीराम। इस दृढ़ विश्वास के विस्तार में जाना हो तो आइए श्री रामचरितमानस के कथासागर में उतरें और इस भावना को जीवंत रुप में अनुभव करे।
दुनिया की जटिल से जटिल समस्याओं के मूल में यदि गहराई से झांकेंगे, तो नस्लभेद, रंगभेद व वर्णभेद उन बड़े कारकों में जुड़ते हैं, जिनके कारण भी विश्व संघर्षरत दिखता है। तब श्री रामायण और श्रीराम का पूरा जीवन चरित्र विश्व में सर्वव्यापी इस समस्या का समाधान भी है और उत्तर भी। त्रेता युग में इस धरती पर अवतार लेने से लेकर मां सरयू की गोद में अंतिम प्रवास तक श्रीराम ने अपने पूरे कालखंड में इस सम्पूर्ण समाज को एक सूत्र में पिरोने का काम किया, इसी की आवश्यकता आज ना सिर्फ सनातन समाज को बल्कि पूरे जगत को है।
गुरुकुल के सखा निषादराज
श्री रामायण कथासागर में से कुछेक कथाओं को ही गहराई से समझेंगे तो जान पाएंगे कि श्रीराम ने सबको गले लगाया। राजमहल में अपने सहयोगियों से लेकर वनवासियों, ग्रामीण अंचल के हर वर्ग को उन्होंने सदा सम्मान दिया, अपने संग स्थान दिया। कभी किसी के सखा बने तो कभी किसी के प्रभू, या कभी किसी को ‘तात’ कहकर श्रीराम ने सभी से आत्मीयता को जो सम्बंध बनाया, वो सदा अटूट रहा। उदाहरण स्वरूप बाल्यकाल से आगे बढ़कर श्रीराम जब महर्षि वशिष्ठ के गुरुकुल में दीक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब गुरुकुल के बाकी शिक्षार्थियों मे उनके आत्मीय सखाओं में गुह भी थे, जो बाद में निषादराज हुए। निषादों के राजा गुह का स्थान आज भी प्रयागराज के पास पावन गंगा के तट पर देखा जा सकता है, जिसका नाम है श्रृंगवेरपुर।
श्रृंगवेरपुर धाम के श्रीराम
वनवास आरंभ होते ही तमसा नदी पार करने के बाद श्रीराम के वनगमन का पहला पड़ाव श्रंगवेरपुर ही था। वनवास के नियमों के अनुसार उन्हें किसी नगर या ग्राम में जाना नहीं था, इसीलिए निषादराज गुह को जैसे ही समाचार मिला तो वो तुरंत अपने सखा राम से मिलने व प्रभू श्रीराम के दर्शन करने साथियों सहित गंगा किनारे चले आए, जहां श्रीराम, माता जानकी व भ्राता लक्ष्मण को विश्राम करना था। निषादराज अपने साथ फल व कंदमूल इत्यादि भी लाए, जो वनवासी या आदिवासी समाज का मूल आहार होता ही है। श्री रामचरितमानस के अयोध्याकांड में निषादराज गुह के बारे में कहा गया –
“यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई।।
लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हिँयँ हरषु अपारा।।”
यानी निषादराज गुह को जब यह सूचना मिली तो श्रीराम से भेंट करने के आनंद में उन्होंने अपने परिजनों को बुलाया और अपार हर्ष के साथ फल, कंद – मूल भरों में भरकर प्रभू से मिलने चले। निषादराज के इस प्रेम को देखकर प्रभू भी आनंदित होते हैं। अयोध्याकांड में दोनों सखाओं के बीच के उस समय के संवाद की भी चर्चा है। लिखा है-
“करि दंडवत भेंट धरि आगें। प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागें।।
सहज सनेह बिबस रघुराई। पूँछी कुसल निकट बैठाई।।”
निषादराज प्रभू के आगे भेंट समर्पित करते हैं तो प्रभू स्नेहवश उन्हें साथ बैठाते हैं व कुशल क्षेम पूछते हैं, यहां निषादराज गुह के लिए श्रीराम का संबोधन सखा है। निषादराज अपने सखा को अपने स्थान श्रृंगवेरपुर ले चलना चाहते हैं पर प्रभू वनवास की मर्यादा बताते हुए प्रेमपूर्वक असमर्थता जताते हैं।
निषादराज की व्यवस्था के श्रीराम
प्रभू के विश्राम के लिए निषादराज एक पेड़ के नीचे कुश और कोमल पत्तों से व्यवस्था सजाते हैं और फिर प्रभू आराम से उस शैया पर विश्राम करते हैं। इसी समय निषादराज भ्राता लक्ष्मण से अपना दुख छिपाते नहीं, कहते हैं- महल में तो सुंदर पलंग पर भगवान विश्राम करते होंगे, यहां ऐेसे सोना पड़ रहा है।
यानी निषादराज को श्रीराम अपने साथ बैठाते हैं, उन का लाया कंदमूल व फल श्रीराम स्वीकार करते हैं व उनकी बनाई व्यवस्था पर विश्राम भी करते हैं। निषादराज और श्रीराम के इस सम्बन्ध को एक ही दृ्ष्टि से देखा जा सकता है। श्रीराम के लिए निषादराज इस समय सिर्फ सखा हैं, परिजन की तरह हैं, तब श्रीराम के लिए सेवा और प्रेम ही सर्वोच्च गुण हो सकते हैं, नस्ल-रंग-वर्ण का वहां कोई अर्थ ही नहीं था, ना ही रामराज्य में कभी इनका कोई स्थान रहा। वैसे निषाद समाज की चर्चा सामान्य दिनों में चुनावों के आसपास भिन्न कारणों से होती है, मगर सेवाभावी निषादराज तो त्रेता युग से रामायण का हिस्सा ही हैं, जो श्रीराम के अभिन्न सखा हैं, तो फिर श्रीराम का अनुसरण करने वालों के मन-मस्तिष्क में निषादों का स्थान सदा सखा का ही रहता होगा, ऐसा मानना चाहिए।
केवट की हठ के श्रीराम
श्रीराम के इसी वनगमन में निषादराज के तुरंत बाद एक और चरित्र आते हैं केवट। भोईवंश से संबंध रखने वाले केवट कार्य से मल्लाह हैं और नैया खेने का काम करते हैं। केवट प्रभू श्रीराम की अवज्ञा भी करते हैं तो भी राम मुस्काते हैं। केवट मनमानी करने पर अटल हैं, तो प्रभू उन्हें वो भी करने देते हैं और अंत में उन्हें बहुत बड़ा आशीर्वाद भी दे जाते हैं। इसका कारण था – केवट का भक्ति भाव, जो अत्यंत पावन व शुद्ध रूप में बड़ी प्रेरणा का आधार भी कहा जा सकता है।
प्रभू श्रीराम को जब गंगा के पार जाना था तो सीता मैया व लक्ष्मण भैया के साथ तट से उन्होंने केवट को आवाज़ लगाई- भाई, नैया यहां लाओ, हमें गंगा पार जाना है। केवट ने तुरंत आज्ञा का पालन नहीं किया। बल्कि सहज भाव में केवट बोले- “मैने आपका भेद जान लिया, सब कहते हैं, आपके चरणों की रज मनुष्य बना देने वाली जड़ी-बूटी है, जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदर स्त्री बन गई। मेरी नैया तो काठ की है।”
श्री रामचरितमानस के अयोध्याकांड में इसी प्रसंग पर लिखा गया-
“मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुं सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥”
केवट उसी सरलता से आगे कहते हैं-
“हे नाथ! मैं चरण कमल धोकर आपको नाव पर चढ़ा लूंगा, मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथ जी की सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूं। लक्ष्मण जी भले ही मुझे तीर मारें, पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूंगा, तब तक हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारुंगा।”
तीनों लोकों के पालनहार की नैया पार लगाते केवट
केवट मन में सोच रहे हैं कि भगवान की सेवा ही परमधाम है, पर पता नहीं प्रभू क्या समझ बैठें। तो भी केवट सेवा का ये अवसर गंवाना नहीं चाहते, इसीलिए काठ की नैया की बात कहकर प्रभू के चरणों तक पहुंचने का रास्ता खोजा। केवट के इन वचनों पर सर्वज्ञानी प्रभू श्रीराम जानकीजी व लक्ष्मणजी की ओर देखकर मुस्काए। तब केवट से बोले- “भाई, वही कर जिससे तेरी नाव ना जाए, जल्दी जल लाओ और चरण धो लो।” केवट ने प्रभू की पहली आज्ञा तो नहीं मानी, फिर अपनी हठ मनवाई और अनुमति हो गई तो प्रफुल्लित मन से कठौते में भरकर जल लाए। अत्यन्त आनंद-प्रेम में भरे केवट तब भगवान के चरणकमल धोने लगे। केवट, एक मल्लाह, तीनों लोकों के पालनहार की नैया पार लगा रहे थे, यही तो केवट के जीवन का परमानंद है।
गंगा पार हुई तो तट पर उतरते ही केवट प्रभू के समक्ष दण्डवत हो गए। श्रीराम को भी संकोच हुआ तो जानकी जी ने तुरंत हाथ से अंगूठी उतारकर आगे कर दी। प्रभू केवट से बोले- “नाव की उतराई लो।” तब व्याकुल हुए केवट ने चरण पकड़ लिए और बोले- “हे नाथ, आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई। विधाता ने आज बहुत अच्छा भरपूर पारिश्रमिक दे दिया। हे दीनदयाल, आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए।” तब भगवान श्रीराम ने केवट को निर्मल भक्ति का वरदान देकर विदा किया।
श्रम का सम्मान श्रीराम
इस अद्भुत घटना और संवाद का विश्लेषण करते हैं तो केवट जो एक मल्लाह है, वो अयोध्या के राजा का सान्निध्य और सेवा चाहता है और श्रीराम उसे वो सब देते हैं, जो वो चाहता है, श्रीराम उसके श्रम का पूरा सम्मान करते हैं, पूरा जीवन श्रम करके केवट जो नहीं पा सके, वो उस एक दिन की सेवा में मिलता है। यहां भी श्रीराम ने सामाजिक स्थिति की बजाय उसके भक्ति भाव, सेवा भाव, श्रद्धा भाव को प्राथमिकता दी। श्रीराम ने उनके हठ को माना तो समाज में उनके स्थान को और व्यापकता व प्रतिष्ठा दी। यही श्रीराम का चरित्र था, यही रामराज्य की अवधारणाओं में भी शाश्वत था और है।
आज केवट समाज या मल्लाहों सहित समाज के किसी भी वर्ग को लेकर यदि कोई भेदभाव की चर्चा करता है तो उन्हें श्री रामायण का बारम्बार अध्ययन करना चाहिए।
हाल के वर्षों में हमने श्रमिकों के सम्मान की तस्वीरें कई बार देखीं। अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर बन रहे भव्य मंदिर के श्रमिक हों या देश में लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर यानी नई संसद के श्रमिक, हर सुबह हमारी गलियों-मोहल्लों में स्वच्छता का ध्वज लेकर चलने वाला समाज का एक बड़ा वर्ग हो, श्रीराम के लिए इनकी सामाजिक स्थिति नहीं, बल्कि भक्ति, सेवा, समर्पण व प्रेम का गुण ही प्रिय था। इसीलिए राम मेरे हैं-आपके हैं-राष्ट्र के और विश्व के भी। राम सर्वत्र हैं, सर्वप्रिय हैं, सार्वभौमिक हैं। राम सब के हैं।
लेखक राज चावला, वरिष्ठ पत्रकार व समीक्षक
(पत्रकारिता में 25 वर्ष से अधिक। ज़ी न्यूज़, आजतक, राज्य सभा टीवी, न्यूज़ वर्ल्ड इंडिया जैसे चैनलों से सम्बंधित रहे। सलाहकार के रुप में कई संस्थाओं से जुड़े। वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकार, वृत्तचित्र निर्माता व समीक्षक)
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