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अदालतों को न बनाएं मंच

अनुच्छेद 370 को हटाने के संसद के फैसले को खारिज करने से सुप्रीम कोर्ट ने इनकार कर दिया है। संसद ने यह संविधान संशोधन साढ़े चार वर्ष पूर्व पारित किया था। उसके बाद भले ही विधिक तौर पर स्थगन जैसी कोई स्थिति नहीं थी

by हितेश शंकर
Dec 19, 2023, 09:54 am IST
in भारत, सम्पादकीय
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जिन पर सर्वोच्च न्यायालय ने विस्तार से विचार किया है। कोई भी व्यक्ति या दल न्यायालय के पास गया, और अधिकांश मामलों में न्यायालय ने लगभग पलक झपकते ही न केवल यह स्वीकार कर लिया कि इसमें कोई संभावित अन्याय, कोई संभावित अवैधानिकता निहित हो सकती है, बल्कि उस पर विचार करने, बहस-सुनवाई आदि में समय और ऊर्जा भी खर्च की।

संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने के संसद के फैसले को खारिज करने से सुप्रीम कोर्ट ने इनकार कर दिया है। संसद ने यह संविधान संशोधन साढ़े चार वर्ष पूर्व पारित किया था। उसके बाद भले ही विधिक तौर पर स्थगन जैसी कोई स्थिति नहीं थी, लेकिन राजनीतिक, कूटनीतिक और मीडिया के स्तर पर एक भ्रम पैदा करने की कोशिश जरूर बनी हुई थी, क्योंकि मामला ‘विचाराधीन’ था। अब तक ऐसी कम से कम दो दर्जन घटनाएं घट चुकी हैं, जो सरकार के निर्णय से, संसद के और अन्य संस्थाओं के फैसलों से संबंधित थीं और जिन पर सर्वोच्च न्यायालय ने विस्तार से विचार किया है। कोई भी व्यक्ति या दल न्यायालय के पास गया, और अधिकांश मामलों में न्यायालय ने लगभग पलक झपकते ही न केवल यह स्वीकार कर लिया कि इसमें कोई संभावित अन्याय, कोई संभावित अवैधानिकता निहित हो सकती है, बल्कि उस पर विचार करने, बहस-सुनवाई आदि में समय और ऊर्जा भी खर्च की।

जहां प्रथम दृष्टि में भी ऐसा कोई प्रकरण न हो, वहां सिर्फ कुछ लोगों को अथवा उनके अहंकार को तुष्ट करने के लिए अदालतों ने स्वयं को जिस तरह एक मंच की भांति प्रयोग करने की भूमिका दे दी है, वह निश्चित रूप से गंभीर है। विडंबना ही है कि प्रवर्तन निदेशालय या सीबीआई के छापे क्यों पड़ रहे हैं, इसकी शिकायत करते हुए कोई व्यक्ति या दल या दलों का समूह अदालत पहुंच जाता है और अदालत यह कहने के बजाए कि अगर ये छापे गलत हैं, तो भी मामला तो अंतत: अदालत में ही आएगा, उनकी कल्पित पीड़ा को लेकर किसी परिचारिका जैसी भंगिमा अपना लेती है। हम सब जानते हैं कि यह कथित कल्पित पीड़ा किन लोगों की है और उससे भी बढ़कर यह भी स्पष्ट है कि क्या यह पीड़ा वास्तविक है?

अब तक देश की जनता द्वारा चुनी गई सरकार के लगभग हर बड़े निर्णय को अदालत में चुनौती दी गई है, और इस उम्मीद से दी गई है कि अदालत तो इसे रोक ही देगी। इन निर्णयों में देश के उपराष्ट्रपति के खिलाफ दायर किया गया मामला भी है, और राफेल युद्धक विमान खरीदने का भी मामला है। सेबी के खिलाफ भी मामला है और ईडी के खिलाफ भी। जीएसटी, सीएए, सीबीआई, ईवीएम, पीएमएलए, यूएपीए, आधार, पेगॉसस, राम मंदिर, अनुच्छेद 370, चुनाव आयोग, ईवीएम, तीन तलाक, गुजरात दंगे, सेंट्रल विस्टा, पीएम केयर्स फंड, नोटबंदी- समझ सकना कठिन है कि आखिर ऐसा कौन सा बड़ा निर्णय रह गया, जिस पर कांग्रेस और कुछ खास वकील सीधे सुप्रीम कोर्ट न दौड़े हों।

जब कोई वकील या पक्षकार फैसला आने के पहले ही यह कहता है कि कुछ मुकदमे हारने के लिए ही लड़े जाते हैं, तो वह सिर्फ इस बात का संकेत नहीं दे रहा होता कि वह झूठी लड़ाई लड़ रहा था और देश का समय खराब कर रहा था, बल्कि वह इस बात का भी संकेत देता है कि फैसला तो वही सुना रहा है। आखिर कैसे?

जब सरकार के प्रत्येक निर्णय को अदालत के हस्तक्षेप के लिए स्वीकार कर लिया जाता है, तो प्रकारांतर से इस धारणा को भी बल मिलता है कि चुनी हुई सरकार को निर्णय लेने का या तो कोई अधिकार ही नहीं है और अथवा उसका लिया गया निर्णय अंतिम नहीं है। क्या न्यायपालिका इस षड़यंत्र से अनभिज्ञ है? वास्तव में इन राजनीतिक दलों की कमजोरी यह है कि उन्हें किसी फैसले की आलोचना करने के लिए किसी और के कंधों की जरूरत महसूस होती है। अगर नैतिक बल हो, तो स्वयं आलोचना और बहस करनी चाहिए। बहस के लिए लोकतंत्र में मंच है, लेकिन वहां बहस नहीं की जाती और इसके विपरीत मामले को उस अदालत में ले जाया जाता है जिससे राजनीतिक बहस का हिस्सा होने की अपेक्षा नहीं की जाती।

भले ही इरादा सिर्फ निर्वाचित सत्ता की अवहेलना करना हो, लेकिन स्वयं को उससे ऊपर समझना एक ऐसा मनोरोग है, जो अंतत: उन संस्थानों को भी स्वीकार नहीं कर सकता, जिन्हें आज वह अपना उपकरण बना रहा है। वह दिन दूर नहीं, जब अदालत के फैसलों की भी इसी प्रकार हेठी की जाएगी। फिर यह सारी प्रक्रिया तंत्र के भीतर एक तंत्र और सत्ता के ऊपर एक सत्ता जैसी अवधारणाओं को न केवल जन्म दे रही है, बल्कि उन्हें लगातार पुष्ट कर रही है।

जब कोई वकील या पक्षकार फैसला आने के पहले ही यह कहता है कि कुछ मुकदमे हारने के लिए ही लड़े जाते हैं, तो वह सिर्फ इस बात का संकेत नहीं दे रहा होता कि वह झूठी लड़ाई लड़ रहा था और देश का समय खराब कर रहा था, बल्कि वह इस बात का भी संकेत देता है कि फैसला तो वही सुना रहा है। आखिर कैसे? अदालतों को इस अराजकता का उपकरण बनने से स्वयं को रोकना होगा। सरपंच बनना सबको भाता है, लेकिन याद रखिये, अकारण बार-बार पंचायती का पेंच फंसाने वाले प्रपंची-पैरोकार अपनी और पंचायत की साख ही गिराते हैं।

@hiteshshankar

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