अफगानिस्तान से एक ऐसा समाचार आया है, जिसे लेकर यह तय करना मुश्किल है कि उस पर विश्वास किया जाए या न किया जाए। समाचार यह है कि अब तालिबान के एक बड़े मंत्री ने बड़ा ‘दुख जताया है’ कि उनके यहां लड़कियों की पढ़ाई पर प्रतिबंध है, जिसकी वजह से कोई उनके नजदीक नहीं आना चाहता है।
तालिबान के जिस मंत्री का यह ‘दर्द’ छलका है, वह है वहां का उप विदेश मंत्री शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकजई। शेर मोहम्मद का कहना है कि लड़कियों को यहां पढ़ने नहीं दिया जा रहा है इसके कारण लोग उनसे दूरी बनाकर चल रहे हैं।
सवाल है कि कट्टर इस्लामी कायदों वाले शरिया के तहत सरकार चलाने वाले तालिबान ने उसी इस्लामी कानून के तहत, गद्दी पर बैठने के फौरन बाद से लड़कियों को स्कूल—कॉलेजों से दूर रखा है, महिलाओं को अपमानित जीवन जीने को मजबूर कर दिया है, उनकी हर तरह की आजादी छीन ली है, उनके अधिकारों को कुचल कर रख दिया है। यहां तक की उनके सरकारी या प्राइवेट, कैसे भी दफ्तरों में काम करने पर पाबंदी लगा रखी है, उनके खुलकर घूमने, साज—सज्जा कराने आदि पर रोक लगा दी है। क्या अब वही तालिबान शरिया पर चलने को लेकर ‘दुखी’ है? या फिर यह एक और पैंतरा है विदेशी समुदाय को यह दिखाने का, कि उनके अंदर भी ‘संवेदनाएं’ हैं?
शेर मोहम्मद को तालिबान हुकूमत की यह ‘गलती’ महसूस क्यों और कैसे हुई? महिलाओं पर ढेरों रोक लगाने वाली इस्लामी लड़ाकों की हुकूमत को क्या यह ‘भान’ जल्दी ही नहीं हो गया कि अफगानिस्तान में महिला शिक्षा पर पाबंदी लगाए रखना एक बड़ी वजह है जिसकी वजह से लोग उनसे छिटके हुए हैं।
कोई तालिबानी मंत्री से पूछता कि वह जो बोल रहा है क्या उसके मायने ये हैं कि उसकी ‘सरकार’ शरिया पर न चलने को तैयार है? या फिर वह सिर्फ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने तालिबान की सूरत ‘निखरी’ दिखाने की कोशिश कर रहा है? लेकिन तालिबान राज में पाषाण युग में पहुंचा दिए गए अफगानिस्तान में बंदूकधारी तालिबान के सामने मुंह खोलने की हिम्मत कौन कर सकता है भला! तालीम और तालिबान के बीच उतना ही फासला है जितना कट्टर और सभ्य सोच में है। तालिबान की सोच कट्टर है और वैसी ही रहेगी, यह इस्लामी उन्मादियों ने गद्दी पर बैठते ही सबको जतला दिया था।
अफगानी समाचार चैनल टोलो न्यूज की एक खबर है कि वह उप विदेश मंत्री एक समारोह में गया था। वहां उसने भाषण देते हुए कहा कि लड़कियों को छठी कक्षा से आगे की पढ़ाई फिर से शुरू कराने की पहल करनी होगी। उसने यह भी कहा कि ‘तालीम न हो तो समाज अंधेरे में रहता है’। टोलो की रिपोर्ट आगे बताती है कि जिस कार्यक्रम में तालिबान का मंत्री यह बोल रहा था वह दरअसल वहां के जनजातीय मामलों के विभाग का था जिसमें वे छात्र मौजूद थे, जो इस मंत्रालय के चल रहे कॉलेजों से स्नातक हुए थे।
तालीम के लिए इतने ‘चिंतित’ मंत्री ने अपनी तकरीर में आगे कहा कि तालीम पाने का तो हर एक को हक है। यह हक ‘पैगंबर’ का दिया हुआ है, इसे कोई लड़कियों से कैसे छीन सकता है! और अगर यह हक छीना जाता है तो ऐसा करना ‘अफगानी जनता पर जुर्म करने जैसा ही है’! इसी रौ में मंत्री ने कह दिया कि स्कूल—कॉलेज सभी के लिए खुलने चाहिए, इसकी कोशिश होनी चाहिए। उसने कहा कि ‘पड़ोसियों तथा दुनिया के अन्य देशों के साथ संबंधों में तनाव की वजह का एक ही कारण है और वह है लड़कियों की तालीम पर रोक लगना। इस वजह से हमसे लोग छिटक रहे हैं, हमारी वजह से परेशान हैं’।
कोई तालिबानी मंत्री से पूछता कि वह जो बोल रहा है क्या उसके मायने ये हैं कि उसकी ‘सरकार’ शरिया पर न चलने को तैयार है? या फिर वह सिर्फ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने तालिबान की सूरत ‘निखरी’ दिखाने की कोशिश कर रहा है? लेकिन तालिबान राज में पाषाण युग में पहुंचा दिए गए अफगानिस्तान में बंदूकधारी तालिबान के सामने मुंह खोलने की हिम्मत कौन कर सकता है भला! तालीम और तालिबान के बीच उतना ही फासला है जितना कट्टर और सभ्य सोच में है। तालिबान की सोच कट्टर है और वैसी ही रहेगी, यह इस्लामी उन्मादियों ने गद्दी पर बैठते ही सबको जतला दिया था।
यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि अफगानिस्तान में तालिबान की तरफ से तालीम की जिम्मदारी संभाल रहे कार्यवाहक मंत्री हबीबुल्लाह आगा ने अभी पिछले ही दिनों उस देश में मजहबी तालीम देने वाले स्कूलों को लेकर अफसोस जताया था कि वहां तालीम ठीक से नहीं दी जा रही। उस मंत्री को लड़कियों की तालीम में कोई दिलचस्पी लेते तो कभी नहीं देखा गया है।
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