कितना अच्छा होता, अगर एनजेडीजी प्लेटफॉर्म में सर्वोच्च न्यायालय के जुड़ने को भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक महान क्षण माना जा सकता होता?
भारत की न्यायापालिका के लिए यह घटनाप्रवण और विचार प्रवण स्थिति है। हर तरह के विरोधाभासों से घिरी न्यायापालिका के लिए न्यायिक सुधारों पर गंभीरता से विचार करना अब अनिवार्य हो चुका है।
जिस दिन भारत का सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (एनजेडीजी) प्लेटफॉर्म में शामिल हुआ, जो लंबित मामलों की ट्रैकिंग प्रदान करने का मंच है, जिससे सर्वोच्च न्यायालय के वास्तविक समय के मुकदमा डेटा को एनजेडीजी पोर्टल के साथ एकीकृत किया सकता है, उसी दिन अदालत में एक जूनियर वकील पेश हुआ और सीधे तारीख मांगी। जब मुख्य न्यायाधीश ने उससे बहस करने के लिए कहा, तो उसे स्वीकार करना पड़ा कि उसे तो सिर्फ तारीख लेने के लिए भेजा गया था, उसे नहीं पता कि मामला क्या है।
कितना अच्छा होता, अगर एनजेडीजी प्लेटफॉर्म में सर्वोच्च न्यायालय के जुड़ने को भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक महान क्षण माना जा सकता होता? आखिर इसमें यह भी पता चल जाएगा कि किसी वकील को स्थगन/तारीखों के लिए कितने मौके दिए गए हैं। लेकिन फिर क्या होगा? भले ही पोर्टल वास्तविक समय में अपडेट किया जाए और सभी लंबित मामलों का विवरण दे, लेकिन जब तक अदालतों के काम करने की प्रवृत्ति में सुधार नहीं होगा, इस डेटा का भी कोई खास महत्व नहीं रह जाएगा।
बिना कुछ जाने-समझे तारीख मांगने आए वकील के मामले में बाकी जो हुआ वह अपने स्थान पर है, लेकिन इस घटना ने यह पोल एक बार फिर खोल दी कि भारत की न्यायपालिका के कामकाज का तरीका क्या है। तारीख ले लेना तो जैसे अदालतों में मुख्य कार्य बना हुआ है। बाकी बातों की तो कौन कहे, स्वयं मुख्य न्यायाधीश कोर्ट की रजिस्ट्री के कामकाज के तरीके पर आश्चर्य जता चुके हैं। कितने ही मामले ऐसे हैं, जिनमें फैसला सुनाया कुछ गया है और हस्ताक्षरित लिखित आदेश में कुछ और ही निकला है। इसके भी आगे कुछ तिलिस्म रहता हो, तो भी आश्चर्य की बात नहीं होगी।
न्यायपालिका में सुधारों की कमी, समय के साथ-साथ राष्ट्र की प्रगति में एक अवरोध के तौर पर सामने आती है। समय पर समुचित न्याय (न कि निर्णय) प्राप्त करना भले ही कानून की किसी अधिकार किताब में नागरिकों के अधिकार के तौर पर दर्ज न हो, भले ही उसे किसी प्रावधान में सुशासन की अनिवार्यता न कहा गया हो, लेकिन वह समय की मांग है। समय से बड़ा सर्वशक्तिमान कोई नहीं होता।
कहा जाता है कि सर्वशक्मिान होने के जोखिम यही होते हैं। विडंबना यह है कि जो सर्वोच्च न्यायालय दूसरी संस्थाओं के सर्वशक्तिमान होने के भय को आवश्यकता से बहुत अधिक महत्व देता है, वह स्वयं के सर्वशक्तिमान होने को उससे भी ज्यादा महत्व देता प्रतीत होता है। लेकिन कई बार यह भी उजागर हो चुका है कि सर्वोच्च न्यायालय का सर्वशक्तिमान होना किस तरह नियमों और शर्तों के अधीन है। जब अपने ही ढंग से प्रसिद्ध एक वकील पर एक रुपये का जुर्माना लगाया जाता है, जब अदालत किसी खास तरह के मामलों के लिए आधी रात को द्वार खोले प्रतीक्षा करती मिलती है, तो यही संदेश जाता है कि शायद इस सर्वशक्तिमान के ऊपर भी कोई सत्ता है, जो उससे भी ज्यादा शक्तिमान है। ऐसी स्थिति के दुष्प्रभावों पर न्यायपालिका को विचार करना ही होगा।
इस बात को समझने के लिए न तो किसी कानून की किताब को पढ़ना आवश्यक है और न ही विक्टोरिया की अंग्रेजी जानना अनिवार्य है कि समय तेजी से बदल रहा है और अब भारत एक महत्वपूर्ण और जिम्मेदार राष्ट्र के रूप में विश्व पटल पर उभर रहा है। ऐसी परिस्थितियों में व्यवस्था के हर पक्ष के मानदंडों को भी समयानुरूप होना होगा। जिस देश में एक मानदंड के रूप में यह कयास लगाया जाता हो कि न्यायपालिका ‘निर्णय’ देती है या ‘न्याय’ करती है, जिस देश में यह एक यथार्थ हो कि समर्थजनों का कोई दोष नहीं होता, जिस देश में यह एक यथार्थ हो कि न्यायपालिका कई बार राजनीतिक विचारधाराओं से प्रेरित रहती है, उस देश में व्यवस्थागत सुधार करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर न्यायिक सुधार किया जाना बहुत आवश्यक है।
हालांकि यह बात भी संभवत: उतनी ही बार कही जा चुकी होगी, जितनी बार भारत की अदालतों ने अपने यहां विचाराधीन प्रकरणों पर अगली तारीख दी होगी। लेकिन जाहिर है कि इसका लेशमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा है। ऐसे में न्यायपालिका में सुधारों की कमी, समय के साथ-साथ राष्ट्र की प्रगति में एक अवरोध के तौर पर सामने आती है। समय पर समुचित न्याय (न कि निर्णय) प्राप्त करना भले ही कानून की किसी अधिकार किताब में नागरिकों के अधिकार के तौर पर दर्ज न हो, भले ही उसे किसी प्रावधान में सुशासन की अनिवार्यता न कहा गया हो, लेकिन वह समय की मांग है। समय से बड़ा सर्वशक्तिमान कोई नहीं होता।
@hiteshshankar
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