“गुरु गोविंद दोनों खड़े काके लागूँ पाँय।
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।”
भक्त-कवि कबीरदास जी के उपरोक्त दोहे में गुरु की महिमा और महत्व का वर्णन है। गुरु को ईश्वर से भी प्राथमिक माना गया है, क्योंकि ईश्वर और उसकी प्रतिकृति सृष्टि का बोध सच्चा और श्रेष्ठ गुरु ही कराता है। इसी प्रकार भारतीय संस्कृति और परंपरा में गुरु का स्थान माता-पिता से भी ऊपर माना गया है। द्रोणाचार्य, रामानन्द, समर्थ गुरु रामदास और रामकृष्ण परमहंस आदि कुछ उल्लेखनीय गुरु हैं, जिन्होंने अपने शिष्यों अर्जुन, कबीर दास, छत्रपति शिवाजी और स्वामी विवेकानंद को प्रेरित और प्रभावित करते हुए आचार्यत्व का अनुकरणीय आदर्श स्थापित किया।
पश्चिमी सभ्यता में भी शिक्षक को महत्व दिया गया गया है। यूनानी विचारक अरस्तू ने माँ को प्रथम गुरु और परिवार को सामाजिक गुणों की प्रथम पाठशाला माना है। इस प्रकार सभी समाजों और सभ्यताओं में गुरु का उच्च और सम्माननीय स्थान रहा है। वर्तमान समय में तमाम परम्परागत संस्थाएं और संबंध क्षीण और क्षतिग्रस्त हो रहे हैं। गुरु भी इस सार्वजनीन विचलन से अछूता नहीं है। सरकार और समाज की नज़रों में उसका दर्जा एक कर्मचारी का है तो स्वयं शिक्षक भी शिक्षण-कार्य जैसे गुरुतर दायित्व को नौकरी मात्र मानता है। मूल्य-स्खलनता और भौतिकता के घटाटोप के चलते आज समाज में गुरु का पूर्ववत स्थान और सम्मान नहीं है। यह स्थिति शोचनीय है।
सूचना-तकनीक क्रांति के चलते गूगल और CHAT-GPT जैसे नए प्लेटफॉर्मों और आविष्कारों ने शिक्षण-कार्य को अत्यंत चुनौतीपूर्ण बना दिया है। आज शिक्षक होने मात्र से सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता, बल्कि अपने आचरण और योग्यता से सम्मान अर्जित करना पड़ता है। इन दोनों के बावजूद आज सम्मान-प्राप्ति की कोई गारंटी नहीं है। स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्राओं के हाथ में मोबाइल फ़ोन की पहुंच ने न सिर्फ उनके लिए ज्ञान के नए द्वार खोल दिये हैं, बल्कि भटकाव और विचलन का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया है।
आज वही गुरु आदरणीय है जो छात्र-छात्राओं को उनके करियर में सहायता कर सकता है। उन्हें अधिक-से-अधिक अंक दिला सकता है। इसके लिए शिक्षक को स्वयं को अद्यतन ज्ञान से बाबस्ता रखने की आवश्यकता है, बल्कि उसके लिए ज्ञान को अपने आचरण में उतारकर आदर्श प्रस्तुत करना भी जरूरी है। वही शिक्षक आदर्श और प्रेरक हो सकता है जो अपने छात्रों को निःस्वार्थ भाव और पूर्ण समर्पण के साथ जीवन की चुनौतियों के लिए तैयार करता है। कथनी और करनी का अद्वैत ही शिक्षक के सम्मान का आश्वस्ति-पत्र है। वही समाज आगे बढ़ता है जो शिक्षक को उसका देय प्रदान करता है। शिक्षक व्यक्ति-निर्माण, समाज कल्याण और राष्ट्र का संगठन करता है। शिक्षक को उपेक्षित और तिरस्कृत करके कोई भी समाज या राष्ट्र प्रगति पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता।
आज शिक्षकों के चयन का कोई पारदर्शी मानदंड नहीं है। योग्यतम शिक्षक हाशिये पर ठिठके खड़े हैं और अयोग्य लोग जैसे-तैसे पद हथिया ले रहे हैं। भाई-भतीजावाद, वैचारिक निष्ठा, क्षेत्रवाद आदि गैर-शैक्षणिक मानदंडों के आधार पर जब शिक्षकों की नियुक्ति होगी तो किसी भी देश का भविष्य स्वतः नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा, क्योंकि शिक्षक भावी पीढ़ियों को शिक्षा देते हुए राष्ट्र का भविष्य निर्माण करता है। आज़ादी के बाद से ही चली आ रही शिक्षकों की नियुक्ति की प्रक्रिया को बदलकर योग्यता आधारित वस्तुपरक और पारदर्शी व्यवस्था बनाये जाने की आवश्यकता है। ताकि योग्यतम और श्रेष्ठतम व्यक्तियों को शिक्षक के रूप में नियुक्त करते हुए अपनी भावी पीढ़ी को निश्चिंत होकर उनके हाथ में सौंपा जा सके।
सरकारीकरण से शिक्षकों को बचाया जाना जरूरी है। वर्तमान में शिक्षकों को जनगणना, टीकाकरण, मतदाता सूची निर्माण एवं पुनरीक्षण, चुनाव, मिड डे मील, विभिन्न आंकड़ों का विवरण तैयार करने और उनके नियमित प्रस्तुतिकरण/प्रेषण जैसे तमाम शिक्षणेतर कामों में लगाया जाता है। इससे उनकी कार्यक्षमता, प्रतिबध्दता और कर्तव्यनिष्ठा नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है। लगभग सभी राज्य सरकारें उन्हें इस प्रकार के कामों में लगाती रहती हैं। आज स्कूली शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा तक निजी संस्थानों की भरमार हो गयी है। इन निजी संस्थानों का प्रबंधन अपने यहां कार्यरत शिक्षकों को गुलाम या नौकर से अधिक कुछ नहीं समझता। उनकी सेवा अवधि भी प्रबंधन की कृपापर्यन्त ही होती है।
प्रबंधन की भौंहें टेढ़ी होते ही सेवामुक्त होना सामान्य-सी बात है। इन निजी संस्थानों में प्रायः कम वेतन देकर अधिक सर्वाधिक खटाया जाता है। शिक्षकों का शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण भी इन संस्थानों का रोजनामचा है। काम करने की स्वतंत्रता और स्वस्थ वातावरण का सर्वथा अभाव होता है। तनाव, अनिश्चितता और बेहिसाब कार्यभार के बीच शिक्षक प्रबंधन और अभिभावकों के दो पाटों के बीच पिसता रहता है। आज बच्चे को डांटने-डपटने की स्वतंत्रता भी शिक्षक को नहीं है। आज अधिकाधिक अंक लाने की होड़ लगी रहती है। कक्षा के छात्र-छात्राओं द्वारा अधिक-से-अधिक अंक लाने की जिम्मेदारी उनसे अधिक शिक्षकों की होती है। उसी से उनके शिक्षण का आकलन होता है। और उसी से उनका भविष्य निर्धारित होता है। इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने पूरी की पूरी नौजवान पीढ़ी को अवसाद, निराशा और नकारात्मकता के अंधकूप में धकेल दिया है। आईआईटी की फैक्ट्री कोटा इसका सर्वाधिक उपयुक्त उदाहरण है। हालांकि, निजी क्षेत्र के कुछ प्रतिष्ठित संस्थान इसका अपवाद भी हैं।
जबकि ध्यान रखने की बात यह है कि शिक्षण कार्य एक नौकरी या आजीविका मात्र नहीं है। कुछ लोगों के लिए शिक्षण (खासकर सरकारी संस्थानों में) एक ल्युक्रेटिव प्रोफेशन बन गया है। वे सोचते हैं कि जैसे-तैसे बस नौकरी पा लो उसके बाद पढ़ने-पढ़ाने की कोई चिंता/आवश्यकता नहीं। आज यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि जिनकी शिक्षण में वास्तविक रुचि है वही लोग इसे आजीविका के रूप में अपना सकें। अभी प्रायः यह देखने में आता है कि शिक्षण-कार्य के साथ ‘हारे को हरिनाम’ जैसी स्थिति बनती जा रही है। इस स्थिति को भी बदलने की आवश्यकता है।
शिक्षा का उद्देश्य महज रोजगार प्रदान करना नहीं, बल्कि संस्कार देना और जिम्मेदार और प्रतिबद्ध नागरिक तैयार करना भी है। यह तभी संभव है जब शिक्षक को भौतिक सुविधाओं के साथ-साथ सम्मान भी दिया जाएगा। यदि समाज शिक्षकों का ध्यान रखेगा तो शिक्षक समुदाय भी समाज और राष्ट्र के भविष्य निर्माण में पीछे नहीं रहेगा।
(लेखक किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं।)
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