14 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि को भारत के दो टुकड़े कर दिए गए। इस दौरान लगभग 10 लाख लोग मारे गए। इनमें अधिकतर वे हिंदू थे, जो पाकिस्तानी हिस्से में रह गए थे। इस मार- काट के बाद भी नेताओं ने ऐसा माहौल बना दिया कि लोग आजादी का जश्न मनाने के लिए सड़कों पर उतर आए। दिल्ली में जब यह सब हो रहा था, उस समय पाकिस्तान में लाखों हिंदू वहां के मुसलमानों से अपनी जान की भीख मांग रहे थे। भारत के नेताओं ने उन हिंदुओं को बिल्कुल भुला दिया।
आज भारत के लोग अपनी स्वतंत्रता की 76वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। इस स्वतंत्रता के लिए अनगिनत लोगों ने अपनी जान दे दी। इसके बाद 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। इस स्वतंत्रता के साथ ही भारत का विभाजन भी हुआ और पाकिस्तान नामक एक देश विश्व के मानचित्र पर आया। आज यही पाकिस्तान और पाकिस्तान बनाने वाली सोच से पूरा भारत परेशान और हिंदू समाज आतंकित है। इसलिए इस पर विचार होना चाहिए कि विभाजन से हिंदुओं को क्या मिला!
आगे बढ़ने से पहले विभाजन की विभीषिका की चर्चा बहुत ही आवश्यक है। विभाजन के समय भारत में लगभग 30 करोड़ हिंदू और लगभग 5 करोड़ मुसलमान थे। उस समय भारत का क्षेत्रफल 43,19,263 वर्ग किलोमीटर था। चूंकि मुसलमानों ने मजहब के नाम पर देश का बंटवारा कराया था। इसलिए उनकी उस समय की आबादी के हिसाब से उन्हें 6,40,840 वर्ग किलोमीटर जमीन मिलनी चाहिए थी, लेकिन उन्हें 10,32,000 वर्ग किलोमीटर जमीन दी गई। यानी उनका जो हिसाब बनता था, उससे लगभग दोगुनी जमीन उन्हें दी गई। यानी हिंदुओं के साथ छल किया गया। हिंदुओं के साथ एक छल यह भी हुआ कि अपना हिस्सा लेने के बावजूद अधिकतर मुसलमान पाकिस्तान नहीं गए। 1951 की विस्थापित जनगणना के अनुसार विभाजन के तुरंत बाद 72,26,000 मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान गए और 72,49,000 हिंदू और सिख पाकिस्तान से भारत आए। अब भारत मेें मुसलमानों की जनसंख्या लगभग 20 करोड़ है, वहीं पाकिस्तान में हिंदू एक प्रतिशत से भी कम रह गए हैं, जबकि विभाजन के बाद भी पाकिस्तान में लगभग 22 प्रतिशत हिंदू थे।
1947 में इस्लामिक गणराज्य पाकिस्तान में ऐसे हालात बना दिए गए कि वहां से हिंदुओं को पलायन करना पड़ा और वह सिलसिला अभी भी चल रहा है। ऐसा कोई दिन नहीं बीतता है कि जब कोई पाकिस्तानी हिंदू जान बचाने के लिए भारत न आता हो।
विभाजन के दौरान पाकिस्तान से भारत आने वाले हिंदुओं के साथ, जो अत्याचार हुए हैं, उसके उदाहरण पूरी दुनिया में नहीं मिलते हैं। 1947 में 17 साल के रहे सुरेंद्र कुमार मैनी इस समय दिल्ली में रहते हैं। उन्होंने बताया, ‘‘मेरा परिवार झेलम जिले की चकवाल तहसील में रहता था। 1946 से ही हालात खराब होने लगे थे। हिंदुओं की लगातार हत्या होने लगी थी। यही नहीं, उन लोगों ने हमारे श्मशान घाटों पर भी कब्जा कर लिया था। किसी मृत हिंदू का अंतिम संस्कार भी नहीं करने दिया जाता था। स्थिति यह थी कि अंतिम संस्कार के लिए मुसलमानों के सामने गिड़गिड़ाना पड़ता था। अंत में मेरे परिवार के लोग जुलाई, 1947 में सब कुछ छोड़कर भारत आ गए। रास्ते में बहुत मुश्किल से जान बची। भारत आने के बाद महीनों तक दाने—दाने के लिए तरसे। पिताजी ने मजदूरी करके हम लोगों को पाला। भगवान न करे ऐसी स्थिति और कभी पैदा हो।” रामचंद्र आर्य भी विस्थापित हिंदू हैं। 1947 में रामचंद्र आर्य की आयु 22 वर्ष थी। रामचंद्र का परिवार डेरागाजी खान जिले के चोटी कस्बे में रहता था। रामचंद्र बताते हैं, ”चोटी में 90 प्रतिशत मुसलमान और 10 प्रतिशत हिंदू थे। 1947 में जब भारत के बंटने की घोषणा हुई, तो वहां के मुसलमानों ने हिंदुओं के मकान और दुकान जा दिए। अनेक हिंदुओं की हत्या भी हुई। इस बीच गोरखा सैनिक वाले वहां पहुंचे और बचे—खुचे हिंदुओं को वहां से निकालकर डेरागाजी खान ले आए। दो महीने के बाद हम लोगों को मुजफ्फरगढ़ पहुंचाया गया। वहां से संगरूर आए। महीनों भटकते रहे। अंत में हिसार में पनाह मिली।” दिल्ली में रहने वाले अभिनव दीवान तो अभी भी 1947 की घटनाओं को याद कर रो पड़ते हैं। वे उन दिनों सियालकोट में रहते थे। उन्होंने बताया, ”एक दिन अचानक सैकड़ों मुसलमानों ने हिंदुओं के घरों पर हमला कर दिया। बहुत मुश्किल से हम लोगों की जान बची। दूसरे दिन हमारे मुहल्ले के सभी लोग केवल पहने हुए वस्त्र के साथ निकल गए। रेलगाड़ी से भारत आने लगे, तो रास्ते में मुसलमानों ने गाड़ी रोक दी और हिंदुओं को मारने-काटने लगे। उन्होंने मेरी मां और पिताजी को भी मार दिया। मैं लाशों के बीच ही कई घंटों तक सिसकता रहा। बाद में सेना आई और जो बचे थे, उन्हें भारत भेज दिया।’’ उन्होंने यह भी बताया कि विभाजन के दौरान वे अपने परिवार के अन्य लोगों से भी बिछुड़ गए। इसलिए एक अनाथालय में पालन-पोषण हुआ। साथ ही पढ़ाई भी होती रही। इसलिए बाद में सरकारी नौकरी लगी और आज एक सम्मानित जीवन जी पा रहे हैं।
उन दिनों मुजफ्फराबाद में रहने वाले रविंद्र पाल वोहरा जैसे हजारों हिंदुओं को जान बचाने के लिए मुसलमान बनना पड़ा था। इन लोगों ने जान के लिए मस्जिदों में नमाज भी पढ़ी। रविंद्र पाल वोहरा बताते हैं कि उन दिनों मुजफ्फराबाद में हिंदू और सिख लगभग 40,000 थे। उनमें से 10,000 को कुछ ही दिनों में मार दिया गया। बचे हिंदुओं के सामने मुसलमान बनने का प्रस्ताव रखा गया। जान बचाने के लिए मेरे जैसे अनेक हिंदू मुसलमान बन गए। हम लोगों को हर शुक्रवार को मस्जिद में नमाज पढ़नी पड़ती थी।
ऐसे ही कोटली, जो अब पीओके में है, के रहने वाली 90 वर्षीया सुनीता ने बताया कि 1947 में लगभग दो महीने तक कोटली के सभी हिंदू बंधक बने रहे। उनकी एक बात सुनकर तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उन्होंने बताया कि शाम होते ही हर हिंदू परिवार की महिलाओं और लड़कियों को एक बड़े घर के अंदर बंद कर दिया जाता था और बाहर हिंदू लड़के पहरा दिया करते थे। वे लड़के साथ में मिट्टी का तेल भी रखते थे। यह सब इसलिए किया जाता था कि यदि रात में मुसलमान हमला करें तो कोई हिंदू मां-बेटी मुसलमानों के हाथ न लग जाए। और मिट्टी का तेल इसलिए रखा जाता था कि यदि हिंदू लड़के उनकी सुरक्षा करने में अपने को असमर्थ पाने लगें तो मिट्टी का तेल डालकर उन महिलाओं और लड़कियों को जला कर मार दें, क्योंकि उनका उन जिहादियों के हाथों में जाने से अच्छा था मर जाना।
ऐसी हृदय-विदारक घटनाओं की कोई सीमा नहीं है। विभाजन से पीड़ित हर व्यक्ति का अपना-अपना दर्द है। अब वह दर्द और गहरा होता जा रहा है। लोग मानने लगे हैं कि एक बार फिर से भारत 1947 की ओर बढ़ता जा रहा है।
सच में देखें तो इस बात में दम है। जिस तरह से जिहादी तत्व इस देश में उत्पात मचा रहे हैं, वह हम सबके लिए चिंता की बात है। जिहादी जिसका भी चाहते हैं उसका गला काट देते हैं और कोई उनकी आलोचना करता है तो उसे भी मार देने की धमकी देते हैं। यह सब अचानक नहीं हो रहा है। हमें और आपको वह नारा याद होगा, जिसमें कहा जाता है, ‘‘हंस कर लिया है पाकिस्तान, लड़ कर लेंगे हिन्दुस्तान।’’ स्वतंत्रता के बाद सेकुलर नेताओं ने ऐसी नीतियां बनाईं कि जिहादी तत्वों का दुस्साहस बढ़ता गया और अब वे ‘—लड़कर लेंगे हिन्दुस्तान’ के नारे को चरित्रार्थ करने के लिए लड़ाई शुरू कर चुके हैं।
इन जिहादी तत्वों को सबसे अधिक कष्ट इस बात से है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके ‘इशारे’ पर नहीं चल रहे हैं। इनसे पहले के लगभग सभी प्रधानमंत्री उनके इशारे पर नाचा करते थे। सरकार का हर मंत्री रोजा के समय इफ्तार पार्टी देता था। इन्हें हज कराने के लिए सरकारी खजाने से धन लुटाया जाता था। इन्हें खुश करने के लिए हर सेकुलर नेता जालीदार टोपी पहनता था। वोट बैंक के लिए ये नेता उन आतंकवादियों को जेल से छुड़वा देते थे, जो मंदिरों पर बम विस्फोट करते थे, निर्दोष हिंदुओं को मारते थे। अब ऐसा नहीं हो रहा है। आतंकवादियों को छोड़ने की बात तो दूर जम्मू-कश्मीर में प्रतिदिन तीन-चार आतंकवादी मारे जाते हैं। अब केंद्र सरकार का कोई भी विभाग रोजा-इफ्तार पार्टी का भी आयोजन नहीं करता है।
एक बात और जो आम लोगों को इसकी जानकारी नहीं है। पहले जब भी कोई विदेशी अतिथि भारत की यात्रा पर आता था तो उसे राष्ट्रपति भवन में ताजमहल का चित्र भेंट किया जाता था। यह वर्षों पुरानी परम्परा थी। 2014 के बाद से यानी जब से नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं तब से यह परम्परा बंद हो गई है। अब विदेशी मेहमानों को श्रीमद्भगवद्गीता की प्रति भेंट की जाती है। यही नहीं, जब भी नरेन्द्र मोदी विदेश जाते हैं, तो वहां के अपने समकक्ष को भेंट करने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के साथ—साथ भारतीय संस्कृति, भारतीय पहचान से जुड़ी वस्तुएं ले जाते हैं। इसके साथ ही वे वहां के सनातन मंदिरों में जाते हैं, और वहां रह रहे भारतीयों से भेंट भी करते हैं। श्री मोदी ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं, जो भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए काम कर रहे हैं, पुराने मंदिरों को सजा और संवार रहे हैं। यहां तक कि उनके प्रयासों से दुबई और कतर जैसे मुस्लिम देशों में मंदिर बन रहे हैं। उनके प्रयासों से ही 500 वर्ष पुराना श्रीराम मंदिर का विवाद समाप्त हुआ है और अब वहां भव्य-दिव्य मंदिर बन रहा है।
भला, जिहादी तत्व इन चीजों को कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं। इसलिए ये तत्व जानबूझकर भारत के आम मुसलमानों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध भड़का रहे हैं। दुर्भाग्य ये आम मुसलमान भड़क भी रहे हैं और कभी पत्थरबाजी करते हैं, कभी हंगामा करते हैं, तो कभी किसी हिंदू का सिर तन से जुदा करते हैं। अभी हाल ही में हरियाणा के मेवात में हिंदुओं को ठीक उसी तरह घेर कर मारने का प्रयास हुआ, जिस तरह कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तानी फौजियों ने पहाड़ पर कब्जा करके भारतीय सैनिकों को निशाना बनाया था। इसके बावजूद भी किसी भी सेकुलर नेता ने इनकी आलोचना तक नहीं की। यही कारण है कि जिहादी तत्वों का दुस्साहस बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर भाषा, क्षेत्र, जाति, आरक्षण आदि के नाम पर बंटा हिंदू समाज इस खतरे को गंभीरता से नहीं देख पा रहा है। इसलिए मेवात की घटना पर शेष भारत के हिंदू चुप ही रहे। कुछ संगठनों को छोड़ दें तो अधिकांश हिंदुओं को मेवात की घटना से कोई लेना—देना नहीं रहा। 1989—90 के दौर में जब कश्मीर घाटी से हिंदुओं को खदेड़ा गया, उस समय भी शेष भारत के हिंदू अपने में ही व्यस्त रहे। हिंदुओं की इस उदासीनता के कारण आज भी कश्मीरी हिंदू विस्थापित का जीवन जी रहे हैं। वहीं दूसरी ओर मुसलमान और सेकुलर नेता जिहादी तत्वों के साथ डटकर खड़े रहते हैं।
1947 से पहले भी हिंदू समाज की ऐसी ही स्थिति थी। उसकी बहुत बड़ी कीमत हिंदुओं को चुकानी पड़ी है। अब इस स्थिति से हिंदुओं को निकलना ही पड़ेगा, एकजुटता दिखानी पड़ेगी।
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