सच्चे ज्ञान की खोज में इधर-उधर घूमने के बाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी मथुरा में वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द के पास पहुँचे। बताया जाता है कि उन्होंने अपने ज्ञान की प्यास बुझाने के लिए उनके घर का दरवाजा खटकटाया और फिर उनसे शिक्षा ग्रहण करने लगे। स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान् थे। उन्होंने स्वामी जी को वेद पढ़ाया ।
डॉ. अंशुला गर्ग
“इंद्रम् वर्धन्तो अप्तुर: कृण्वन्तो विश्वमार्यम् । अपघ्नन्तो अराव्ण:”
एक महान योगी, मुनि, महर्षि, क्रान्तिकारी एवं समाज सुधारक, दार्शनिक और राष्ट्रवादी जन नेता स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्म, तिथि के अनुसार फाल्गुन मास की कृष्ण दशमी के दिन 12 फरवरी 1824 को गुजरात प्रांत काठियावाड़ क्षेत्र जिला राजकोट के एक छोटे-से गाँव टंकारा में कर्षण जी तिवारी और माता यशोदाबाई के यहाँ हुआ। उनका बचपन का नाम मूलशंकर था। ऐसा विदित है कि केशवचन्द्र सेन के सुझाव पर दयानंद सरस्वती जी ने संस्कृत भाषा के साथ हिन्दी भाषा को अपना लिया तथा कोपीन के स्थान पर धोती-कुर्ता धारण करने लगे।
वैराग्य की भावना का जागरण व वास्तविकता की खोज: स्वामी दयानन्द जी के प्रारम्भिक घरेलू जीवन की तीन घटनाएँ धार्मिक महत्त्व रखती हैं, जिनमें चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह की घटना सामने आती है जब उन्होंने शिवलिंग पर देखा की जिस शिव के लिए पिता जी के कहने पर उन्होंने व्रत रखा है, उस शक्तिशाली भगवान कहे जाने वाले को तो चूहा लड्डू खाकर गंदा कर रहा है। दूसरा अपनी बहन की मृत्यु से अत्यन्त दु:खी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय स्वामी जी ने किया। इसके बाद वे इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जानकर , घर से भाग गए। घर त्यागने के पश्चात् 18 वर्ष तक उन्होंने संन्यासी का जीवन बिताया। उन्होंने बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।
शिक्षा
प्रथमत: वेदान्त के प्रभाव में आये तथा आत्मा एवं ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया। ये अद्वैत मत में दीक्षित हुए एवं उनका नाम ‘शुद्ध चैतन्य” पड़ा। इसके पश्चात् वे सन्न्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए एवं वहां उनको प्रचलित उपाधि दयानन्द सरस्वती प्राप्त हुई। इसके बाद उन्होंने योग को अपनाते हुए वेदान्त के सभी सिद्धान्तों को छोड़ दिया।
स्वामी विरजानन्द के शिष्य
सच्चे ज्ञान की खोज में इधर-उधर घूमने के बाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी मथुरा में वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द के पास पहुँचे। बताया जाता है कि उन्होंने अपने ज्ञान की प्यास बुझाने के लिए उनके घर का दरवाजा खटकटाया और फिर उनसे शिक्षा ग्रहण करने लगे। स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान् थे। उन्होंने स्वामी जी को वेद पढ़ाया । वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द जी को छुट्टी दी “मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओ और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।”
स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जीवन दर्शन
स्वामी दयानंद सरस्वती जी वस्तु जगत और आध्यात्मिक जगत दोनों ही तरह के ज्ञान को महत्त्व प्रदान करते थे। वे वस्तु जगत के ज्ञान को यथार्थ ज्ञान कहते हैं और आध्यात्मिक जगत के ज्ञान को सद्ज्ञान कहते हैं। लेकिन वे सद्ज्ञान को सर्वोच्च ज्ञान मानते हैं, जो कि वैदिक ग्रंथों में निहित है। पर हर ज्ञान को तर्क की कसौटी पर कसना दयानंद जी की विशेषता थी। विभिन्न आर्य समाज के शोधकर्ताओं से जान पड़ता है की वे अपने सामने पंडितों को बैठाकर, वेदों के आधार पर उनके प्रश्नों का जवाब देते थे। वे जहाँ भी जाते थे, अपने आने की सूचनार्थ एक इश्तिहार निकलवा देते थे। एकबार उनसे अंग्रेजी अधिकारी ने सुरक्षा देने के बारे में कहा तो उन्होंने कहा आपका शासन इतना अच्छा है कि मुझे सुरक्षा कर्मियों की आवश्यकता नहीं है, लेकिन फिर उन्होंने यह भी कहा कि सुराज्य से स्वराज्य अधिक बेहतर है, इस प्रकार वे बड़ी कोमलता से अंग्रेजों को जवाब दे देते थे।
ऐसा ही एक ओर वाकया आता है, जब कुछ लोग एक व्यक्ति के गले में दयानंद सरस्वती जी की तख्ती टांग, गले में जूतों की माला डाल जुलूस निकाल रहे थे, तो किसी ने उनको इस बारे में बताया तो, उन्होंने कहा की वो तो नकली दयानंद है, उसके साथ तो ऐसा ही होगा, असली तो यहाँ बैठा है, इस प्रकार वे बड़े शांति प्रिय थे । जब उन्हें रसोइए द्वारा जहर दिया गया तो उन्होंने उसको भी क्षमा किया और उसकी जान की प्रवाह करते हुए उसको कहीं दूर भाग जाने के लिए कहा।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी के महान कार्य
आर्य समाज की स्थापना : स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने सन 1875 में 10 अप्रैल गुड़ी पड़वा के दिन मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की। आर्यसमाज की स्थापना का उद्देश्य वैदिक धर्म को पुन: स्थापित कर जातिबंधन को तोड़कर संपूर्ण हिन्दू समाज को एकसूत्र में बांधना था। आर्य समाज के अनुसार ईश्वर एक ही है जिसे ब्रह्म कहा गया है। सभी हिन्दुओं को उस एक ब्रह्म को ही मानना चाहिए। 1892-1893 ई. में आर्य समाज में दो फाड़ हो गई। फूट के बाद बने दो दलों में से एक ने पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन किया। इस दल में लाला हंसराज और लाला लाजपत राय आदि प्रमुख थे। उन्होंने ‘दयानन्द एंग्लो-वैदिक कॉलेज’ की स्थापना की। इसी प्रकार दूसरे दल ने पाश्चात्य शिक्षा का विरोध किया, जिसके परिणामस्वरूप विरोधी दल के नेता स्वामी श्रद्धानंद जी ने 1902 ई. में हरिद्वार में एक ‘गुरुकुल कांगड़ी’ की स्थापना की। इस संस्था में वैदिक शिक्षा प्राचीन पद्धति से दी जाती थी। वे कहते थे ये सम्पूर्ण अखंड भारतवर्ष आर्यवर्त है और यहाँ रहने वाला हर व्यक्ति आर्य है।
शुद्धि आंदोलन : स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिन्दू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया। दयानंद सरस्वती जी द्वारा चलाए गए ‘शुद्धि आन्दोलन’ के अंतर्गत उन लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में आने का मौका मिला, जिन्होंने किसी कारणवश इस्लाम या ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। शायद इसलिए एनी बेसेंट ने कहा था कि स्वामी दयानन्द ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि ‘भारत भारतीयों के लिए है।’ आर्य समाज के अनुसार ईश्वर एक ही है जिसे ब्रह्म कहा गया है। स्वामीजी ने अपने उपदेशों का प्रचार आगरा से प्रारम्भ किया।
1867 ई0 में हरिद्वार में कुम्भ के दौरान स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने अपने वस्त्र फाड़कर एक पताका तैयार की और उस पर लिखा ‘पाखंड खंडनी’, उसे अपनी कुटिया पर फहराकर अधर्म, अनाचार और धार्मिक शोषण के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार उन्होंने पाखण्डखंडिनी पताका के द्वारा पोंगा-पंथियों को चुनौती दी एवं झूठे धर्मों का खण्डन किया।
सत्यार्थ प्रकाश व पुस्तकों का लेखन: स्वामी जी के विचारों का संकलन इनकी कृति ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में मिलता है, जिसकी रचना स्वामी जी ने हिन्दी में की थी। दयानंद जी ने वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते हुए ‘पुनः वेदों की ओर चलो का नारा दिया’। सत्यार्थ प्रकाश’ में चौदह अध्याय हैं। स्वामी दयानंद सरस्वती की इस रचना (सन 1875) का मुख्य प्रयोजन सत्य को सत्य और मिथ्या को मिथ्या ही प्रतिपादन करना है।
स्वतंत्रता आंदोलन : 1857 में स्वतंत्रता-संग्राम में स्वामी जी ने राष्ट्र को मार्गदर्शन दिया और उनका कहना था कि विदेशी शासन किसी भी रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं है । दयानंद सरस्वती जी ने अंग्रेजों के खिलाफ कई अभियान चलाए “भारत, भारतीयों का है’ उन्हीं में से एक आंदोलन था। उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से भारतवासियों को राष्ट्रीयता का उपदेश दिया और भारतीयों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करते रहे। यही कारण था कि अंग्रेज उनसे नाराज हो गए।
कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था: आर्य समाज के प्रबुद्ध जन डॉ. अजीत आर्य के अनुसार वे कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था के पुरजोर समर्थक थे। वे कहते थे जो ज्ञान की पूर्ति करे वह ब्राह्मण है। जो सभी की सुरक्षा करता है वह क्षत्रिय है, जो निजी सामान व आपूर्ति की व्यवस्था करे वह वैश्य है। जो साफ़ सफ़ाई का ध्यान रखे वह अनुसूचित समाज है। इस प्रकार उन्होंने सभी वर्णों को कर्म के आधार पर सम्मान दिया।
अनुसूचित समाज का उद्धार: भारतीय समाज में धीरे-धीरे अनुसूचित वर्ग की स्थिति दयनीय हो गयी व लोग उन्हें तिरस्कार की नज़रों से देखने लगे। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने इसका विरोध किया व लोगों से अनुरोध किया कि वे सभी के साथ समान व्यवहार करें, इस प्रकार उन्होंने शूद्रों के उद्धार पर मुख्यतया बल दिया।
महिलाओं को शिक्षा: वैदिक काल में स्त्रियों का स्थान बहुत सम्मानजनक था व उन्हें भी शिक्षा का पूर्ण अधिकार था। हिंदू धर्म में कोई भी यज्ञ स्त्री के बिना पूरा नहीं माना जाता था। देवताओं के साथ देवियों का भी उल्लेख मिलता है, जिन्होंने समय-समय पर अपने ज्ञान व शक्ति का परिचय दिया है। किंतु समय के साथ-साथ महिलाओं को बाहर जाने या पढ़ने की अनुमति नहीं मिलती थी। स्वामी दयानंद जी ने इस व्यवस्था का विरोध किया व महिलाओं की शिक्षा व समान अवसर की बात कही। वे महिलाओं को उच्च शिक्षा देने के समर्थक थे।
मूर्ति पूजा, मिथ्याडंबर और असमानता, छुआछूत, श्राद्ध कर्म, बाल विवाह, सती प्रथा, पर्दा प्रथा, बहु विवाह आदि का विरोध: वे महिलाओं को पुरुषों की भांति सक्षम बनाने की बात करते थे। वे कहते यदि सेवा करना है तो जिंदा माता पिता की करो, यही उनकी सबसे बड़ी सेवा व पुण्य है। उन्होंने पंडे- पंडितों का जमकर विरोध किया।
विधवा विवाह: स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने विधवा विवाह के लिए एक आंदोलन चलाया व लोगों को जागरूक किया। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार एक विधुर पुरुष को फिर से शादी करने का अधिकार प्राप्त है, उसी प्रकार महिला को भी यह अधिकार मिलना चाहिए।
योग व प्राणायाम का प्रचार: उन्होंने योग व प्राणायाम का प्रचार किया ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इससे प्रेरित हो व इसे अपने जीवन का एक भाग बनायें। वे जगह-जगह जाकर लोगों को योग व प्राणायाम करने की महत्ता के बारे में बताते थे व उनसे मिलने वाले लाभों पर चर्चा करते थे।
तर्क व वेदों के ज्ञान को महत्व : स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने धर्म में भी तर्क को महत्व प्रदान किया। उन्होंने तर्क के नियम पर बल दिया और बताया कि श्रद्धा के आधार पर कुछ भी स्वीकार न करो, बल्कि जांचो, परखो और निष्कर्ष पर पहुँचो। वे हमेशा कहते थे, वेदों की ओर बढ़ो यानि वेद सबसे तर्कसंगत हैं। डा. अजीत आर्या के अनुसार स्वामी जी कहते थे वेद विज्ञान का मूल स्रोत हैं। उन्होंने 17 वेदों को जर्मनी के पुस्तकालय से मंगवाया और उनके एक हाथ में लाठी होती थी, तो दूसरे हाथ में वेद होते थे।
पुरूष-नारी समानता के पक्षधर: दयानंद सरस्वती जी ने स्त्री और पुरुष समानता के नियम की व्याख्या की। उन्होंने कहा ‘‘ईश्वर के समीप स्त्री-पुरुष दोनों बराबर है क्योंकि वह न्यायकारी है। उसमें पक्षपात का लेश नहीं है। जब पुरुष को पुनर्विवाह की आज्ञा दी जाए तो स्त्रियों को दूसरे विवाह से क्यों रोका जाये।
सामाजिक समानता के समर्थक: स्वामी दयानंद सरस्वती एक महान समाज सुधारक थे। उनमें भरपूर जोश था, प्रखर बुद्धि थी और जब वह सामाजिक अन्याय देखते तो उनके हृदय में आग जल उठती थी। वे बार-बार कहते थे- ‘‘अगर आप आस्तिक हैं तो सभी आस्तिक भगवान के एक परिवार के सदस्य हैं। अगर आपका परमात्मा में विश्वास है तो प्रत्येक मनुष्य उसी परमात्मा की एक चिंगारी है। इसलिए आप प्रत्येक मानव-प्राणी को अवसर दीजिए कि वह अपने को पूर्ण बना सके।’’
राष्ट्रीयता के पोषक : उन्होंने अपने उपदेशों में राष्ट्र प्रेम की भावना का संचार बार बार किया है। देश के प्रति उनके मन में अगाध ममता थी। सत्य की तलाश में नगर, वन, पर्वत सभी जगह कहीं घूमते-घूमते उन्होंने जनता की दुर्दशा और जड़ता को देखा था। भारत राष्ट्र की दुर्दशा से स्वामी जी अत्यधिक आहत थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्रीयता की भावना को मजबूत करने में लगा दिया। वे संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे, गुजराती उनकी मातृभाषा थी, पर राष्ट्र की एकता को मजबूत करने हेतु उन्होंने हिन्दी भाषा के माध्यम से ही अपना उपदेश देना प्रारम्भ किया और इसी भाषा में अपनी पुस्तकें लिखी। हिन्दी भाषा के प्रति ऐसी अटूट निष्ठा किसी दूसरे भारतीय मनीषी या नेता में मिलना कठिन है। स्वामी जी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्वदेशी और स्वराज्य जैसे शब्दों का प्रयोग किया।
शिक्षा में योगदान: महर्षि दयानंद जी पूरी तरह से आश्वस्त थे कि ज्ञान की कमी हिंदू धर्म में मिलावट के पीछे मुख्य वजह थी। स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों का भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ा। दयानंद जी के समर्थकों ने दो तरह की शिक्षा संस्थायें स्थापित की- गुरुकुल और दयानंद एंग्लो वेदिक विद्यालय एवं महाविद्यालय।
गुरूकुल व्यवस्था दयानंद सरस्वती के मूल विचारों पर आधारित है। पहला गुरूकुल दिल्ली के समीप सिकन्दराबाद में खोला गया। बाद में वृन्दावन में यमुना के किनारे इसे स्थानान्तरित कर दिया गया। यह वृन्दावन गुरूकुल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सर्वाधिक प्रसिद्धि हरिद्वार के समीप स्थित गुरूकुल कांगड़ी को प्राप्त है। उनकी मान्यताओं, शिक्षाओं और विचारों से प्रेरित होकर, उनके शिष्यों ने 1883 में उनकी मृत्यु के बाद दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज ट्रस्ट एंड मैनेजमेंट सोसाइटी की स्थापना की। आर्य समाज के विशेषज्ञ एवं डीएवी के रीजेनल निदेशक डॉ धर्मदेव विद्यार्थी के अनुसार स्वामी जी के शिष्य गुरुदत्त विद्यार्थी की शिक्षण संस्थाओं को खोलने में महती भूमिका रही है। उन्होंने दयानंद जी को सच्ची श्रद्धांजलि देने के लिए शिक्षण संस्थाओं को खोला। जालंधर में काफी विरोध के बावजूद सबसे पहला लड़कियों का विद्यालय खुला, जिसमें सिर्फ 3 लड़कियों ने दाखिला लिया।
हिन्दी भाषा का प्रचार: स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिन्दी भाषा को अपनाया। उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ मूल रूप में हिन्दी भाषा में लिखा गया। उनका कहना था –“मेरी आंख तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही है, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा बोलने और समझने लग जाएंगे।” स्वामी जी धार्मिक संकीर्णता और पाखंड के विरोधी थे।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी के द्वारा लिखी गयी
10 मुख्य पुस्तकें व साहित्य
1. सत्यार्थ प्रकाश (Satyarth Prakash 1875 and 1884): स्वामी जी के द्वारा लिखी गयी यह पुस्तक सबसे प्रसिद्ध व लोगों को जागरूक करने वाली हैं। पहली बार उन्होंने इस पुस्तक की रचना सन 1875 ईस्वीं में की थी जो हिंदी भाषा में थी। इस पुस्तक को उन्होंने फिर से सही करके लिखा व दूसरा संस्करण 1884 में प्रकाशित किया। इसमें 14 अध्याय हैं जिनमें वेदों का ज्ञान, चारों आश्रम, शिक्षा व अन्य धर्मों की कुरीतियों के बारे में बताया गया हैं।
2. संस्कृत वाक्य प्रबोधः (Sanskrit Vakyaprabodhini 1879): संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार व लोगों को सिखाने के उद्देश्य से उन्होंने इस पुस्तक को लिखा। यह एक तरह से मनुष्य को संस्कृत सीखने व उसमें वार्तालाप करने के लिए प्रेरित करती है।
3. गोकरुणानिधि (GokarunaNidhi 1880): इसके लिए स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने गाय माता की रक्षा, कृषि में उनके सहयोग, उनसे मिलने वाले लाभ, गोबर, गौमूत्र इत्यादि का उपयोग आदि का इस पुस्तक में विस्तृत वर्णन किया है, ताकि समाज के लोगों में जागरूकता फैले व गौ हत्या रुके। इसी के साथ उन्होंने इस पुस्तक में अन्य जीवों को भी ना मरने व शाकाहार अपनाने की प्रेरणा दी है।
4. आर्योद्देश्य रत्न माला (AaryoddeshyaRatnaMaala 1877): इसमें उन्होंने 100 ऐसे शब्दों को समझाया है जो हिंदू साहित्य में मुख्य तौर पर प्रयोग में आते हैं।
5. ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका (RigvedAadibBhasyaBhumika 1878): यह हिंदू धर्म में वेदों के उत्थान, उनकी भूमिका व उनके उद्देश्य के बारे में बात करती है। उन्होंने इस पुस्तक में ऋग्वेद का सारा सार बताने का प्रयास किया है।
6. व्यवहारभानु (VyavaharBhanu 1879): यह मनुष्य जीवन के प्रतिदिन के व्यवहार व कार्यों से जुड़ी पुस्तक है।
7. चतुर्वेद विषय सूची (Chaturved Vishay Suchi 1971): चारों वेदों पर लिखने से पहले उन्होंने एक पुस्तक प्रकाशित की जो उन पुस्तकों की विषय सूची थी।
8. ऋग्वेद भाष्य, यजुर्वेद भाष्य, अष्टाध्यायी भाष्य (Rigved Bhashyam 1877 to 1899, Yajurved Bhashyam 1878 to 1889 and Asthadhyayi Bhashya 1878 to 1879): इसके बाद उन्होंने वेदों पर कई पुस्तकें प्रकाशित की जिसमें उन्होंने सभी वेदों के सार, भूमिका, शिक्षा इत्यादि के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने आम जन की भाषा में वेदों को समझाने के उद्देश्य से सभी वेदों का सार हिंदी भाषा में लिखा ताकि लोग ज्यादा से ज्यादा जागरूक बनें व वेदों को जानें।
9. भागवत खंडन/ पाखंड खंडन/ वैष्णवमत खंडन (Bhagwat Khandnam/ Paakhand Khandan/ Vaishnavmat Khandan 1866): यह पुस्तक उन्होंने हिंदू धर्म में फैले विभिन्न प्रकार के पाखंड, कुरीतियों व प्रपंच के विरोध स्वरूप में लिखी। इसमें उन्होंने कई प्रकार की कुरीतियों व उनके दुष्प्रभावों के बारे में लोगों को बताया। इस पुस्तक को उन्होंने कुंभ मेले में भी लोगों के बीच बंटवाया।
10. पञ्च महायजना विधि (Panchmahayajya Vidhi 1874 and 1877): इस पुस्तक में उन्होंने पृथ्वी के सभी अनमोल रत्नों जैसे कि भूमि, आकाश, वायु, जल इत्यादि को सुरक्षित व स्वच्छ रखने व विभिन्न जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों को उचित सम्मान देने व उनकी हत्या न करने की प्रेरणा दी है।
हत्या के षड्यन्त्र
आर्य समाज के लेखक एवं अध्येता श्री राम भगत शर्मा के अनुसार स्वामी जी को विभिन्न आंदोलन चलाने और अंग्रेजों से जमकर लौहा लेने के कारण षड्यंत्र के तहत उन्हें 17 बार जहर दिया गया। जिसे वे अपनी योग साधना से बाहर निकाल देते थे। लेकिन अंतिम बार उनको दूध में शीशा पीस कर दिया गया। ऐसा कहा जाता है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का निधन एक वेश्या के कुचक्र से हुआ। जोधपुर की एक वेश्या ने, जिसे स्वामी जी की शिक्षाओं से प्रभावित होकर राजा ने त्याग दिया था, स्वामी जी के रसोइये के माध्यम से विष मिला दूध स्वामी जी को पिला दिया गया । इसी षड्यंत्र के कारण 30 अक्टूबर 1883 ई. को दीपावली के दिन स्वामी जी का भौतिक शरीर समाप्त हो गया। लेकिन उनकी शिक्षाएँ और संदेश, उनका ‘आर्यसमाज’ आन्दोलन बीसवीं सदी के भारतीय इतिहास में एक ज्वलंत अध्याय लिख गए, जिसकी अनुगूँज आज तक सुनी जाती है।
डॉ धर्मदेव विद्यार्थी के शब्दों में वे मानव ही नहीं महामानव थे। उनके राष्ट्र, मानव कल्याण व समाजहित के लिए किए गए योगदान अमूल्य हैं। थियोसोफिकल सोसाइटी की संस्थापिका मैडम ब्लैवेट्स्की ने दयानंद सरस्वती के संदर्भ में कहा: ‘‘शंकराचार्य के बाद भारत में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जो स्वामीजी से बड़ा संस्कृतज्ञ, उनसे बड़ा दार्शनिक, उनसे बड़ा तेजस्वी वक्ता तथा कुरीतियों पर आक्रमण करने में उनसे अधिक निर्भीक रहा हो।’’
इस वर्ष 2023 में समूचा भारत उनकी 200वीं जन्म जंयती मना रहा है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी व उनके मानव कल्याण, राष्ट्र सेवा, कुरीतियों के खंडन, स्त्री सशक्तिकरण के महान कार्य सम्पूर्ण मानव जाती के लिए आजीवन प्रेरणा के स्त्रोत रहेंगे।
लेखक: डॉ. अंशुला गर्ग, सहायक प्राध्यापिका, जनसंचार विभाग, चौधरी रणबीर सिंह विश्वविद्यालय, जींद (हरियाणा)
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