पादरियों ने सबसे पहले कलकत्ता में हिंदुओं को ईसाई बनाना शुरू किया। कुछ वर्षों के बाद ईसाई बने ये लोग फिर से हिंदू धर्म में वापस आ गए। फिर इन पादरियों ने कलकत्ता छोड़कर रामपुरहाट के पास बेनागढ़िया गांव में एक मिशन की स्थापना की।
हम सब जानते हैं कि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार करने के लिए आई थी, लेकिन वह अपने साथ पादरियों को भी लाई। इन पादरियों ने सबसे पहले कलकत्ता में हिंदुओं को ईसाई बनाना शुरू किया। कुछ वर्षों के बाद ईसाई बने ये लोग फिर से हिंदू धर्म में वापस आ गए। फिर इन पादरियों ने कलकत्ता छोड़कर रामपुरहाट के पास बेनागढ़िया गांव में एक मिशन की स्थापना की। आजकल यह गांव दुमका जिले के शिकारीपाड़ा प्रखंड में है। उन दिनों यह गांव घने जंगलों से घिरा था। इस क्षेत्र में संथाल जनजाति के लोग रहते हैं। पादरियों ने संथालों से दोस्ती करनी शुरू की। धीरे-धीरे उन्होंने संथाली भाषा भी सीख ली। जब कोई पादरी किसी संथाल से उसकी भाषा में बात करता था, तो उसे लगता था कि वही उसका सगा है।
पादरियों ने संथालियों की सरलता का लाभ उठाकर इन्हें ईसाई बनाना शुरू किया। फिर पादरियों ने संथाल समाज के गुरु केकाराम से संपर्क बढ़ाया। उनसे संथालसमाज की हर बात की जानकारी लेकर उसे लिपिबद्ध किया। संथाली भाषा में छोटे-छोटे गीत, कथा, कहानी, पहेली आदि की रचना की गई। बाद में संथालों की सृष्टि कथा, जन्म से मरण तक का संस्कार, पर्व-त्योहार, देवी-देवता आदि के बारे में लिखा। इसमें फादर स्क्रैपरूड और फादर पाउल ओलाप बोडिंग का सबसे अधिक हाथ था। फादर बोडिंग ने संथाली-अंग्रेजी शब्दकोश की रचना की। सबसे पहले बेनागढ़िया मिशन में ही प्रेस शुरू किया। इसी प्रेस से 1900 में संथाली भाषा में बाईबिल प्रकाशित हुई।
‘चंगाई सभा’ भी एक तरीका है कन्वर्जन का। क्या गांव, क्या शहर सभी जगह चंगाई सभाएं हो रही हैं। उसके एजेंट पहले से ही तैयार रहते हैं। कोई लंगड़ा बन के आता है, कोई अंधा, कोई बहरा आदि। इस चंगाई सभा में कथित ईसाई पादरी पानी और तेल छिड़क कर बीमारी ठीक करने का ढोंग करता है। दुर्भाग्य से समाज के कुछ लोग इनके चक्कर में पड़ जाते हैं। इस स्थिति को बदलने की आवश्यकता है।
स्वतंत्रता के बाद पादरियों ने कन्वर्जन के लिए एक सूत्र अपनाया, उसे ‘हेन, तेन, पेन’ सूत्र कहा जाता है। हेन यानी मुर्गी। तेन संथाली भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है युवक-युवती का खुल्लम-खुल्ला संपर्क। पेन माने कलम। मुर्गी के माध्यम से उन लोगों ने जनजातियों को आर्थिक मदद दी। इसके बाद उन्हें ईसाई बना लिया। सबसे अधिक लड़कियों के लिए स्कूल खोले गए और जो लड़की उस स्कूल में गई, वह ईसाई बन गई। उसके माध्यम से हिंदू लड़कों को फंसाकर ईसाई बनाया गया। फिर शिक्षा के नाम पर भी हिंदुओं को ईसाई बनने के लिए मजबूर किया।
स्वतंत्रता के बाद पादरियों ने कन्वर्जन के लिए एक सूत्र अपनाया,
उसे ‘हेन, तेन, पेन’ सूत्र कहा जाता है।
अभी भी कन्वर्जन का यही तरीका है। मिशनरी से जुड़े लोग गांव-गांव जाते हैं और कौन युवा बेरोजगार है, उससे संपर्क करते हैं। जब वह ईसाई बन जाता है तो उसे मोटरसाइकिल और कुछ मानधन देकर समाज के अन्य लोगों को भी ईसाई बनाने के कार्य में लगा दिया जाता है। मिशनरी वाले गांव-गांव में उन लोगों से भी मिलते हैं, जिनके दो-चार बच्चे होते हैं। वे उनसे कहते हैं कि उनके एक बच्चे को मिशनरी स्कूल में मुफ्त में शिक्षा दी जाएगी।
उस बच्चे को ऐसी शिक्षा दी जाती है कि वह बाद में अपने घर वालों से ईसाई बनने की जिद करने लगता है। बीमारी ठीक करने की आड़ में भी कन्वर्जन किया जाता है। मिशनरी के लोग किसी बीमार व्यक्ति को ईसा मसीह के नाम से दवाई खाने के लिए कहते हैं और रोज उसके घर पर प्रार्थना करते हैं। वह बीमार व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है तब उसको कहा जाता है कि तुम ईसा मसीह के कारण ही ठीक हुए हो। उसके बाद पूरा परिवार ईसाई बन जाता है।
‘चंगाई सभा’ भी एक तरीका है कन्वर्जन का। क्या गांव, क्या शहर सभी जगह चंगाई सभाएं हो रही हैं। उसके एजेंट पहले से ही तैयार रहते हैं। कोई लंगड़ा बन के आता है, कोई अंधा, कोई बहरा आदि। इस चंगाई सभा में कथित ईसाई पादरी पानी और तेल छिड़क कर बीमारी ठीक करने का ढोंग करता है। दुर्भाग्य से समाज के कुछ लोग इनके चक्कर में पड़ जाते हैं। इस स्थिति को बदलने की आवश्यकता है।
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