फ्रांस दंगा: आज फ्रांस, कल यूरोप!
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फ्रांस दंगा: आज फ्रांस, कल यूरोप!

फ्रांस और यूरोपीय देशों ने लोकतंत्र, साम्प्रदायिक सौहार्द के नाम पर मुसलमानों को शरण दी, वही आज फ्रांस को जला रहे हैं। दंगों की आंच यूरोपीय देशों तक पहुंच चुकी है। आखिर कोई देश इसे कब तक बर्दाश्त करेगा?

by पाञ्चजन्य ब्यूरो
Jul 10, 2023, 09:38 am IST
in विश्व, विश्लेषण
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आज भी पश्चिम, खास तौर पर यूरोप, इन दंगाइयों के बारे में यही जानता है कि वे फ्रांसीसी निम्न वर्ग के निराश युवा, मुस्लिम प्रवासी और उनके बच्चे हैं, जो पेरिस के अंधकारमय, बदसूरत, बाहरी उपनगरीय इलाकों में, जिन्हें बैनलीयू कहा जाता है, रहते हैं। उस फ्रांस में, जिसकी उदार कल्याण प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि उन्हें न तो नौकरियों की आवश्यकता पड़े और न ही वे नौकरियों की मांग करें।

यूरोप के लिए यह उक्ति बहुत प्रसिद्ध थी कि ‘‘उन्हें जिहाद में कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन जिहाद को उनमें दिलचस्पी जरूर है।’’ फ्रांस में बड़े पैमाने पर शुरू हुए दंगे, जो अब बेल्जियम और स्विट्जरलैंड तक फैल गए हैं और सामाजिक-राजनीतिक तनाव के तौर पर पूरे यूरोप में अपना असर दिखा रहे हैं, इसके एक प्रत्यक्ष उदाहरण के तौर पर उभरे हैं। आज भी पश्चिम, खास तौर पर यूरोप, इन दंगाइयों के बारे में यही जानता है कि वे फ्रांसीसी निम्न वर्ग के निराश युवा, मुस्लिम प्रवासी और उनके बच्चे हैं, जो पेरिस के अंधकारमय, बदसूरत, बाहरी उपनगरीय इलाकों में, जिन्हें बैनलीयू कहा जाता है, रहते हैं। उस फ्रांस में, जिसकी उदार कल्याण प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि उन्हें न तो नौकरियों की आवश्यकता पड़े और न ही वे नौकरियों की मांग करें। इस कारण इनमें बहुत से लोग निरुद्देश्य ही रहते हैं। फ्रांस के प्रति घृणा, फ्रांस के साथ आत्मसात हो सकने का हर संभव विरोध और उनकी अपनी आपराधिक गतिविधियां भी बहुत अच्छी तरह से यह सुनिश्चित करती हैं कि निम्न वर्ग में ही बने रहें।

इनके साथ या इनके हाथों दंगे होना फ्रांस के लिए कोई नई बात नहीं रह गई है। नवंबर 2005 में फ्रांस में पेरिस के आसपास के शहरों, ल्योंस और टूलूज जैसे अन्य बड़े शहरों में दंगे हुए। मार्च 2006 में मोंटफरमील की घटनाओं में इनकी पुनरावृत्ति भी देखी गई। इसके बाद से फ्रांस में हिंसा और अराजकता में लगातार वृद्धि हुई है। फ्रांस में जनवरी 2005 से शहरी हिंसा, सड़कों पर पुलिसकर्मियों के साथ संघर्ष की 70,000 से अधिक घटनाएं घटी हैं। जेल जाने वालों में मघरेबियन और उत्तरी अफ्रीकी मूल के लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।
फ्रांस नहीं जानता है कि उसे इन दंगाइयों से आखिर किस तरह पेश आना है। अधिक से अधिक वह इनके लिए मुफ्त सुविधाओं में वृद्धि करने की बात कर पाता है। फ्रांस के राजनेता तो अब उन्हें प्रवासी, शरणार्थी या घुसपैठिए भी नहीं कहते। लेकिन जिहाद का पक्ष ऐसा है, जिसकी अनदेखी फ्रांस अब शायद ही कर पाए। पत्रकार एमी मेक लिखती हैं, ‘‘इस दुनिया में, यूरोप में, इस्लामी प्रवासी बच्चों की एक पूरी पीढ़ी ऐसी है, जिसके लिए डॉक्टर, पायलट या इंजीनियर बनने का सपना दूर की कौड़ी लगता है। इसके बजाय उनका पालन-पोषण उन लोगों का महिमामंडन करते हुए किया गया है जो पश्चिम से घृणा करते हैं, जो हरेक गैर-इस्लामिक चीज को जीतने और नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं।’’

इस्लामी कट्टरपंथ हावी

फ्रांस, यूरोप और विशाल पश्चिमी दुनिया आज जिस चीज का सामना कर रही है, वह अप्रवासियों के माध्यम से उनके समाज में कट्टरपंथी इस्लाम का प्रवेश है, जिन्हें इन देशों ने लंबे समय तक प्रोत्साहित किया। कट्टरपंथी इस्लाम आज विकसित देशों और उसके देशभक्तों द्वारा हासिल की गई प्रगति, बलिदान और समृद्धि पर हावी हो रहा है।

आप्रवासन को लंबे समय तक प्रोत्साहन देने के बाद यूरोपीय देश अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा, शांति और संतुलन के लिए कट्टरपंथी इस्लामवादियों के कारण उत्पन्न खतरों के प्रति सचेत हो गए हैं। फ्रांस सहित यूरोपीय देशों ने इन चिंताओं को दूर करने के लिए उपाय लागू किए हैं। जैसे- आतंकवाद विरोधी प्रयासों को मजबूत करना, देशों के बीच खुफिया जानकारी साझा करना, सामुदायिक जुड़ाव और संवाद को बढ़ावा देना। इस्लामिक देशों से आए अवैध अप्रवासियों के माध्यम से कट्टरपंथी इस्लाम के विकास पर पूर्ण विराम लगाने के लिए पूरे यूरोपीय संघ को अच्छे-खासे प्रयास करने होंगे — अविनाश मिश्र, फ्रांस

जब मैं पहली बार स्वीडन आया तो यह रहने के लिए सबसे अच्छी जगहों में से एक था। इसी अवधि के दौरान, स्वीडन ने सीरिया के युद्ध प्रभावित क्षेत्रों से शरणार्थियों को लेना शुरू कर दिया। अब लोग स्वीडन का नाम गलत कारणों से खबरों में देख रहे हैं। अब लोग स्वीडन को पहले जैसा महसूस नहीं करते। यूरोपीय संघ का हिस्सा होने के नाते स्वीडन के पास कभी कोई विकल्प नहीं था। वे अब यूरोपीय संघ छोड़कर इसे ठीक करना चाहते हैं, लेकिन अब किसी भी चीज के लिए बहुत देर हो चुकी है। यह लंबे समय तक वामपंथियों द्वारा शासित देश था और अब मूल लोगों से लेकर दक्षिणपंथी पार्टियों तक का समर्थन बढ़ रहा है। पिछले साल के चुनाव नतीजे लोगों में बढ़ते आक्रोश को दिखाते हैं। — प्रमोद म्हात्रे, स्टॉकहोम, स्वीडन

नाहेल की मौत और उसके बाद हुए दंगे कोई अलग घटना नहीं है। लंबे समय तक बने रहने वाले तनाव एक कष्टदायी चक्र को जन्म देते हैं। प्रत्येक मौत फ्रांसीसी ‘प्रतिबंधों’ में हिंसा की एक शृंखला शुरू कर देती है, जिसके बाद पुलिस की सख्त कार्रवाई की आवश्यकता होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह दोनों ओर से वर्चस्व की लड़ाई है।
— अभिषेक कुमार पांडेय, फ्रांस

द मिडल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट (मेमरी) ने 23 जून, 2023 को लिखा, ‘‘14 जून, 2023 को एक प्रो-इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) टेलीग्राम चैनल ने हिज्र (जिहाद छेड़ने के उद्देश्य से किया गया अप्रवास) को बढ़ावा देने और गंतव्य तक मार्ग को सुरक्षित करने संबंधी सुझाव देने वाली एक पोस्ट अरबी भाषा में प्रकाशित की है। (जो युक्तियां सुझाई गई हैं) उनमें शामिल हैं- चोरी हुए मोबाइल फोन का नंबर हासिल करना, इसे दो-चरण वाले प्रमाणीकरण के साथ उपयोग करना, धीरे-धीरे अपना हुलिया बदलना और विश्वसनीय लोगों द्वारा बताए गए ऐसे व्यक्ति से संपर्क करना, जो आगे उनका मददगार रहेगा।’’ पोस्ट में संभावित भर्तीकर्ताओं से आग्रह किया गया है कि वे इस फैसिलिटेटर का फोन नंबर याद रखें और किससे क्या बात हुई, इसके विवरण का कभी खुलासा न करें।

यूरोप तो छोड़िए, इस्राइल में भी जिहाद उभार पर है। जिहादी आतंकवादी इस्राइल में भयानक हमले कर रहे हैं। इस आशय के पुख्ता सबूत हैं कि यदि इस समय फ्रांस पर आतंकवादी हमला नहीं हुआ है, तो भी जिहादी कम से कम इसका फायदा उठाने की स्थिति में हैं। फ्रांस उद्देश्यहीन प्रवासी युवाओं से पटा पड़ा है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों दंगा भड़कने के लिए सोशल मीडिया को दोषी मानते हैं, जिसमें कुछ हद तक सच्चाई है। यहां मीडिया और सोशल मीडिया में गैंगस्टरों का महिमामंडन हुआ है। एक फिल्म है-‘क्यूटीज’, जिसमें दिखाया गया है कि उत्तरी अफ्रीकी और उप-सहारा अफ्रीकी लड़कियां दर्शकों के लिए विकृत और अश्लील ढंग से बार-बार कूल्हे मटकाने वाले नृत्य करती हैं। यह फिल्म फ्रांस में देखी गई गतिविधियों पर आधारित थी। इस तरह के मीडिया ने प्रवासियों को भावना शून्य बना दिया है। उनमें फ्रांस के नागरिकों के लिए जरा भी सहानुभूति नहीं छोड़ी है।

फ्रांसीसी सांख्यिकीय संस्थान इनसीई के अनुसार, मघरेब और उप-सहारा अफ्रीकी देशों से फ्रांस में प्रवासन कोरोना महामारी के समय लगाए गए लॉकडाउन की समाप्ति के बाद से बढ़ गया है। इसके बार चार्ट के अनुसार, 2021 तक फ्रांस की कुल आबादी में 47.5 प्रतिशत अफ्रीकी अप्रवासी हैं और यही अप्रवासियों का सबसे बड़ा समूह हैं। यदि इस आंकड़े को और बारीकी से देखा जाए, तो 29.3 प्रतिशत मघरेब से फ्रांस आए हैं। मघरेब उन उत्तरी अफ्रीकी मुस्लिम राज्यों को कहा जाता है, जो पहले फ्रांसीसी उपनिवेश थे। इनमें मोरक्को, अल्जीरिया और ट्यूनीशिया शामिल हैं। फ्रांस में सभी देशों से आए लगभग 70 लाख अप्रवासी हैं, जिनमें 25 लाख अप्रवासियों को फ्रांसीसी नागरिकता मिल चुकी है, 45 लाख प्रवासी हैं और 8 लाख गैर-अप्रवासी विदेशी नागरिक हैं।

फ्रांस नहीं जानता है कि उसे दंगाइयों से कैसे पेश आना है। अधिक से अधिक वह इनके लिए मुफ्त सुविधाओं में वृद्धि की बात करता है। राजनेता उन्हें प्रवासी, शरणार्थी या घुसपैठिए भी नहीं कहते।

यूरोपीय संघ का सवाल
2016 में ब्रिटेन का यूरोपीय संघ छोड़ने का निर्णय मुख्य रूप से अधिक राष्ट्रीय संप्रभुता, कानूनों, सीमाओं और व्यापार नीति जैसे आंतरिक मामलों पर नियंत्रण की इच्छा से प्रेरित था। लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है। द इंडिपेंडेंट ने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी और यूगॉव (YouGov) के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण को प्रकाशित किया था। इसके अनुसार, एक तिहाई ब्रिटिश मतदाताओं का मानना था कि मुसलमानों का अप्रवासन ब्रिटेन का इस्लामीकरण करने की गुप्त योजना का एक हिस्सा है। इससे पता चलता है कि जनता के एक अच्छे-खासे वर्ग की चिंता और राय इस बात को लेकर थी कि मुस्लिम अप्रवासन उन पर कैसे प्रभाव डालेगा।

ब्रिटेन में मुस्लिम अप्रवासन बड़े पैमाने पर हुआ और मुस्लिम समुदाय विशेष रूप से ग्रेटर लंदन, वेस्ट मिडलैंड्स, नॉर्थ वेस्ट, यॉर्कशायर और हंबरसाइड जैसे क्षेत्रों में केंद्रित हो गया, जहां वे आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ब्रिटिश अधिकारियों ने मुसलमानों की लगातार हो रही आमद से पैदा हुई समस्याओं को संज्ञान में भी लिया है। इसके दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं- एक, सुरक्षा का प्रश्न और दूसरा, सामाजिक एकजुटता का पहलू। वहां इस्लामी कट्टरपंथी समूहों ने ब्रिटेन के सामाजिक ताने-बाने को खतरे में डाल दिया है। हाल के वर्षों में वहां जिहादी हिंसा में वृद्धि हुई है। इस आशय की रिपोर्ट हैं कि इस्लामिक स्टेट से जुड़े आतंकवादी ब्रिटेन में बड़े हमले की साजिश रच रहे हैं।

पूरे यूरोप का संकट
ग्रूमिंग गैंग, माने मुख्यत: मुस्लिम गिरोहों द्वारा कम उम्र की लड़कियों का षड्यंत्रपूर्वक लगातार सामूहिक यौन शोषण। बहुत कुछ ‘अजमेर 92’ की तरह। अंग्रेजी के इस शब्द की उत्पत्ति ब्रिटेन में हुई और ब्रिटेन के आधा दर्जन प्रधानमंत्रियों तक ने इस पर टिप्पणी की। लेकिन उदार ब्रिटिश कानूनों के कारण कोई खास कार्रवाई नहीं हुई। यूरोप के मुस्लिम संकट का यह एक पहलू है। ब्रिटेन के साथ ही नॉर्वे, स्वीडन और डेनमार्क में मुख्य रूप से मुसलमानों के ग्रूमिंग गिरोह कमजोर किशोरों को विभिन्न प्रकार के शोषण, यौन उत्पीड़न और मानव तस्करी तक का शिकार बनाते हैं। स्वीडन ने क्रिसमस पर रोशनी करने पर प्रतिबंध लगा दिया है, ताकि मुस्लिम शरणार्थियों को उग्र होने से रोका जा सके।

अंग्रेजी के शब्द ‘ग्रूमिंग गैंग’ की उत्पत्ति ब्रिटेन में हुई। ब्रिटेन के आधा दर्जन प्रधानमंत्रियों तक ने इस पर टिप्पणी की, लेकिन उदार ब्रिटिश कानूनों के कारण कोई खास कार्रवाई नहीं हुई।

ब्रिटेन की यूके इंडिपेंडेंस पार्टी की स्थापना करने वाले राजनेता निगेल फराज, जो यूरोपीय संघ छोड़ने के लिए ब्रिटेन के वोट के पीछे के मास्टरमाइंड थे, ने कहा है, ‘‘इस्लामवाद के बारे में चिंता यह है कि जो लोग ब्रिटेन में इस्लाम को मानते हैं, वे ब्रिटेन की संस्कृति को स्वीकार नहीं करते हैं, ब्रिटेन के कानून को स्वीकार नहीं करते हैं। वे मेजबान देश पर अपनी विश्व दृष्टि थोपना चाहते हैं। यह हमें विनाश की ओर ले जाएगा। यह नहीं चलेगा। मैं बहुत स्पष्ट हूं कि मैं मजहब के खिलाफ नहीं हूं, मैं इस्लाम के खिलाफ नहीं हूं। …यहां आए कुछ लोगों के साथ एक विशेष समस्या है। जो मुस्लिम मजहब के हैं, जो हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं बनना चाहते हैं। हमारे इतिहास में ब्रिटेन में आने वाले किसी प्रवासी समूह का ऐसा कोई पिछला अनुभव नहीं है, जो मूल रूप से यह बदलना चाहता हो कि हम कौन हैं और हम क्या हैं।’’

यह बात भी सामने आई है कि हाल के वर्षों में युवा (अधिकांशत: सिर्फ) पुरुष प्रवासियों की भारी आमद के कारण यूरोपीय संघ में अब स्वीडन में प्रति व्यक्ति बलात्कार की दर सबसे अधिक है। अप्रवासी मुस्लिमों द्वारा पैदा की जाने वाली मुश्किलों से जर्मन समाज को भी परेशानी हो रही है। मुसलमानों को इतालवी में समाहित कर सकने में कठिनाई के कारण इटली में एक दक्षिणपंथी गठबंधन उभरा है, जो कट्टरवाद से निपटने के लिए सख्त कदम उठाने का आह्वान कर रहा है। कारण फिर वही है- मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका से बिना दस्तावेज वाले प्रवासी भूमध्य सागर पार करके इटली और यूरोप के अन्य हिस्सों में प्रवेश कर रहे हैं।

यह वही स्वीडन है, जो ऐतिहासिक रूप से शरणार्थियों को शरण प्रदान करता रहा है। 2015 में सीरिया, इराक और अफगानिस्तान से स्वीडन में शरण के लिए 1,62,877 आवेदन प्राप्त हुए। जैसे-जैसे शरणार्थी बढ़ते गए, स्वीडन में बमबारी, बलात्कार और सामूहिक हिंसा सहित सभी तरह के हिंसक अपराधों में वृद्धि भी होती गई। 2019 में स्वीडन में 100 से अधिक बम विस्फोट हुए, जो 2018 से दोगुना है।
वहीं, आतंकवाद के खतरे को भांपते हुए ब्रिटिश अधिकारियों ने शरणार्थी होने का दावा करने वाले कुछ लोगों को रवांडा वापस भेज दिया, जबकि यूरोपीय संघ में आप्रवासन और सुरक्षा की चुनौतियों के बारे में निरंतर चर्चा चल रही है।

हाल ही में अप्रवासियों को ग्रीस ले जा रही एक नाव समुद्र में पलट गई थी, जिसमें लगभग 400 पाकिस्तानियों की मौत हो गई थी। नाव में जरूरत से अधिक लोग सवार थे। मुख्य रूप से ऐसे क्षेत्रों में, जहां हिंसक गतिविधियां चल रही हैं या किसी तरह की अस्थिरता है, वहां प्रवासियों, मुख्य रूप से मुसलमानों के इस तरह लगातार आते जाने के कारण कानून और व्यवस्था बनाए रखने और एकीकरण प्रक्रिया के प्रबंधन के मुद्दे मुख्य हो गए हैं।

इसी तरह, पोलैंड की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता डोनाल्ड टस्क ने देश से ‘अपनी सीमाओं पर नियंत्रण हासिल करने’ का आह्वान करते हुए कहा है कि सरकार ने मुस्लिम देशों से कई श्रमिकों को पोलैंड आने की अनुमति दी है। टस्क ने एक वीडियो में कहा है, ‘‘हम फ्रांस में हिंसक दंगों के चौंकाने वाले दृश्य देख रहे हैं। फिर भी सरकार एक दस्तावेज तैयार कर रही है, जो सऊदी अरब, भारत, ईरान, कतर, संयुक्त अरब अमीरात, नाइजीरिया जैसे देशों से और भी अधिक नागरिकों को पोलैंड आने की अनुमति देगा।’’ हालांकि टस्क जिस सूची की बात कर रहे हैं, उसमें बहुत से अन्य देश भी शामिल हैं। यह उन देशों की सूची है, जिनके नागरिक बाकायदा वीजा लेकर पोलैंड आ सकते हैं। लेकिन दबे-छिपे शब्दों में कही गई बात, फ्रांस की स्थिति से जोड़कर कहे जाने के कारण दबी-छिपी नहीं रह गई है।

पहली प्रतिक्रिया
फ्रांस में अल्जीरियाई और मोरक्कन मूल के नाहेल मेरजौक को जिस पुलिसकर्मी ने गोली मारी थी, उसके परिवार के लिए जुटाई गई धनराशि 4 जुलाई को 14.70 लाख यूरो (16 लाख डॉलर) से अधिक हो गई थी, जो नाहेल के परिवार को दिए गए दान से कहीं अधिक है। कारण सीधा सा है- अगर एक या दो दशक के बाद भी आपको फ्रांसीसी के तौर पर नहीं देखा जाता है, तो शायद एकीकृत होने का प्रयास करना होता है। लेकिन सब कुछ जलाने से उस किशोर के परिवार के प्रति सहानुभूति पैदा करवाना उल्टे और कठिन हो सकता है।

यह किशोर बिना लाइसेंस के गाड़ी चलाने (फ्रांस में गाड़ी चलाने की आयु 18 वर्ष है), बिना बीमा के गाड़ी चलाने, कई बार गाड़ी चलाते हुए कोई अपराध करने, कई बार गिरफ्तारी से इनकार करने, नकली लाइसेंस प्लेटों का उपयोग करने और मादक पदार्थों की तस्करी के लिए पहले से जाना जाता था।

वह फर्जी पोलिश नंबर प्लेट के साथ किराये की कार चला रहा था और कई बार यातायात नियमों का उल्लंघन किया था। फ्रांस में नाबालिगों को उनका दोष सिद्ध किए बिना ही छोड़ देने की नीति है। माने अगर वह किशोर पुलिस के सामने समर्पण कर देता, तो पिछले अनेक मामलों की तरह इस बार भी उसे छोड़ दिया जाता। लेकिन इस बार पुलिस अधिकारी कार के हुड पर झुका हुआ था और जब उसने गोली चलाई तो उसे पहले ही कई फीट तक घसीटा जा चुका था।

नाहेल मेरजौक को गोली मारने वाले पुलिसकर्मी के परिवार के लिए जुटाई गई धनराशि 4 जुलाई को 14.70 लाख यूरो से अधिक हो गई, जो नाहेल के परिवार को मिले दान से अधिक है।

दूसरी प्रतिक्रिया
किशोर की हत्या पर पांच दिनों की हिंसा में 935 इमारतें क्षतिग्रस्त हुई, 5,354 वाहन जलाए गए, आगजनी की 6,880 घटनाएं हुई, 41 पुलिस थानों पर हमला किया गया, 79 पुलिसकर्मी घायल हुए तब जाकर फ्रांस को विशिष्ट जीआईजीएन कमांडो की तैनाती करना पड़ी।
दंगाइयों ने फ्रांस के पेरिस, मार्सिले और ल्योन सहित अन्य शहरों में जमकर उत्पात मचाया। एप्पल, जारा स्टोर्स और शॉपिंग मॉल में लूटपाट के वीडियो के बाद, मार्सिले में वोक्सवैगन डीलरशिप को लूटने का एक और वीडियो वायरल हो गया। वीडियो में दंगाइयों को मजहबी नारे लगाते हुए देखा जा सकता है। इसी बीच, अन्य लोग शोरूम में घुसे और नई कारों को लेकर भाग गए।

पिछले वर्ष फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने जब हिजाब, कट्टरपंथी शिक्षण और प्रशिक्षण, विदेशों से मदरसों के लिए धन लेने, मस्जिदों में तकरीर पर प्रतिबंध और शिक्षण सामग्री पर सरकारी निगरानी आदि के लिए जैसे नियम बनाए, तभी से फ्रांस सरकार से या फ्रांस से मुसलमानों की नाराजगी बढ़ने लगी थी। फ्रांस सरकार की पाबंदी और कानून मुसलमानों को पसंद नहीं आया। इसके बाद से ही गुंडागर्दी, सामूहिक हिंसा, कट्टरपंथी घटनाएं बढ़ती गई। प्रेक्षकों का कहना है कि चूंकि आम फ्रांसीसी इन कानूनों-नियमों के पक्ष में था और उसे इन नए नियमों में कुछ भी गलत नहीं आता था, इसलिए मुस्लिम थिंक टैंक को अहसास हुआ कि अगर उन्होंने इसका विरोध किया, तो वे इस आशंका को साबित कर देंगे कि वे हिंसक, विभाजनकारी, विनाशकारी शिक्षाओं और कार्यों का समर्थन करते हैं।

फ्रांस में जिहादी उत्पात

16 अक्तूबर, 2020: अभिव्यक्ति की आजादी के तहत कक्षा में मुहम्मद का कार्टून दिखाने पर पेरिस में इतिहास के शिक्षक सैमुअल पैटी का सिर काटा। हमलावर 18 वर्षीय चेचेन शरणार्थी अब्दुल्लाह एंजोरोव था।

25 सितंबर, 2020: पेरिस में पत्रिका शार्ली एब्दो के पुराने मुख्यालय के बाहर एक पाकिस्तानी ने दो लोगों को चाकू मारा।

मार्च 2018: दक्षिणी फ्रांस में फ्रांसीसी-मोरक्कन मूल के हमलावर ने गोलीबारी की। लोगों को बंधक बनाकर सुपरमार्केट में ले गया। पुलिस कार्रवाई में हमलावर ढेर।

1 जून, 2017: अल्जीरियाई मूल के नागरिक ने नॉट्रे डैम कैथेड्रल के सामने गश्त कर रहे पुलिसकर्मी पर हथौड़े से हमला किया। हमलावर ने इस्लामिक स्टेट के प्रति निष्ठा जताई।

20 अप्रैल, 2017: आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट के एक आतंकी ने पेरिस के चैंप्स-एलिसीज पर एक पुलिस अधिकारी की गोली मारकर हत्या कर दी।

18 मार्च, 2017: एक इस्लामी कट्टरपंथी ने एयर गन से एक पुलिस अधिकारी को घायल किया, पेरिस के ओर्ली हवाईअड्डे पर सैनिकों पर हमला किया। फिर अल्लाह के नाम कुर्बान होने की बात कही।

3 फरवरी, 2017: मिस्र के एक मुस्लिम ने अल्लाह-हू-अकबर के नारे लगाते हुए पेरिस के लूव्र संग्रहालय की सुरक्षा में तैनात फ्रांसीसी सैनिकों पर चाकू से हमला किया।

26 जुलाई, 2016: 19 वर्षीय दो इस्लामी कट्टरपंथियों ने चर्च में प्रार्थना कर रहे 85 वर्षीय पादरी जैक्स हामेल की गला रेत कर हत्या कर दी।

14 जुलाई, 2016: नीस में एक व्यक्ति ने बैस्टिल डे मना रहे लोगों पर ट्रक चढ़ा दिया, जिसमें 86 लोग मारे गए। इस्लामिक स्टेट ने हत्या की जिम्मेदारी ली।

13 नवंबर, 2015: आईएसआईएस केआतंकियों ने बाटाक्लान कंसर्ट हॉल, फ्रांस के राष्ट्रीय खेल स्टेडियम और पेरिस के अन्य स्थलों पर हमला कर 130 लोगों की जान ली।

7-9 जनवरी, 2015: मुहम्मद का कार्टून छापने पर शार्ली एब्दो के पेरिस कार्यालयों और किराना दुकान पर हुए हमलों में 17 लोग मारे गए। हमले की जिम्मेदारी अल-कायदा ने ली।

मार्च 2012: दक्षिणी फ्रांस के तालोसे शहर में अल-कायदा के आतंकी ने तीन यहूदी बच्चों, एक रबाई और तीन पैराट्रूपर्स की हत्या कर दी।

2 नवंबर, 2011: शार्ली एब्दो द्वारा पत्रिका के आवरण पर मुहम्मद का कार्टून छापने पर पेरिस स्थित के उसके कार्यालयों में आगजनी की गई।

उदार लोकतंत्रों में इस्लामवाद और वामपंथ
फ्रांस में इस तरह की प्रतिक्रिया अप्रत्याशित नहीं थी। दंगे शुरू होते ही ‘अल्ला-हू-अकबर’ के नारों के बीच इस्लामवादियों ने वाहनों में आग लगा दी। इस बीच, एक मौलवी शेख अबू तकी अल-दीन अलदारी का वीडियो वायरल हुआ, जिसमें वह कह रहा था, ‘‘जिहाद के जरिए फ्रांस एक इस्लामिक देश बन जाएगा और पूरी दुनिया इस्लामी शासन के अधीन होगी। फ्रांसीसियो! इस्लाम में कन्वर्ट हो जाओ, नहीं तो जजिया का भुगतान करने के लिए मजबूर किए जाओगे।’’ मेमरी टीवी द्वारा अनुवादित वीडियो में कहा गया है, ‘‘ऐसा कहा जाता है कि 2050 में फ्रांस में मुसलमानों की संख्या फ्रांसीसियों से अधिक हो जाएगी। लेकिन हम फ्रांस को इस्लामिक देश बनाने के लिए इन आंकड़ों पर भरोसा नहीं कर रहे हैं। हम जिस पर भरोसा कर रहे हैं वह यह है कि मुसलमानों के पास एक ऐसा देश होना चाहिए जो अल्लाह की खातिर जिहाद के माध्यम से इस्लाम को अपना मार्गदर्शन, अपना प्रकाश, अपना संदेश और अपनी दया (पश्चिम के) लोगों तक पहुंचाए।’’

प्रेक्षकों का मानना है कि इस्लामवादियों ने उदारवादियों को अपने पक्ष में लाने तथा लड़ने के लिए लोकतंत्र व मानवाधिकार को मुद्दा बनाने के लिए मौके की प्रतीक्षा की। पुलिस की गोली से अल्जीरियाई-मोरक्कन मूल के 17 वर्षीय मुस्लिम किशोर की मौत की घटना से उन्हें यह अवसर मिल गया। इसे आसानी से नस्लवाद, इस्लामोफोबिया, मानवाधिकार उल्लंघन का मुद्दा बनाया जा सकता था। मामले को इस तरह से प्रस्तुत करने पर वामपंथियों, उदारवादियों के लिए अपरिहार्य हो गया कि वे एक किशोर शरणार्थी मुसलमान के समर्थन में खड़े हों। फिर इसे गरीब, आप्रवासी, हाशिए पर रहने वाले मुसलमानों के खिलाफ पुलिस की बर्बरता का मामला भी बना दिया गया।

प्रेक्षकों का मानना है कि इस्लामवादियों ने उदारवादियों को अपने पक्ष में लाने, लड़ने के लिए लोकतंत्र और मानवाधिकार को मुद्दा बनाने के लिए मौके की प्रतीक्षा की, जो नाहेल की मौत से मिल गई।

‘‘बहुसंस्कृतिवाद चरमपंथी विचारधारा को बढ़ावा दे रहा है और घरेलू इस्लामी आतंकवाद में सीधे योगदान दे रहा है।’’
-डेविड कैमरन, पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री 

अमेरिका में यह प्रयोग सफल रहा था, जब ब्लैक लाइफ मैटर आंदोलन कर इन्होंने डोनाल्ड ट्रंप को सत्ता से हटाया था। अब निशाने पर मैक्रों थे। इसलिए उन्हें सबक सिखाना और पद से हटाना इन दंगों का एक सह-उद्देश्य बन गया। वर्षों से बड़ी संख्या में अवैध इस्लामी अप्रवासी फ्रांस की सीमाओं के पार आ रहे हैं और कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था, क्योंकि इससे ‘अल्पसंख्यकों’ की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती थी।

युद्धग्रस्त देशों से आए शरणार्थियों के बहाने पश्चिमी सभ्यता में प्रवेश करने वाला बहुसंस्कृतिवाद अब अपनी विकृतियों को पेश कर रहा है। फ्रांस में एक वीडियो में दंगाई भीड़ को मार्सिले शहर में आगजनी करके सबसे बड़े सार्वजनिक पुस्तकालय को नष्ट करते हुए दिखाया गया है। ठीक उसी तरह, जैसे 1193 में बख्तियार खिलजी ने भारत के ज्ञान, संस्कृति और विरासत के समृद्ध प्रतीक और विश्व के सबसे पुराने विश्वविद्यालय, नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया था।

पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने कहा था- ‘‘बहुसंस्कृतिवाद चरमपंथी विचारधारा को बढ़ावा दे रहा है और घरेलू इस्लामी आतंकवाद में सीधे योगदान दे रहा है।’’ जुलाई 2005 में लंदन में जिन आत्मघाती बम विस्फोटों में 52 लोग मारे गए थे और 700 लोग घायल हो गए थे, उसके संबंध में एक ब्रिटिश सर्वेक्षण में लगभग छह प्रतिशत मुस्लिमों ने बमबारी को उचित ठहराया था, जबकि अन्य 24 प्रतिशत ने हत्यारों के प्रति सहानुभूति व्यक्त की थी। 16 प्रतिशत ने ब्रिटेन के प्रति कोई वफादारी नहीं होने की बात कही थी।
अब निशाने पर फ्रांस है, लेकिन यह हमला सिर्फ फ्रांस तक ही सीमित नहीं है। अगले डेढ़-दो दशक में ब्रिटेन में भी यही होगा। बाकी यूरोप भी बहुत दूर नहीं है और यूरोपीय संघ के अति उदार नियमों से बाहर निकलने के लिए कई देश यूरोपीय संघ से बाहर निकलने पर विचार कर रहे हैं।

फ्रांस दंगा: वामपंथी – इस्लामी गठजोड़ और फ्रांसीसी मीडिया

फ्रांस के राष्ट्रपति राष्ट्पति इमैनुएल मैक्रों ने सोशल मीडिया, सिटीजन पत्रकारिता, न्यू मीडिया आदि पर सख्ती का हर संभव प्रयास किया, लेकिन उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिल सकी। हिंसा और विनाश की खबरें भले ही धीरे-धीरे चल रही हों, लेकिन लोगों तक पहुंच रही हैं। विडंबना यह है कि फ्रांस का परंपरागत मीडिया अपने ‘वोकिज्म’ के मोह में हमलावर बर्बर लोगों का पक्ष ले रहा है।
फ्रांस के मीडिया में फ्रांसीसियों का इस बात के लिए मजाक बनाया जा रहा है कि वे यहां आकर बसने वालों का पर्याप्त स्वागत नहीं कर सके। हालांकि जब नए आए सीरियाई ‘शरणार्थी’ अब्दल मसीह ने खेल के मैदान पर तीन साल के चार बच्चों को चाकू मार दिया, तो न तो इस पर कोई विरोध प्रदर्शन हुआ, न कोई दंगा हुआ, न कोई प्रतिक्रिया हुई और न ही मीडिया में इसे कवरेज मिला। इस हमले का वीडियो इंटरनेट से खोज कर निकालना पड़ा।

मीडिया के इस तरह के व्यवहार के पीछे वही वामपंथी-इस्लामी गठबंधन देखा जा रहा है और वामपंथियों की इस प्रकार की भूमिका के कारण ही यह संदेह भी जोर पकड़ रहा है कि इन दंगों के पीछे मुख्य साजिश सिर्फ राष्ट्पति मैक्रों के लिए परेशानी पैदा करने की है। वामपंथी-इस्लामी गठबंधन समर्थक मीडिया ने पूरे फ्रांस को आग में झोंक दिया है। फ्रांस में देशव्यापी दंगों की शुरुआत ही 17 वर्षीय मुस्लिम किशोर को पुलिस द्वारा गोली मारे जाने की घटना के वीडियो प्रसार से हुई थी।

न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘फ्रांसीसी समाचार मीडिया ने अज्ञात पुलिस सूत्रों के हवाले से शुरू में रिपोर्ट दी थी कि पीले रंग की मर्सिडीज चला रहे किशोर ने पुलिस अधिकारियों पर हमला कर दिया था, जिससे उनमें से एक को गोली मारनी पड़ी।’’ हालांकि यह वीडियो जल्द ही ट्विटर पर आ गया, तो वह पुलिस के समर्थन में प्रतीत हो रही कहानी का खंडन करता लगा। वीडियो में दिखा कि किशोर को दो पुलिस अधिकारियों ने रोका, जिनमें से एक ने बंदूक तान रखी थी। जैसे ही किशोर ने गाड़ी भगाने की कोशिश की, धमाका हुआ। फिर एक अधिकारी दिन के उजाले में बहुत करीब से गोली मारता हुआ दिखाई दिया।

फ्रांस में मुस्लिम प्रवासी और उनके वामपंथी साथियों ने तुरंत इस तर्क को हवा दे दी कि फ्रांस की कानून प्रवर्तन एजेंसियों के भीतर नस्लवाद गहरी जड़ें जमाए हुए है, जो विशेष रूप से फ्रांस के गरीब शहरी उपनगरों में काले लोगों और अरब मूल के अप्रवासियों को निशाना बनाता है। इसके बाद ठीक उसी तरीके से दंगे शुरू हो गए, जिस तरह जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद ब्लैक लाइव मैटर्स के नाम से अमेरिका में हुए थे। हालांकि उनका लक्ष्य राज्य को अस्थिर करना और बहुत नियोजित ढंग से उसे संचालित करना था।

कट्टरपंथी अप्रवासियों ने अपने तौर-तरीकों को अपने मेजबान, शरणदाता देशों पर लागू करने का प्रयास किया है, जो अधिकांशत: उस देश के संवैधानिक सिद्धांतों और नागरिक समाज के नैतिक रूप से समृद्ध मूल्यों के ठीक विपरीत होते हैं। मुस्लिम अप्रवासियों द्वारा धीरे-धीरे थोपे जाने वाले इस्लाम से केवल उन लोगों को आश्चर्य हो सकता है, जो समलैंगिकों के लिए मौत की सजा, स्कूलों और कॉलेजों में दीनी तालीम, नमाज के लिए सड़कों को बंद कराने, महिला का जबरन खतना करना, व्यभिचार के आरोप में पत्थर मार कर महिलाओं कर जान लेने जैसी कुप्रथाओं, तीन तलाक, पुनर्विवाह के लिए हलाला की अनुमति देने सहित महिलाओं पर कई तरह के प्रतिबंध लगाना और यहां तक कि आनर किलिंग जैसी वारदातों के प्रति आंखें मूंदे रखना पसंद करते हैं।

सीधा प्रश्न है- कोई भी उदार लोकतंत्र, सांप्रदायिक सौहार्द के नाम पर, अपने समाज के सेकुलर और स्वदेशी दृष्टिकोण से, अपने मौलिक सिद्धांतों और मूल्यों का तबाह होते जाना, अपनी महिलाओं से, छोटी बच्चियों से बलात्कार होना, अपने यहां सरेआम हत्याएं होने देना, आखिर कब तक बर्दाश्त कर सकेगा? आज यह सवाल फ्रांस, स्वीडन और बाकी देशों के सामने हैं, लेकिन शेष यूरोप और भला भारत भी इससे कितना दूर है?

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