हमारे धर्म शास्त्रों के विभिन्न उद्धरण यह तथ्य प्रतिपादित करते हैं कि पुण्यभूमि भारत में भक्तों की श्रद्धा भगवान को विविध रूपों में स्थापित करती है। ‘विट्ठल पांडुरंग’ के प्रति लोकश्रद्धा जितनी गहरी है, उनके इस रूप स्वरूप की कथा भी उतनी ही अलौकिक है।
आध्यात्मिकता भारत की सनातन संस्कृति का प्राणतत्व है। हमारे धर्म शास्त्रों के विभिन्न उद्धरण यह तथ्य प्रतिपादित करते हैं कि पुण्यभूमि भारत में भक्तों की श्रद्धा भगवान को विविध रूपों में स्थापित करती है। ‘विट्ठल पांडुरंग’ के प्रति लोकश्रद्धा जितनी गहरी है, उनके इस रूप स्वरूप की कथा भी उतनी ही अलौकिक है। कथा कहती है कि छठी सदी में श्री हरि के पुंडलिक नाम के एक परम भक्त हुए थे। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर आराध्य उनके द्वार पर आये और उन्हें स्नेह से पुकार कर बोला, ‘हम तुम्हारा आतिथ्य ग्रहण करने आए हैं पुंडलिक।’ यह सुनकर पुंडलिक ने, जो उस वक्त अपने पिता के पैर दबा रहे थे और उनकी पीठ द्वार की ओर थी, कहा- ’प्रभु! इस समय मेरे पिताजी शयन कर रहे हैं, इसलिए अभी मैं आपका स्वागत करने में सक्षम नहीं हूं। आपको प्रात:काल तक प्रतीक्षा करनी होगी। आप इस ईंट पर खड़े होकर प्रतीक्षा करें। यह कह कर वे प्रभु की ओर एक ईंट सरका कर पुनः पिता की सेवा में लीन हो गये।
भगवान ने भक्त की आज्ञा का पालन किया और कमर पर दोनों हाथ रखकर और पैरों को जोड़कर ईंटों पर खड़े हो गये। प्रातः पिता की नींद खुलने के बाद पुंडलिक ने द्वार की ओर देखा परंतु तब तक प्रभु मूर्ति का रूप ले चुके थे। पुंडलिक ने अपने आराध्य के उसी श्याम वर्ण मूर्ति स्वरूप की विधिवत पूजा उपासना कर अपने घर में स्थापित किया। चूंकि महाराष्ट्र में ईंट को ‘विठ’ या ‘विठो’ तथा श्याम वर्ण को पांडुरंग के नाम से जाना जाता है; इसलिए ईंट पर खड़े होने के कारण उनका वह श्यामल स्वरूप कालांतर में ‘विट्ठल पांडुरंग’ के नाम से तथा वह पुण्यभूमि उनके परम प्रिय पुंडलिक के नाम पर पुंडलिकपुर (अपभ्रंश रूप में पंढरपुर) के रूप में महाराष्ट्र के सिद्धतीर्थ के रूप में लोकप्रिय हो गयी।
इन्हें कहा जाता है वारकरी
महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में भीमा नदी के तट पर बसे इस पंढरपुर तीर्थ पर देवशयनी एकादशी पर पालकी महायात्रा का आयोजन किया जाता है। इस पालकी यात्रा की शुरुआत महाराष्ट्र के प्रमुख संतों ने की थी। महाराष्ट्र की इस महान संत परम्परा में संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, रामदास, चोखामेला, सावता माली, गोरा कुम्हार, राका महार, नरहरि सुनार, सेन महाराज, जनाबाई, मुक्ताबाई, बहिणाबाई, भानुदास, विसोबा खेचर, कान्होपात्रा तथा बंका आदि का नाम प्रमुखता से शामिल है।
इन संतों के अनुयायियों को ‘वारकरी’ कहा जाता है। वारकरी मत को मानने वाले विट्ठल-विट्ठल कहकर कृष्ण भक्ति के भजन गाकर, नृत्य करने में लीन रहते हैं। ये श्रीकृष्ण उपासक वारकरी तुलसी की माला पहनते हैं और शुद्ध शाकाहारी होते हैं। लाखों की संख्या में नंगे पैर तीर्थयात्रा करना वारकरियों की परम्परा है। मूलतः श्रीमद्भागवत और श्रीमद्भगवद्गीता इस सम्प्रदाय के मूल उपास्य ग्रंथ हैं।
इस पंढरपुर यात्रा की मुख्य विशेषता है उसकी वारी। वारी का अर्थ है- सालों-साल से समय-समय पर लगातार यात्रा करना। इस यात्रा में हर वर्ष शामिल होने वालों को वारकरी कहा जाता है और यह सम्प्रदाय वारकरी सम्प्रदाय कहलाता है। इस वारी का जब से आरंभ हुआ है, तब से पीढ़ी दर पीढ़ी लोग हर साल वारी के लिए निकल पड़ते हैं। महाराष्ट्र में कई स्थानों पर वैष्णव संतों के निवास और उनके समाधि स्थल हैं। ऐसे स्थानों से उन संतों की पालकी वारी के लिए प्रस्थान करती है। इस वारी में बच्चे, बूढ़े, महिला, पुरुष सभी शामिल होते हैं।
भगवान ने भक्त की आज्ञा का पालन किया और कमर पर दोनों हाथ रखकर और पैरों को जोड़कर ईंटों पर खड़े हो गये। प्रातः पिता की नींद खुलने के बाद पुंडलिक ने द्वार की ओर देखा परंतु तब तक प्रभु मूर्ति का रूप ले चुके थे। पुंडलिक ने अपने आराध्य के उसी श्याम वर्ण मूर्ति स्वरूप की विधिवत पूजा उपासना कर अपने घर में स्थापित किया। चूंकि महाराष्ट्र में ईंट को ‘विठ’ या ‘विठो’ तथा श्याम वर्ण को पांडुरंग के नाम से जाना जाता है; इसलिए ईंट पर खड़े होने के कारण उनका वह श्यामल स्वरूप कालांतर में ‘विट्ठल पांडुरंग’ के नाम से तथा वह पुण्यभूमि उनके परम प्रिय पुंडलिक के नाम पर पुंडलिकपुर के रूप में महाराष्ट्र के सिद्धतीर्थ के रूप में लोकप्रिय हो गयी।
15 से 20 दिन की पैदल यात्रा
आषाढ़ की देवशयनी एकादशी के दिन पंढरपुर पहुंचने का उद्देश्य सामने रखकर, दूरी के अनुसार हर पालकी की यात्रा का कार्यक्रम तय होता है। मार्ग पर कई पालकियां एक-दूसरे से मिलती हैं और उनका एक समूह बन जाता है। वारी में दो प्रमुख पालकियां होती हैं। उनमें एक संत ज्ञानेश्वर की तथा दूसरी संत तुकाराम की होती है। 15 से 20 दिन की पैदल यात्रा कर वारकरी देवशयनी एकादशी के दिन पंढरपुर पहुंच जाते हैं। वारी में शामिल होना या वारकरी बनना यह एक परिवर्तन का आरंभ है। वारी से जुड़ने पर मनुष्य के विचारों और आचरण में परिवर्तन दिखाई देता है। वारी का उद्देश है- ईश्वर के पास पहुंचना, निकट जाना। वारी में दिन-रात भजन-कीर्तन, नाम स्मरण चलता रहता है। अपने घर की, कामकाज की, खेत की समस्याओं को पीछे छोड़कर वारकरी वारी के लिए चल पड़ते हैं, क्योंकि हर काम में वह ईश्वर के ही दर्शन करते हैं।
यात्रा को डिंडी यात्रा कहा जाता है
वर्ष में चार बार (आषाढ़, कार्तिक, चैत्र तथा माघ माह में) लाखों तीर्थयात्री यहाँ एकत्रित होते हैं। इस यात्रा के दौरान प्रमुख पालकी में संत नामदेव की पादुका रखी जाती है। इस पालकी को सफेद रंग के बैलों की जोड़ी खींचती है। यह पालकी आलंदी से प्रारम्भ होती है। इसके बाद अन्य पालकियां संतों के जन्म स्थान से पंढरपुर के लिए रवाना होती हैं। संत तुकाराम के जन्म स्थान ‘देहू’ तथा एकनाथ के जन्म स्थान ‘पैठण’ से इन वारकरी भक्तों के अलग अलग समूह निकलते हैं। इन यात्राओं को डिंडी यात्रा कहा जाता है। वारकरी भक्तों का यह समूह इस तीर्थ यात्रा के दौरान नृत्य व कीर्तन के माध्यम से संतों की कीर्तिगाथा का बखान करता हुआ पुणे तथा जेजुरी होते हुए तीर्थ नगरी पंढरपुर पहुँचता है। वारकरी भक्तों के यह पालकी देवशयनी एकादशी पर पंढरपुर पहुंच कर सर्वप्रथम पवित्र भीमा नदी में स्नान कर विठोवा का दर्शन पूजन करते हैं। पंढरपुर की इस महायात्रा को वैष्णवों के महाकुम्भ की संज्ञा दी जाती है। माना जाता है कि वारी करने की यह परंपरा 800 वर्षों से भी अधिक समय से चली आ रही है।
द्वार के समीप भक्त चोखामेला की समाधि
पंढरपुर के विठोवा मंदिर में प्रवेश करते समय द्वार के समीप भक्त चोखामेला की समाधि है। प्रथम सीढ़ी पर ही नामदेवजी की समाधि है। द्वार के एक ओर अखा भक्ति की मूर्ति है। यहां भक्तराज पुंडलिक का स्मारक भी बना हुआ है। मुख्य मंदिर के घेरे में ही रुक्मणिजी, बलरामजी, सत्यभामा, जाम्बवती तथा श्रीराधा के मंदिर हैं। पंढरपुर के अन्य सुप्रसिद्ध देवी मंदिरों में पद्मावती, अंबाबाई और लखुबाई के मंदिर सबसे प्रसिद्ध हैं। चंद्रभागा के पार श्रीवल्लभाचार्य महाप्रभु की बैठक है। यहां से तीन मील दूर एक गांव में जनाबाई का मंदिर है और वह चक्की है जिसे भगवान ने चलाया था। कहते हैं कि विजयनगर साम्राज्य के प्रसिद्ध नरेश कृष्णदेव विठोबा की मूर्ति को अपने राज्य में ले गए थे किंतु बाद में एक महाराष्ट्रीय भक्त ने विठोबा की मूर्ति को वापस लाकर पुन: यहां स्थापित कर दिया था।
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