1855 में इसी दिन भोगनाडीह (बरहेट के निकट) में हजारों संथालों ने जुल्म, शोषण और अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगूल फूंका था। इस संथाल क्रांति का नेतृत्व सिद्धो, कान्हू, चांद और भैरव नामक चार भाइयों ने किया था। इसमें इन चारों भाइयों के साथ ही हजारों लोगों ने अपना बलिदान दिया था।
झारखंड के इतिहास में 30 जून यानी हूल (क्रांति) दिवस का बहुत अधिक महत्व है। 1855 में इसी दिन भोगनाडीह (बरहेट के निकट) में हजारों संथालों ने जुल्म, शोषण और अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगूल फूंका था। इसे संथाल क्रांति के नाम से भी जाना जाता है। इसका नेतृत्व सिद्धो, कान्हू, चांद और भैरव नामक चार भाइयों ने किया था। इसमें इन चारों भाइयों के साथ ही हजारों लोगों ने अपना बलिदान दिया था।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में शायद यह इकलौता उदाहरण है, जहां एक ही मां की चार संतानों ने जन्मभूमि के लिए प्राण न्योछावर कर दिए। भले ही 1857 की क्रांति को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है, लेकिन उससे दो साल पहले ही संथालों ने महाजनों, जमींदारों और अंग्रेजोें के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। यह कोई सामान्य घटना नहीं थी, बल्कि इसमें भागलपुर, हजारीबाग से लेकर वर्तमान पश्चिम बंगाल के वीरभूम-बांकुड़ा तक के संथालों और अन्य जाति के लोगों ने भाग लिया था।
झारखंड के जनजातीय लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ हमेशा संघर्ष किया। चाहे बाबा तिलका मांझी हों, सिद्धो हों, कान्हू हों, पोटो हों या बुधू भगत हों या फिर भगवान बिरसा मुंडा। इन लोगों ने अंग्रेज सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला और देश की आजादी की लड़ाई की बुनियाद भी रखी।
1765 में शाह आलम ने बंगाल, ओडिशा और बिहार की दीवानी अंग्रेजों को दे दी। इसके बाद से इस क्षेत्र में अंग्रेजों ने जमींदारों और राजाओं के माध्यम से जमीन का ‘कर’ वसूलना आरंभ किया। जनजातियों ने जंगलों को साफ कर रहने लायक जगह बनाई थी। इनका मानना था कि जमीन के मालिक वे हैं, इसलिए लगान क्योें दें? यही विवाद का कारण बना। अंग्रेजों ने जमींदारों और महाजनों के माध्यम से जनजातियों पर जुल्म ढाना शुरू किया। इसका विरोध धालभूमगढ़ में सबसे पहले हुआ था। कोल विद्रोह, सरदारी लड़ाई, मुंडा क्रांति आदि भी जमीन, महाजनों-जमींदारों की शोषण नीति के कारण हुई थी।
भले ही संथाल क्रांति को अंग्रेजों ने ताकत के बल पर खत्म कर दिया था, लेकिन उनके आंदोलन से जो ज्वाला निकली थी, जो संदेश गया था, उसने अंग्रेजों का मनोबल तोड़ दिया था। कहा जा सकता है कि सिद्धो, कान्हू, चांद और भैरव ने अपने प्राण देकर देश को आजाद कराने की राह दिखाई थी।
1855 में संथाल क्रांति ऐसे ही नहीं हुई थी। संथालों को बहुत ज्यादा प्रताड़ित किया गया था। सहने की सीमा खत्म हो चुकी थी। 1793 में स्थायी बंदोबस्ती शुरू होने के बाद बड़ी संख्या में बाहरी महाजन, जमींदार संथाल क्षेत्र में आने लगे थे। ये लोग चालाकी से जनजातियों की जमीन पर कब्जा कर उन्हें जमीन से बेदखल कर रहे थे। महाजनों ने कर्ज देकर जमीन हड़पने का धंधा चला रखा था। संथाल महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं बढ़ती जा रही थीं।
संथालों की पारंपरिक व्यवस्था में हस्तक्षेप कर उसे तहस-नहस किया जा रहा था। प्रताड़ना से संथाल परेशान हो गए थे। शिकायत के बाद भी अंग्रेज अधिकारी कार्रवाई नहीं करते थे। उल्टे अंग्रेज अधिकारी और पुलिस महाजनों के साथ खड़ी रहती थी। संथाल कानूनी लड़ाई में फंस जाते थे और निकल नहीं पाते थे। इस कारण संथालों में यह धारणा पैठ कर गई कि जब तक ये अंग्रेज रहेंगे, उनकी समस्या का निदान नहीं होगा।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में यह इकलौता उदाहरण है, जहां एक ही मां की चार संतानों ने जन्मभूमि के लिए प्राण न्योछावर कर दिए। भले ही 1857 की क्रांति को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है, लेकिन उससे दो साल पहले ही संथालों ने महाजनों, जमींदारों और अंग्रेजोें के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। यह कोई सामान्य घटना नहीं थी, बल्कि इसमें भागलपुर, हजारीबाग से लेकर वर्तमान पश्चिम बंगाल के वीरभूम-बांकुड़ा तक के संथालों और अन्य जाति के लोगों ने भाग लिया था।
30 जून, 1855 के कुछ दिन पहले 13 जून को ही बड़ी संख्या में संथाल भोगनाडीह में जुटे थे। इस बैठक में तय हुआ था कि संथाल अब और शोषण बर्दाश्त नहीं करेंगे। ईश्वर ने सम्मान के साथ जीने और महाजनों-जमींदारों के अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने को कहा है। इस घोषणा का संथालों पर बहुत गहरा असर पड़ा और 30 जून को भोगनाडीह में लगभग 35,000 संथाल जमा हो गए। सिद्धो और कान्हू के आह्वान पर संथालों ने कोलकाता कूच करने का फैसला किया। संथाल तीर-धनुष और पारंपरिक हथियारों से लैस थे।
रास्ते में जहां कहीं भी महाजनों का घर दिखता, उस पर हमला कर देते और उसे लूट लेते थे। इसी क्रम में एक महाजन केनाराम भगत और एक दारोगा महेश लाल दत्त को भी संथालों ने मार डाला था। यह बताता है कि महाजनों और उसे बचाने वाले पुलिसकर्मियों के प्रति संथालों में कितना गुस्सा था। संथालों ने तय किया था कि स्थानीय अधिकारी बात नहीं सुन रहे हैं तो कोलकाता जाकर अधिकारियों के सामने अपनी बात रखेंगे। इसी बीच कई ऐसी घटनाएं घट गईं, जिससे संथालों का गुस्सा और भड़क गया।
दिघी का दारोगा था महेश लाल दत्त। वह गारमू मांझी, हाड़मा देशमांझी, चामजाई और लारकाई को एक घोड़े से बांध कर ले जा रहा था। दारोगा के साथ उसका प्रिय महाजन केनाराम भगत भी था। कुछ और महाजन भी उसके साथ थे। इन लोगों का सामना क्रांतिकारी संथालों से हो गया। कान्हो ने जब दारोगा से निर्दोष संथालों को ले जाने का कारण पूछा तो दारोगा ने कान्हू को ही धमकी दे डाली और कहा कि उसका भी वही हाल होगा। नाराज संथालों ने पहले दारोगा से घोड़ा छीन लिया, फिर निर्दोष संथालों की रस्सी खोल कर उन्हें रिहा कराया। नाराज लोगों ने गुस्से में पहले फरसा से महाजन केनाराम भगत का सिर काट दिया, फिर दारोगा महेश लाल दत्त को मारा। उसके बाद हूल-हूल के नारे से पूरा क्षेत्र गूंज उठा। कान्हू गरज उठे- ‘‘अब दारोगा नहीं है, महाजन भी नहीं है, सरकार भी नहीं है, हाकिम भी नहीं है, अब हमारा राज है।’’
जब संथालों की हत्या कर, गिरफ्तार कर क्रांति को अंग्रेजों ने कुचल डाला। उस सरकार ने महसूस किया कि संथालों के गुस्से को शांत करने के लिए अलग जिला बनाया जाना चाहिए। तब वीरभूम और भागलपुर संथालों के लिए संथाल परगना का गठन हुआ। संथालों को विश्वास में लेने के लिए 1856 में पुलिस बल बना, जिसमें मांझी, मंडल को पुलिस अधिकार दिए गए थे।
इस घटना की जानकारी जैसे ही अंग्रेज अधिकारियोें को मिली, उन्होंने संथाल क्रांति को कुचलने के लिए पूरी ताकत लगा दी। सेना को खुली छूट देते हुए क्रांति को दबाने में लगा दिया गया। इस काम में जमींदारों ने भी सेना की मदद की। संथालों पर जगह-जगह गोलीबारी की गई। 10,000 से ज्यादा संथाल मार दिए गए। सिद्धो को गोली लगी। बाद में कान्हू गिरफ्तार किए गए। मुकदमा चला। लगभग सभी बड़े नेताओं को फांसी पर लटका दिया गया। कान्हू ने 20 दिसंबर, 1855 को जो बयान दिया, वह सच्चाई को बताता है। उन्होंने कहा था, ‘‘दरोगा ने मुझसे कहा था कि क्या तुम डकैती के लिए लोगों को जमा कर रहे हो? मैंने कहा कि इसे साबित करके बताओ कि मैंने चोरी या डकैती की है।
यदि तुम कुछ भी साबित कर सके तो मुझे जेल में डाल देना। महाजनों ने कहा कि यदि इसका खर्च 1,000 रु. आएगा तो हम ऐसा करेंगे और तुम्हें जेल में डलवा देंगे। महाजन और दारोगा बहुत नाराज हो गए और मुझे बांधने का आदेश दिया। महाजन मेरे भाई सिद्धो को बांधने लगे। तब मैंने अपनी तलवार निकाली। उन्होंने मेरे भाई को बांधना छोड़ दिया और मैंने माणिक मुडी का सिर कलम कर दिया। सिद्धो ने दारोगा को मार डाला। मेरे जवानों ने पांच लोगों को मार डाला, जिनका नाम मैं नहीं जानता। उसके बाद हम भोगनाडीह वापस आ गए।’’ कान्हू का यह बयान बताता है कि पुलिस और महाजनों के बीच कैसी सांठगांठ होती थी। दोनों मिल कर कैसे संथालों पर जुल्म करते थे और किस परिस्थिति में दारोगा और महाजनों की हत्या हुई थी।
जब संथालों की हत्या कर, गिरफ्तार कर क्रांति को अंग्रेजों ने कुचल डाला। उसके बाद तत्कालीन सरकार ने महसूस किया कि संथालों के गुस्से को शांत करने के लिए अलग जिला बनाया जाना चाहिए। उसके बाद ही वीरभूम और भागलपुर से अलग कर संथालों के लिए संथाल परगना का गठन किया गया। संथालों को विश्वास में लेने के लिए 1856 में पुलिस बल बना, जिसमें गांव के मांझी, मंडल को पुलिस अधिकार दिए गए थे। भले ही संथाल क्रांति को अंग्रेजों ने ताकत के बल पर खत्म कर दिया था, लेकिन उनके आंदोलन से जो ज्वाला निकली थी, जो संदेश गया था, उसने अंग्रेजों का मनोबल तोड़ दिया था। कहा जा सकता है कि सिद्धो, कान्हू, चांद और भैरव ने अपने प्राण देकर देश को आजाद कराने की राह दिखाई थी। इसलिए संथाल क्रांति को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मानने की मांग होती रही है, जिस पर विचार करने की जरूरत है।
(लेखिका रांची विश्वविद्यालय में झारखंड आंदोलन की शोध छात्रा हैं)
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