हिंसा की व्यापकता को समझते हुए अमित शाह ने मणिपुर का चार दिवसीय दौरा किया और सभी समूहों से बात कर शांति की अपील की। साथ ही, हिंसा में मारे गए लोगों के परिजनों को दस-दस लाख रुपये देने की घोषणा की। घायलों के लिए भी अलग से अनुदान देने की बात कही।
मणिपुर में विगत 3 मई से रुक-रुक कर हिंसा जारी है, लेकिन अब यह आगजनी से आगे भीषण रक्तपात और जनसंहार का रूप धारण कर चुकी है। इस हिंसा में अब तक 100 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है, 300 से अधिक घायल और 37 हजार लोग विस्थापित होने को मजबूर हुए हैं। मणिपुर में यह अब तक की भीषणतम हिंसा है।
इस व्यापक हिंसा को देखते हुए प्रोफेसर पॉल रिचर्ड ब्रास द्वारा अविष्कृत शब्द ‘संस्थागत दंगा प्रणाली’ (आईआरएस- इंस्टीट्यूशनलाइज्ड रायट सिस्टम) की याद आती है। वाशिंगटन विश्वविद्यालय में राजनीति-विज्ञान के प्रोफेसर एमरेट्स पॉल आर. ब्रास ने 2004 में अपनी पुस्तक ‘द प्रोडक्शन आफ हिंदू-मुस्लिम वॉयलेंस इन कंटेम्पररी इंडिया विद द इंडियन पॉलिटिक्स’ में आईआरएस की चर्चा की है। यह शब्द दंगों की नाटकीय उत्पत्ति की व्याख्या करता है। पॉल ब्रास ने संस्थागत दंगा प्रणाली को तीन चरणों में विभाजित किया है— तैयारी, सक्रियण और स्पष्टीकरण। हालांकि प्रो. पॉल ब्रास की यह पुस्तक हिन्दू-मुस्लिम दंगों की पारिस्थितिकी पर केंद्रित है, लेकिन मणिपुर हिंसा के संदर्भ में भी यह व्याख्या मकमोबेश सटीक बैठती है।
क्योंं भड़की हिंसा?
मणिपुर में हिंसा 3 मई, 2023 को शुरू हुई और आरोह-अवरोह के साथ 15 मई, 2023 को बंद हो गई। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के मणिपुर जाने पर अचानक यह हिंसा पुन: कैसे भड़क जाती है? कौन-सी संस्थाएं, समूह या व्यक्ति हिंसा को हवा दे रहे हैं? यह हिंसा अनायास तो नहीं है। कारण क्या है? यदि मणिपुर में आईआरएस सिद्धांत काम नहीं कर रहा है तो मध्य मई में शांत हुई हिंसा केंद्रीय गृह मंत्री के आगमन की खबर से पुन: शुरू कैसे हो जाती है? भारतीय सेना तक पर हमले कैसे होने लगते हैं? कुछ लोगों का मानना है कि हिंसा रोकने में मणिपुर की एन. बीरेन सिंह सरकार असफल रही, इसलिए केंद्र सरकार कानून व्यवस्था के पर्यवेक्षण की भूमिका में आ गई।
हिंसा के कई कारण हैं। पहला, एक पक्ष की भूमि पर नियंत्रण और दूसरे पक्ष की फैलाव की चाहत, दूसरा है ईसाई मिशनरियों द्वारा कुकी समुदाय के बीच मैतेई के विरुद्ध भ्रम फैलाना, तीसरा कारण है नशा कारोबार और आतंकी गठजोड़ पर सख्ती और चौथा कारण है कन्वर्जन
हिंसा की व्यापकता को समझते हुए अमित शाह ने मणिपुर का चार दिवसीय दौरा किया और सभी समूहों से बात कर शांति की अपील की। साथ ही, हिंसा में मारे गए लोगों के परिजनों को दस-दस लाख रुपये देने की घोषणा की। घायलों के लिए भी अलग से अनुदान देने की बात कही। केन्द्रीय गृह मंत्री ने इस हिंसा के षड्यंत्र का पर्दाफाश करने के लिए उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में न्यायिक आयोग बनाकर जांच कराने की घोषणा की तथा 6 विशेष एफआईआर की जांच सीबीआई से कराने को भी मंजूरी दी। राज्य में सुरक्षा की स्थिति पर सख्त टिपण्णी करते हुए उन्होंने मणिपुर उच्च न्यायालय द्वारा जल्दबाजी में लिए गए निर्णय और उससे उपजी गलतफहमी को जिम्मेदार ठहराया तथा लोगों से हथियार पुलिस को सौंपने की भी अपील की।
गृह मंत्री ने केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक कुलदीप सिंह के नेतृत्व में एकीकृत सुरक्षा तंत्र बनाने की बात कही और साथ ही विद्रोही समूहों को सख्त हिदायत भी दी कि यदि ‘सस्पेंशन आफ आपरेशन’ समझौते का उल्लंघन हुआ तो भारत सरकार भी कठोर कारर्वाई करने को बाध्य होगी।
दरअसल, भारत सरकार ने मणिपुर के 25 कुकी विद्रोही समूहों के साथ 22 अगस्त, 2008 को एक समझौता किया था, जिसके तहत सैन्य करवाई के निलंबन की बात कही गई है। केंद्र सरकार मणिपुर की हिंसा को गंभीरता से ले रही है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य में 10,000 सैन्यबल की तैनाती के साथ विस्थापितों की सहायता के लिए 101.75 करोड़ रुपये का राहत पैकेज मंजूर किया है।
क्या है विवाद
वर्तमान विवाद यह है कि मैतेई जनजातीय संघ की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश एम. मुरलीधरन ने राज्य सरकार को 19 अप्रैल को केन्द्र के जनजातीय मामलों के मंत्रालय की दस वर्ष से लंबित सिफारिश पेश करने को कहा। इस सिफारिश में मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने के लिए कहा गया था। उच्च न्यायालय ने मई 2013 के जनजातीय मामलों के केंद्रीय मंत्रालय के एक पत्र को उद्दृत किया। इस पत्र में मणिपुर सरकार से सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण के साथ जातीय रिपोर्ट प्रस्तुत के लिए कहा गया था।
शेड्यूल ट्राइब डिमांड कमिटी आफ मणिपुर यानी एसटीडीसीएम 2012 से ही मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने की मांग कर रही थी। याचिकाकर्ताओं ने उच्च न्यायालय में बताया कि 1949 में मणिपुर का भारतीय संघ में विलय हुआ, उससे पहले मैतेई को यहां जनजाति का दर्जा मिला हुआ था। इनकी दलील थी कि मैतेई को जनजाति का दर्जा देना इस समुदाय, उसके पूर्वजों की जमीन, परंपरा, संस्कृति और भाषा की रक्षा के लिए आवश्यक है।
एसटीडीसीएम ने यह भी कहा था कि मैतेई को म्यांमार सीमा से आए अवैध घुसपैठियों के अतिक्रमण से बचाने के लिए संवैधानिक कवच की आवश्यकता है। लेकिन मैतेई को पहाड़ों से अलग किया जा रहा है, जबकि जिन्हें जनजाति का दर्जा मिला हुआ है, वे सिकुड़ती हुई इम्फाल घाटी में जमीन खरीद सकते हैं। अपनी याचिका में मैतेई जनजाति संघ ने तर्कदिया था कि 21 सितंबर, 1949 को भारतीय संघ के साथ विलय समझौते के निष्पादन से पहले मैतेई समुदाय की स्थिति ‘मणिपुर की जनजातियों के बीच एक जनजाति’ की थी।
भारतीय संघ के साथ एक स्वतंत्र राज्य का विलय करते समय मैतेई समुदाय ने एक जनजाति की पहचान खो दी, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत भारत की अनुसूचित जनजातियों की सूची तैयार करने के दौरान इस समुदाय को छोड़ दिया गया था। इसलिए ‘‘मैतेई को मणिपुर की जनजातियों के बीच एक जनजाति के रूप में शामिल किया जाना चाहिए ताकि उक्त समुदाय को संरक्षित किया जा सके और पैतृक भूमि, परंपरा, संस्कृति और भाषा को बचाया जा सके।’’
कुकी समेत अन्य 34 जनजाति समुदायों के मन में ईसाई मिशनरियों ने यह बात बैठाई है कि मैतेई पहले से ही साधन संपन्न हैं और यदि इन्हें जनजातीय दर्जा मिल गया तो वे पहाड़ी भूमि, सरकारी नौकरी सहित अन्य सुविधाएं भी हड़प लेंगे।
जनसंख्या और भूमि में असंतुलन के कारण मैतेई समुदाय ने जनजाति श्रेणी की मांग की, जिसे उच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया। इसी के विरोध में कुकी-नागा समेत 34 जनजातीय समूहों ने हिंसक प्रदर्शन किया जिससे हिंसा भड़क उठी। वर्तमान में यह हिंसा मुख्यत: कुकी और मैतेई समुदायों के बीच केंद्रित है।
झगड़े की जड़ में चर्च
मणिपुर हिंसा के कई कारण हैं। पहला, एक पक्ष का भूमि पर नियंत्रण और दूसरे पक्ष की फैलाव की चाहत, दूसरा ईसाई मिशनरियों द्वारा कुकी समुदाय के बीच मैतेई के विरुद्ध भ्रम फैलाना, तीसरा नशा कारोबार और आतंकी गठजोड़ पर सख्ती, और चौथा कारण है, कन्वर्जन।
मैतेई प्रदेश की कुल जनसंख्या का 53 प्रतिशत हैं, लेकिन इनके पास महज 10 प्रतिशत बसावट भूमि है। ये मुख्यतया इम्फाल के घाटी क्षेत्रों में रहते हैं। वहीं, कुकी समुदाय की जनसंख्या 16 प्रतिशत है, जबकि इसके लिए 90 प्रतिशत पर्वतीय क्षेत्र संरक्षित हैं। कुकी-जोमी समुदाय किसी भी कीमत पर पर्वतीय क्षेत्रों के अपने एकाधिकार को छोड़ना नहीं चाहता है। कुकी समुदाय का हिंसा और रक्तपात का इतिहास रहा है। सर्वाधिक 32 विद्रोही संगठन इसी समुदाय के हैं। इन्हें म्यांमार के आप्रवासी कुकियों का भी व्यापक समर्थन प्राप्त है। कुकी राज्य के दक्षिणी पहाड़ी इलाकों में बसे हैं, जो म्यांमार से सटे हैं। इस क्षेत्र का व्यापक सामरिक महत्व है। यह क्षेत्र भारत सरकार की एक्ट ईस्ट पॉलिसी का प्रवेश द्वार है।
कुकी इन क्षेत्रों पर अपना दबदबा कायम रखना चाहते हैं। वहीं, मैतेई समुदाय पर भूमि का अत्यधिक दबाव है और उन्हें बसावट के लिए जमीन चाहिए। लेकिन कुकी समेत तमाम जनजातीय समुदाय उन्हें जमीन नहीं देना चाहते। इससे मैतेई समुदाय में कुकियों के प्रति नफरत उपजती रही है। दरअसल, कुकी समेत अन्य 34 जनजाति समुदायों के मन में ईसाई मिशनरियों ने यह बात बैठाई है कि ‘मैतेई पहले से ही साधन संपन्न हैं और यदि इन्हें जनजातीय दर्जा मिल गया तो वे पहाड़ी भूमि, सरकारी नौकरी सहित अन्य सुविधाएं भी हड़प लेंगे।’ इसी कारण कुकी समुदाय न तो मैतेई पर और न ही सरकार पर भरोसा करने को तैयार है।
घोषित जनजाति समुदाय भारतीय संविधान की धारा 371सी का हवाला देते हैं, जो राज्य के पर्वतीय इलाकों को संरक्षित करती है। इन संरक्षित क्षेत्रों में गैर-जनजातीय लोग जमीन नहीं खरीद सकते। कुकी जैसे जनजाति समुदाय राज्य सरकार द्वारा निर्मित मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार कानून-1961 में संशोधन (2015) का भी विरोध कर रहे हैं। कुकी-जोमी आदि समुदाय इन पर्वतीय क्षेत्रों में संरक्षित वन क्षेत्र, संरक्षित वन्यजीव क्षेत्र या वेटलैंड आदि में भी मनमाने तरीके से भूमि कब्जा कर वानिकी और वन्य जीवन को नुकसान पहुंचाते हैं। इन संरक्षित वन्य क्षेत्रों में निजी संपत्ति की सख्त मनाही है, फिर भी ये लोग संसाधनों का निजी संपत्ति की तरह दुरुपयोग करते हैं। यानी कुकी-जोमी आदि समुदाय कानून की आड़ में जमीन पर कब्जा कर रहे हैं।
नशा और आतंकी गठजोड़
मणिपुर हिंसा का एक कोण अफीम की खेती, नशे का कारोबार और म्यांमार के आतंकी संगठनों से गठजोड़ है। पर्वतीय क्षेत्र में कुकी जैसे समुदायों ने पहले गांजे की खेती की। अत्यधिक लाभ की मंशा में धीरे-धीरे अफीम की खेती शुरू हुई। समय के साथ कुकी-जोमी समुदायों में अफीम की खेती जीवनबोध के रूप में पनपी। अफीम और उसका व्यापार जीवनयापन और रोजगार का मुख्य माध्यम हो गया है। इसमें कुकी नेशनल आर्मी और जोमी रेवोल्युशनरी आर्मी जैसे संगठन मुख्य रूप से सक्रिय रहे हैं। नशे का कारोबार मणिपुर से लेकर म्यांमार, लाओस और कंबोडिया तक फैला हुआ है। इससे होने वाली कमाई से इन उग्रवादी संगठनों ने हथियार खरीदे। बाद में इनके साथ बर्मा के कुकी आतंकी समूह भी जुड़ गए। वर्तमान राज्य सरकार ने अफीम और नशे की खेती को लेकर ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति अपनाई है। अफीम की खेती पर रोक लगाने के साथ नशा तस्करों के खिलाफ कार्रवाई की गई है। साथ ही, हथियार और म्यामांर के आतंकी समूह से गठजोड़ पर भी लगाम लगाने की कोशिश की है। इसलिए यह समूह मौका पाकर हिंसक हो उठा।
कृष्ण भक्त मैतेई
‘मणिपुर’ का शाब्दिक अर्थ है आभूषणों की भूमि। ब्रिटिश काल में मणिपुर एक रियासत थी। यहां के महाराजा बोधचंद्र सिंह ने सितंबर 1949 में विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। विलय 15 अक्तूू्बर, 1949 से लागू हुआ। 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान लागू होने पर मणिपुर एक मुख्य आयुक्त के अधीन भारतीय संघ में भाग ‘सी’ के राज्य के रूप में शामिल हुआ। कालांतर में एक प्रादेशिक परिषद गठित की गई, जिसमें 30 चयनित तथा 2 मनोनीत सदस्य थे। 1962 में केंद्र शासित प्रदेश अधिनियम के अंतर्गत 30 चयनित तथा 3 मनोनीत सदस्यों की एक विधानसभा बनी। 21 जनवरी, 1972 को इसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और 60 सदस्यीय विधानसभा गठित की गई। अभी यहां लोकसभा की दो और राज्यसभा की एक सीट है।
मणिपुर की सीमा उत्तर में नागालैंड, दक्षिण में मिजोरम, पश्चिम में असम और पूर्व में म्यांमार से मिलती है। इसका क्षेत्रफल 22,347 वर्ग कि.मी है। मैतेई यहां के मूल निवासी हैं, जो घाटी क्षेत्र में रहते हैं। इनकी भाषा मेइतिलोन है, जिसे मणिपुरी भाषा भी कहते हैं, जो 1992 में संविधान की 8वीं अनुसूची में जोड़ी गई। 33 ई. से 1949 ई. तक लगभग 2000 वर्ष तक मणिपुर का शासन मैतेई वंश के पास रहा, जो दुनिया में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाला राजवंश है। मैतेई कृष्ण भक्त हैं। चैतन्य गौड़ीय दार्शनिक परंपरा का भावबोध मैतेई भावबोध है। सनातन सातत्यता इनका जीवन-राग है।
ईसाइयों की मनमानी और कन्वर्जन
हिंसा का एक सबसे प्रमुख कारण है-ईसाई मिशनरी और कन्वर्जन। अनुच्छेद 371सी का सबसे अधिक फायदा ईसाई मिशनरियों ने उठाया है। मणिपुर के जनजातीय संरक्षित क्षेत्रों में गैर-जनजाति लोग जमीन खरीद नहीं सकते, लेकिन ईसाई संगठनों ने इन क्षेत्रों में व्यापक भूमि अर्जन किया। यहां तक कि वन्य संरक्षित क्षेत्रों में, जहां निजी संपत्ति की सख्त मनाही है, वहां भी ये कुकी-नागा-जोमी ईसाई लोग धीरे-धीरे बसाहट बढ़ाते हुए ‘गांव’ बना लेते हैं। रातों-रात बांस के छप्पर और चारदीवारी वाले चर्च खड़े कर सैकड़ों एकड़ संरक्षित सरकारी जमीन कब्जा लेते हैं। चर्च, भू-माफिया और नशा तस्करों का यह प्रिय खेल है। कन्वर्जन हुआ, अफीम की खेती के लिए जमीन मिली और ये लोग बैठे-बैठे करोड़ों रूपए के स्वामी बन गए।
वर्तमान सरकार ऐसे कई कन्वर्टिड कृत्रिम गांवों को हटा चुकी है। हिंसा से पहले चुराचांदपुर में भी एक अवैध गांव पर सरकार का बुलडोजर चला था। ईसाई चर्च, कुकी-जोमी अपराधियों और प्राकृतिक संसाधनों के लुटेरों को सरकार की कार्रवाई टीस देती है। लिहाजा, इस गठजोड़ ने इसे जनजातीय अधिकारों का मामला बनाया और जनभावनाएं भड़काईं।
मैतेई हिंदुओं के घर जलाए गए। कन्वर्जन में लिप्त चर्च, विदेशी पूंजी और नशा-अपराध के इस त्रिगुट ने पिछले सौ वर्षों में पूर्वोत्तर भारत में जमकर उपद्रव किया है। मणिपुर में 1901 में 96 प्रतिशत हिंदू थे जो 2021 में मात्र 49 प्रतिशत रह गए। सोचिये, एक तरफ भारत का न्यायालय है, सनातनी मैतेई लोग हैं, सरकार है तो दूसरी तरफ कन्वर्जन में लगा चर्च है, अफीम के तस्कर हैं, अवैध हथियारों के व्यापारी हैं। लड़ाई कठिन है। मणिपुर का वर्तमान संकट संकेत है कि पूर्वोत्तर भारत का यह रोग गहरा है। संतोष इस बात का है कि देश के वर्तमान नेतृत्व को पूर्वोत्तर के इस उपद्रवी रोग की पहचान है। जब रोग की पहचान हो जाती है तो उपचार भी हो ही जाता है।
(लेखक पूर्वोत्तर मामलों के जानकार हैं)
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