नई दिल्ली। दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के पाठ्यक्रम में वीर सावरकर के योगदान और उनके दर्शन को शामिल करने का फैसला लिया गया है। इसके साथ ही अल्लामा इकबाल को पाठ्यक्रम से हटाया गया है। दिल्ली विश्वविद्यालय के इस निर्णय का प्रमुख हस्तियों ने स्वागत किया है। इसमें दिल्ली और राजस्थान हाईकोर्ट के सेवानिवृत जज, पूर्व विदेश सचिव, रॉ के पूर्व डायरेक्टर, सेवानिवृत नौकरशाह सेवानिवृत पुलिस अधिकारी और वकीलों समेत 123 नामचीन हस्तियां शामिल हैं। इन सभी की ओर से एक पत्र जारी किया गया है, जिसमें डीयू के फैसले को बिल्कुल सही कहा गया है।
दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व जज एसएन ढींगरा और एमसी गर्ग, राजस्थान के पूर्व जज आरएस राठौड़, पूर्व विदेश सचिव शशांक, रॉ के पूर्व डायरेक्टर संजीव त्रिपाठी, मणिपुर के पूर्व सचिव बीएल वोहरा, पूर्व राजदूत भास्वती मुखर्जी, असम के पूर्व डीजीपी एम मोहन राज, झारखंड के पूर्व डीजीपी निर्मल कौर समेत अन्य नामचीन हस्तियों की ओर से ये पत्र जारी किया गया है। इसमें दिल्ली विश्वविद्यालय के अकादमिक परिषद की ओर से लिए गए निर्णय का स्वागत किया गया है।
इसमें कहा गया है कि ग्रंथों में लिखे गए इतिहास और किसी भी देश में पढ़ाए जाने वाले इतिहास को सच्चाई से तथ्यों को प्रकट करना चाहिए। निष्पक्ष रूप से और बिना किसी पूर्वाग्रह के इसकी व्याख्या की जानी चाहिए। दुर्भाग्य से, भारत
में आजादी के बाद से ऐसा नहीं हुआ है। पक्षपाती प्रस्तुति और विकृत व्याख्या ने इतिहास और राजनीति विज्ञान के शिक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। राजनीतिक कारणों से कांग्रेस और कुछ वामपंथी झुकाव वाले संगठनों के द्वारा ऐसा किया गया। भारत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्त कराने में मदद करने और देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाली कई हस्तियों के साथ घोर अन्याय किया गया। इस वजह से भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास के निष्पक्ष वर्णन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ग्रंथों का पुनर्लेखन होना चाहिए।
कांग्रेस-वामपंथी प्रभाव के तहत सावरकर के योगदान को दबाया
उदाहरण के तौर पर यहां दो शख्सियतों का जिक्र किया गया है- विनायक दामोदर सावरकर और कवि मोहम्मद इकबाल। यह विशेष रूप से दुर्भाग्यपूर्ण है कि कांग्रेस-वामपंथी प्रभाव के तहत विश्वविद्यालयों ने जानबूझकर हमारी महान मातृभूमि के लिए वीर सावरकर के योगदान और उनके विचारों को दबा दिया। वीर सावरकर, एक प्रतिष्ठित स्वतंत्रता सेनानी, कवि और राजनीतिक दार्शनिक ने भारत के इतिहास पर एक महत्वपूर्ण और अमिट छाप छोड़ी। एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्हें लगभग एक दशक तक अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में ‘काला पानी’ यानी ब्रिटिश जेल में सलाखों के पीछे रखा गया था, जिसमें से उन्हें छह महीने के लिए एकांत कारावास में भी रखा गया था। उल्लेखनीय साहित्य ‘हिंदुत्व: हू इज ए हिंदू’ में हिंदुत्व विचारधारा के प्रतिपादन के लिए उन्हें ‘हिंदुत्व का पिता’ कहा जाता है। उन्होंने एक साझा सांस्कृतिक और सभ्यतागत पहचान के तहत विविध समुदायों को एकजुट करते हुए ‘हिंदुत्व’ को एक भू-राजनीतिक अवधारणा के रूप में प्रचारित किया।
सावरकर की विचारधारा- ‘अखंड भारत
सावरकर की दूसरी पुस्तक “भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास’ को अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था। उन्होंने दलित अधिकारों का समर्थन किया, जाति उन्मूलन और सामाजिक समानता को बढ़ावा देने के लिए काम किया। एक राष्ट्र के रूप में भारत की उनकी दृष्टि केंद्रीय थी। सावरकर की विचारधारा- ‘अखंड भारत।’ स्वतंत्रता, सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय एकता पर सावरकर के विचार उन्हें भारतीय इतिहास में एक स्थायी व्यक्ति बनाते हैं। सावरकर की राजनीतिक विचारधाराओं का अध्ययन करके, छात्र भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन और उसके बाद के प्रक्षेपवक्र को आकार देने वाले कारकों में अंतर्दृष्टि प्राप्त करेंगे।
इकबाल ने बोए अलगाव के बीज
भारत के विभाजन के लिए कौन लोग जिम्मेदार थे, छात्रों को इसे समझना चाहिए। ऐसे ही एक शख्स थे मशहूर शायर मोहम्मद इकबाल। उन्होंने देश में अलगाव के बीज बोए। तत्कालीन पंजाब मुस्लिम लीग के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने एक अलग मुस्लिम राष्ट्र का समर्थन किया। इकबाल ने लिखा था- ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा…’ उन्होंने इस्लामी खिलाफत की बात की, उम्माह की बात की और वे बदल गए। ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा…’ से चीनो-ओ-अरब-हमारा, हिन्दोस्तान हमारा, मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा’ हो गया।
इकबाल कट्टरपंथी बन गए और मुस्लिम लीग के अध्यक्ष के रूप में उनके विचार लोकतंत्र और भारतीय धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ चले गए। इकबाल के कई लेख एक अलग मुस्लिम राष्ट्र के विचार से जुड़े हुए हैं, जो अंततः भारत के विभाजन की त्रासदी का कारण बने। द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की इस अवधारणा ने भारत के विभाजन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके परिणामस्वरूप भारत के पूर्व और पश्चिम में लाखों विस्थापितों को पीड़ा हुई। इसलिए, उन्हें “आधुनिक भारतीय राजनीतिक विचार” की सूची से हटाना दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद का सही कदम है। राष्ट्रीय आंदोलन में सावरकर के योगदान और दर्शन को शामिल करने और दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भारतीय राष्ट्र के निर्माण का हम स्वागत करते हैं।
पत्र में कहा गया कि हम दिल्ली विश्वविद्यालय की एकेडमिक काउंसिल के फैसले का पूरी तरह समर्थन करते हैं। हम सही दिशा में ऐसे सभी प्रयासों का समर्थन करते हैं। सभी देशभक्त इसका समर्थन करें।
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